श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)


श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र,  (Vishnu Sahasranama) जिसे भगवान विष्णु के हजार नामों की वंदना के रूप में जाना जाता है, हिंदू धर्म में एक प्रमुख पूजा एवं उपासना का स्रोत है। इस स्तोत्र में भगवान विष्णु की अपार महिमा, दैवीय गुण एवं विशेषताएं स्तुति के माध्यम से व्यक्त की गई हैं। यह एक दिव्य ध्यान और साधना का मार्ग है जो भक्तों को आत्मिक संयम, शांति और पूर्णता की प्राप्ति में सहायता प्रदान करता है।

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सहस्रनाम स्तोत्र  (Vishnu Sahasranama) की उत्पत्ति महाभारत के महर्षि व्यास द्वारा की गई थी। इसे व्यास मुनि ने देवर्षि नारद के द्वारा प्राप्त किया था। यह स्तोत्र महाभारत के अनुशासन पर्व में प्रकट होता है, जहां युधिष्ठिर और भीष्म के बीच होने वाले एक संवाद के रूप में प्रस्तुत होता है। भगवान विष्णु के इन हजार नामों के महत्वपूर्ण संग्रह में, हमें उनकी अद्भुत शक्ति, दया और प्रेम का प्रतिबिंब प्राप्त होता है।

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)

 

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र को जप करने और स्वाध्याय करने का महत्व अपार है। इसके द्वारा, हम अपने मन को ध्यान में लगाकर अविचलितता और मनोशांति प्राप्त कर सकते हैं। यह हमें अद्वैत स्वरूप और सच्चिदानंद परमात्मा की उपासना में मदद करता है। सहस्रनाम स्तोत्र की उच्चारण और सुनने से हमारे मन को शुद्धि, प्रकाश और आध्यात्मिक विकास की प्राप्ति होती है।

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इस ब्लॉग में हम श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र के गूढ़ रहस्य, उच्चारण विधि, महत्वपूर्ण नामों के अर्थ, और इसके पाठ और उपासना के लाभों पर विचार करेंगे। आइए, इस महान स्तोत्र के द्वारा हमारे मन, शरीर, और आत्मा को शुद्ध करने के लिए एक साथ चलें और भगवान विष्णु के आद्यात्मिक आभास को अनुभव करें।

श्री विष्णु सहस्त्रनाम  (Vishnu Sahasranama) स्तोत्र: विष्णु भगवान की महिमा का एक अद्वितीय स्तोत्र

वेदों के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक हिन्दू धर्म का महत्वपूर्ण ग्रंथ है "विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र"।  (Vishnu Sahasranama)यह स्तोत्र भगवान विष्णु की महिमा, उपासना, एवं उनके गुणों का वर्णन करता है। श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र  (Vishnu Sahasranama) के द्वारा भगवान विष्णु की असीम शक्ति, सौंदर्य, आदर्श जीवनशैली, एवं प्रेम की महिमा का वर्णन किया जाता है। 

 

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)

 

इस स्तोत्र में 1000 से अधिक नामों के माध्यम से भगवान के भक्ति एवं आराधना की गहराईयों तक पहुंचा जा सकता है।

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र (Vishnu Sahasranama) के रचयिता:

श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का रचयिता महर्षि वेदव्यास हैं। वेदव्यास जी महाभारत के रचयिता और विष्णु पुराण के लेखक भी हैं। उन्होंने इस स्तोत्र के माध्यम से विष्णु भगवान की महिमा और गुणों का वर्णन किया है। यह स्तोत्र महाभारत के अनुशासन पर्व में उपास्य ब्रह्मण याज्ञवल्क्य और श्रीकृष्ण के बीच हुए संवाद के रूप में प्रस्तुत है।

 

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)

 यह स्तोत्र मन्त्रों, नामों और गुणों के समृद्ध संग्रह के रूप में जाना जाता है जो श्रद्धालुओं को देवता के समीप ले जाता है।

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का महत्व:

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ भगवान विष्णु की पूजा, ध्यान, अर्चना, एवं उपासना के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। इस स्तोत्र के पाठ से भक्त भगवान विष्णु के पास अपनी आराधना को समर्पित करता है और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करता है। इस स्तोत्र के पाठ से मन और बुद्धि शुद्ध होती है और अन्तरंग शांति प्राप्त होती है। विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से भगवान की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख, शांति, आनंद, समृद्धि और मान-सम्मान प्राप्त होता है।

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र भारतीय साहित्य और धार्मिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है। इस स्तोत्र का महत्व विभिन्न आयामों से जुड़ता है, जो इसे एक अद्वितीय और अनमोल धार्मिक पाठ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यहां तक कि इसे ब्रह्मा देव ने भी प्रशंसा की है और उसे सुरों को व्यक्त करने का उद्देश्य दिया है। निम्नलिखित कुछ महत्वपूर्ण कारणों से विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का महत्व बढ़ता है:

देवी और देवताओं की प्रशंसा: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र में विष्णु भगवान के हजारों नामों का वर्णन है, जो उनकी महिमा और गुणों को प्रशंसा करते हैं। इसके माध्यम से देवी और देवताओं की प्रशंसा होती है और उनके मार्गदर्शन के लिए संकेत मिलता है।

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भक्ति और समर्पण का प्रदर्शन: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करना भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक क्रिया है। इससे भक्ति और समर्पण की भावना का प्रदर्शन होता है और विष्णु भगवान के प्रति आदर और श्रद्धा जगाई जाती है।

मनोशांति और आत्मिक समृद्धि: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से मन की शांति होती है और अन्तःकरण को शुद्धि मिलती है। यह स्तोत्र विष्णु भगवान के गुणों को याद करने के माध्यम से आत्मिक समृद्धि और मनोवैभव के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।

अध्यात्मिक ज्ञान का प्राप्ति: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र में विष्णु भगवान के विभिन्न नामों का उल्लेख है, जो उनकी दिव्यता और अद्वैत ब्रह्म की प्रतीक्षा को दर्शाते हैं। इससे अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है और आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप की पहचान होती है।

कल्याण और रक्षा का साधन: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र के पाठ का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि इसे पठने से भक्तों को कल्याण और रक्षा की प्राप्ति होती है। इसे नियमित रूप से पठने से संयम, सफलता, शांति, सुख, और सर्वत्र सुरक्षा की प्राप्ति होती है।

इस प्रकार, विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र धार्मिक, आध्यात्मिक और मानविक महत्व के धाराप्रवाह को प्रदर्शित करता है। इसका पाठ करने से भक्तों को आध्यात्मिक समृद्धि, मानसिक शांति, और दिव्य आनंद का अनुभव होता है। यह स्तोत्र विष्णु भगवान की प्रतीक्षा, पूजा और भक्ति का महत्वपूर्ण साधन है और उनकी कृपा और आशीर्वाद का उत्कृष्ट माध्यम है।

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने के फायदे

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से निम्नलिखित प्रकार के प्रभाव और लाभ हो सकते हैं:

मन की शांति: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से मन की शांति प्राप्त होती है। इसके माध्यम से मन को चंचलता, चिंता और संदेहों से मुक्ति मिलती है और एक स्थिर और शांतिपूर्ण अवस्था अनुभव की जा सकती है।

आत्मिक विकास: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से आत्मिक विकास होता है। इस स्तोत्र में विष्णु भगवान के विभिन्न नामों का उल्लेख होता है, जिससे आत्मा को उनके गुणों का अनुभव होता है और उसकी साधारण जीवन से ऊँचाईयों की ओर प्रेरित करता है।

 

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)

दुःखों का निवारण: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र के पाठ से दुःखों का निवारण हो सकता है। इसका पाठ करने से भक्त को आराम, सुख, और समृद्धि की प्राप्ति होती है और उसे विभिन्न आपदाओं और अवस्थाओं से मुक्ति मिलती है।

आध्यात्मिक ज्ञान: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसमें विष्णु भगवान के विभिन्न नामों के माध्यम से उनके गुण, स्वरूप, और लीलाएं प्रकट होती हैं, जिससे भक्त को आध्यात्मिक ज्ञान का विस्तार होता है।

अभिवृद्धि और कल्याण: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से भक्त की अभिवृद्धि और कल्याण होता है। यह स्तोत्र भगवान विष्णु की कृपा और आशीर्वाद को आमंत्रित करता है और उसे सदैव सुरक्षा, सुख, समृद्धि, और सम्पूर्णता का अनुभव होता है।

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ नियमित रूप से करने से इन लाभों का अनुभव हो सकता है। यह भक्ति, आध्यात्मिकता, और आनंद की ओर एक मार्ग प्रदान करता है और भगवान विष्णु के साथ संबंध स्थापित करने में सहायता करता है।

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ कब करना चाहिए

विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ आप किसी भी समय कर सकते हैं, किन्तु कुछ विशेष संदर्भों में उसका पाठ करने की अधिक सिफारिश की जाती है।

सुबह के समय: विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ सुबह के समय करने की सिफारिश की जाती है। यह आपके दिन की शुरुआत में पवित्रता और ऊर्जा का संचार करता है और आपको सकारात्मकता और शक्ति प्रदान करता है।

सन्ध्या काल: सन्ध्या काल भी एक अच्छा समय होता है विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने के लिए। इस समय परमात्मा के समीप होने का अनुभव होता है और आपकी आध्यात्मिकता और शांति बढ़ती है।

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)

 

विशेष दिनों पर: कुछ विशेष दिनों पर विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने का महत्व अधिक होता है। जैसे जन्माष्टमी, एकादशी, वैकुण्ठ एकादशी, द्वादशी, रामनवमी, वैष्णवी जयंती, या वैष्णव समाज के आयोजित किए जाने वाले विशेष पूजा और उत्सवों पर। इन दिनों पर इस स्तोत्र का पाठ करने से आपको अधिक फल और पुण्य प्राप्त होता है।

इसके अलावा, आप विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ किसी भी समय कर सकते हैं जब आपको आध्यात्मिकता, मन की शांति, और भगवान के साथ संबंध स्थापित करने की इच्छा हो। यह आपकी नियमितता और श्रद्धा के साथ किया जाना चाहिए ताकि इसके लाभों का पूरा आनंद लिया जा सके।

 

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)  


ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः॥

 

हिंदी अर्थ -""ॐ" - यह ओंकार कहलाता है, जो सर्वव्यापी ब्रह्म की प्रतिष्ठा को दर्शाता है। "विश्वं" - जगत् या सम्पूर्ण विश्व। "विष्णुः" - भगवान विष्णु, संसार के सृजनहार और पालक। "वषट्कारः" - वषट्कार, जो मंत्रों और शक्तियों का प्रतिष्ठान करता है। "भूतभव्यभवत्प्रभुः" - वह भूत, वर्तमान और भविष्य के आधिपति है। "भूतकृत्" - जो भूतों को रचता है। "भूतभृत्" - जो भूतों की पालना करता है। "भावः" - भाव, जो सत्ता को धारण करता है। "भूतात्मा" - जो सभी भूतों की आत्मा है। "भूतभावनः" - जो भूतों को उत्पन्न करता है।

इस प्रमुख श्लोक में भगवान विष्णु की महिमा वर्णित की गई है, 

 

श्रीविरात्सङ्कटनाशनो विष्णुर्वासुदेवोऽब्रवीत्।
अमोघः पुण्यकीर्तिः पुण्यः पुण्यश्रवणान्वितः॥

 

हिंदी अर्थ-श्रीविरात्सङ्कटनाशनः" - जो श्रीवत्स चिह्न वाले हैं, सभी संकटों को नष्ट करने वाले हैं। "विष्णुः" - भगवान विष्णु, संसार के सृजनहार और पालक। "वासुदेवः" - वासुदेव, भगवान कृष्ण का एक नाम है। "अब्रवीत्" - उन्होंने कहा। "अमोघः" - अविरल और असीम प्रभावशाली। "पुण्यकीर्तिः" - जिनकी महिमा की गणना की जाती है, पुण्य की गणना की जाती है। "पुण्यः" - पुण्यमय और शुभ। "पुण्यश्रवणान्वितः" - जिनका श्रवण करने से शुभ प्रभाव होता है।

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)

 

यह श्लोक भगवान विष्णु के आदर्श गुणों का संक्षेप में वर्णन करता है, जो संकटों को नष्ट करने वाले हैं, अपार पुण्य की महिमा रखते हैं और जिनका श्रवण करने से शुभ प्रभाव होता है।

रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः।
अनन्तः हुतभुग्विभुर्विश्वयोनिः शुचिःश्रवाः॥

हिंदी अर्थ-रविः" - सूर्य, जो प्रकाश और ऊष्मा का स्रोत है। "विरोचनः" - विरोचन, जो प्रकाशमान है। "सूर्यः" - सूर्य, जो सबका प्रकाशक है। "सविता" - सविता, जो प्रकाश का सृष्टिकर्ता है। "रविलोचनः" - जो प्रकाश की ज्योति है। "अनन्तः" - अनन्त, जो अनंत हैं, निरंतर हैं। "हुतभुक्" - हवनों को स्वीकार करने वाले हैं। "विभुः" - विभु, जो सर्वव्यापी हैं। "विश्वयोनिः" - विश्वके जन्मस्थान हैं। "शुचिःश्रवाः" - शुचि और श्रवणयोग्य हैं।

इस प्रमुख श्लोक में सूर्य के गुणों का वर्णन किया गया है। सूर्य को ज्योति और ऊष्मा का स्रोत, सबका प्रकाशक, प्रकाश का सृष्टिकर्ता और ज्योति की ज्योति कहा गया है। वह अनंत हैं, हवनों को स्वीकार करते हैं, सर्वव्यापी हैं, विश्व के जन्मस्थान हैं और शुचि और श्रवणयोग्य हैं।

 
अमृतशीर्भूतभृद्भोक्ता भूतभव्यभवत्प्रभुः।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः॥

 

हिंदी अर्थ-"अमृतशीः" - जो अमृत के शीर्ष हैं, जो मृत्यु को परास्त करते हैं। "भूतभृत्" - जो सभी भूतों की पालना करते हैं। "भोक्ता" - भोक्ता, जो भोजन करते हैं या उपभोग करते हैं। "भूतभव्यभवत्प्रभुः" - जो भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी हैं। "भूतकृत्" - जो भूतों को रचते हैं। "भूतभृत्" - जो भूतों की पालना करते हैं। "भावः" - भाव, जो सत्ता को धारण करते हैं। "भूतात्मा" - जो सभी भूतों की आत्मा हैं। "भूतभावनः" - जो भूतों को उत्पन्न करते हैं।

यह श्लोक भगवान विष्णु के आदर्श गुणों का वर्णन करता है। वे अमृत के शीर्ष हैं, सभी भूतों की पालना करते हैं, भोजन करते हैं और भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी हैं। वे भूतों को रचते हैं, उनकी पालना करते हैं, सत्ता को धारण करते हैं, सभी भूतों की आत्मा हैं और भूतों को उत्पन्न करते हैं।

 
पुतत्रे तिग्मपिङ्गलोऽभ्रः सर्वत्रचक्षुरग्रणीः।
अनालः सर्वदृग्व्यापी दीप्तो वृषभ ध्वजः॥

 

पुतत्रे" - पुत्र, जो पुत्र के लिए हैं। "तिग्मपिङ्गलः" - जो तेजस्वी और उज्ज्वल हैं। "अभ्रः" - बादल, जो बादल के समान हैं, आवरण हैं। "सर्वत्रचक्षुरग्रणीः" - सर्वत्र दृष्टि को संचालित करने वाले हैं, सब जगह देखने वाले हैं। "अनालः" - अग्नि, जो अग्नि के समान हैं, उग्र हैं। "सर्वदृग्व्यापी" - सबको देखने वाले हैं, सर्वव्यापी हैं। "दीप्तः" - ज्योतिमय, चमकदार हैं। "वृषभः" - वृषभ, जो वृषभ के समान हैं, महान हैं। "ध्वजः" - ध्वज, जो ध्वज के समान हैं, पदार्थ का प्रतीक हैं।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन किया गया है। वे उज्ज्वल और तेजस्वी हैं, सब जगह देखने वाले हैं, उग्र और सर्वव्यापी हैं, ज्योतिमय हैं, महान हैं और पदार्थ का प्रतीक हैं। 

 
मनः प्राणः सर्वभूतात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः।
चतुरात्मा चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः॥

"मनः" - मन, जो मन हैं, मनस्वी हैं। "प्राणः" - प्राण, जो प्राण हैं, जीवनशक्ति हैं। "सर्वभूतात्मा" - सभी प्राणियों की आत्मा हैं, सभी जीवों के अंतरात्मा हैं। "चतुर्व्यूहः" - चतुर्व्यूह, जो चार व्यूह हैं, चार प्रमुख सामरिक संगठन हैं। "चतुर्गतिः" - चार गति हैं, चार प्रमुख मार्ग हैं। "चतुरात्मा" - चार आत्मा हैं, चार प्रमुख आत्माएं हैं। "चतुर्बाहुः" - चार बाहु हैं, चार प्रमुख हाथ हैं। "चतुर्व्यूहः" - चतुर्व्यूह, जो चार व्यूह हैं, चार प्रमुख सामरिक संगठन हैं। "चतुर्गतिः" - चार गति हैं, चार प्रमुख मार्ग हैं।

इस श्लोक में चतुर्व्यूह और चतुर्गति के माध्यम से भगवान विष्णु के चार आत्माओं का वर्णन किया गया है। वे मन हैं, प्राण हैं, सभी प्राणियों की आत्मा हैं। वे चार आत्माएं हैं, चार हाथ हैं, चार व्यूह हैं और

 
भूतात्मा चतुरात्माऽच यः सर्वपापैः प्रमुच्यते।
इष्टादः षष्ठिरनिर्वृत्तः साधुर्ज्ञानपरायणः॥

भूतात्मा" - भूतात्मा, जो सभी प्राणियों की आत्मा हैं। "चतुरात्मा" - चार आत्मा हैं, चार प्रमुख आत्माएं हैं। "यः" - जो, जो कि हैं। "सर्वपापैः प्रमुच्यते" - सभी पापों से मुक्त होता हैं, सभी पापों से छुटकारा प्राप्त करता हैं। "इष्टादः" - इष्टादि, जो इष्टादि को प्रदान करने वाले हैं, सभी अभीष्ट को पूरा करने वाले हैं। "षष्ठिरनिर्वृत्तः" - षष्ठि, जो षष्ठि को स्थापित और निर्वृत्त करने वाले हैं, स्थिरता को देने वाले हैं। "साधुः" - साधु, जो साधु हैं, धार्मिक हैं। "ज्ञानपरायणः" - ज्ञान परायण, जो ज्ञान के प्रति आराध्य हैं, ज्ञान में निरंतर लगे रहते हैं।

इस श्लोक में भगवान विष्णु के गुणों का वर्णन किया गया है। वे सभी प्राणियों की आत्मा हैं, चार आत्माओं के स्वामी हैं और सभी पापों से मुक्त होते हैं। वे सभी अभीष्ट को पूरा करने वाले हैं, स्थिरता को देने वाले हैं और धार्मिक हैं। वे ज्ञान के प्रति आराध्य हैं और ज्ञान में निरंतर लगे रहते हैं।

 
यः पर्युपासते नित्यं देवांश्च यः परायणः।
तस्य देवा सवे देवाः सर्वे देवश्च योऽभ्ययाः॥

"यः" - जो, जो कि हैं। "पर्युपासते" - निरंतर पूजा करते हैं, समर्पित होते हैं। "नित्यं" - निरंतर, सदा, लगातार। "देवांश्च" - देवताओं को, दिव्य पुरुषों को। "यः" - जो, जो कि हैं। "परायणः" - परायण, समर्पित होने वाले, परम आदर करने वाले। "तस्य" - उसके, उसकी। "देवाः सवे" - सभी देवताएं, सभी दिव्य पुरुष। "देवाः" - देवताएं, दिव्य पुरुष। "सर्वे" - सभी, सब। "देवश्च" - देवताओं और, दिव्य पुरुषों और। "यः अभ्ययाः" - जो अविनाशी, अमर हैं।

इस श्लोक में बताया गया है कि जो व्यक्ति निरंतर देवताओं की पूजा करता है और उनके परायण रहता है, उन सभी देवताएं उसकी आदर करती हैं और उसे सभी देवताओं की अविनाशी, अमर स्वरूप मानते हैं।

 
योऽवतारो हयस्वामी रामो राजीवलोचनः।
वासुदेवः सर्वमिति स विष्णुस्स्यामसुन्दरः॥

यः अवतारः" - जो अवतार हैं, जो अवतार स्वरूप हैं। "हयस्वामी" - हयस्वामी, अश्व में स्वामी हैं, घोड़ों के स्वामी हैं। "रामः" - राम, भगवान राम हैं। "राजीवलोचनः" - राजीवलोचन, जिनकी आंखें राजीव के समान हैं। "वासुदेवः" - वासुदेव, भगवान कृष्ण हैं। "सर्वमिति" - सब के रूप में, सबको समावेश में। "सः विष्णुः" - वह विष्णु हैं। "स्यामसुन्दरः" - स्यामसुन्दर, काले रंग के मनोहारी हैं।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि हयस्वामी रूप में आविष्कृत हुए भगवान राम, जिनकी आंखें राजीव के समान हैं, और जो सबको समावेश में रखते हैं, वे ही वासुदेव भगवान हैं, जो काले रंग के सुंदर हैं।

 
वेदवेद्यो यज्ञरूपो व्यापको वायुरद्भुतः।
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः॥

"वेदवेद्यो" - वेदों के ज्ञान का ज्ञाता, जिनका ज्ञान वेदों द्वारा होता है। "यज्ञरूपो" - यज्ञ के स्वरूप में होने वाला, यज्ञ के रूप में प्रकट होने वाला। "व्यापको" - सर्वव्यापी, सर्वत्र हाजिर, सभी जगह मौजूद। "वायुः" - वायु, हवा, प्राणीयों की श्वास-प्रश्वास करने वाली शक्ति। "अद्भुतः" - अद्भुत, आश्चर्यजनक, अतुलनीय। "ऋतुः" - ऋतु, मौसम, प्रकृति की विशेष अवधि। "सुदर्शनः" - सुदर्शन, जिसे देखना सुंदर हो, दृष्टि को सजीवंत बनाने वाला। "कालः" - काल, समय, सृष्टि के समय-व्यवस्थापक। "परमेष्ठी" - परमेष्ठी, सबसे ऊचा, सर्वोच्च शक्ति। "परिग्रहः" - परिग्रह, सभी प्राणियों का संचालन करने वाला, सम्पूर्ण नियंत्रण रखने वाला।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि परमेष्ठी, जिसका ज्ञान वेदों के द्वारा होता है, वह यज्ञ के स्वरूप में प्रकट होता है, सब जगह व्याप्त होता है, अद्भुत है, वायु के समान है, ऋतु है, सुदर्शन है, समय है और सभी प्राणियों को नियंत्रित करने वाला है।

उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः।
विष्णुः स्रष्टा स्थितः पालो भूतादिर्निधिरव्ययः॥

"उग्रः संवत्सरः" - उग्र संवत्सर है, अत्यंत शक्तिशाली वर्ष। "दक्षः" - दक्ष, कुशल, कुशलतापूर्ण। "विश्रामः" - विश्राम, आराम, विश्राम का स्थान। "विश्वदक्षिणः" - विश्वदक्षिण, समस्त दिशाओं में विचारशीलता का धारण करने वाला। "विष्णुः" - विष्णु, ईश्वर का एक अवतार, सृष्टिकर्ता। "स्रष्टा" - सृष्टिकर्ता, सृष्टि करने वाला। "स्थितः" - स्थित, स्थायी रूप से मौजूद। "पालो" - पालक, संरक्षक, रक्षाकर्ता। "भूतादिः" - भूतादि, प्राकृतिक महातत्वों के संयोग से उत्पन्न होने वाला। "निधिः" - निधि, संचय, संग्रह करने वाला। "अव्ययः" - अविनाशी, अद्वितीय, अविकारी।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि उग्र संवत्सर वर्ष है, दक्ष है और विश्व के सभी दिशाओं में विचारशीलता का धारण करने वाला है। विष्णु ईश्वर का सृष्टिकर्ता है, स्थायी रूप से मौजूद है, सभी प्राणियों का पालन करता है, भूतों का संग्रह करता है और अविनाशी है।

 
संभवो भवनः सर्वः अव्यक्तः शर्वरीकरः।
लयो महारवो घोरो मृत्युः परममाहिंसः॥

"संभवः" - संभव, उत्पन्न होने वाला, सृजनहार। "भवनः" - भवन, उत्पन्न होने वाला, सृष्टिकर्ता। "सर्वः" - सब, समस्त, सर्वव्यापी। "अव्यक्तः" - अव्यक्त, अप्रकट, अदृश्य। "शर्वरीकरः" - शर्वरीकर, अन्धकार और अव्यक्तता को प्रकट करने वाला। "लयो" - लय, संहार, विलय। "महारवः" - महारव, भयंकर संहार, प्रलय। "घोरो" - घोर, भयानक, भयंकर। "मृत्युः" - मृत्यु, मौत, मरण। "परममाहिंसः" - परम मारक, अत्यंत हिंसा, अत्यंत क्रूरता।

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama)

 

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि सब कुछ उत्पन्न होने वाला है, अव्यक्त है, अधिपति है, अन्धकार और अदृश्यता को प्रकट करने वाला है। प्रलय भयानक है, मृत्यु अत्यंत हिंसा है और परम मारक है।

 
सर्वदृग्व्यासः स्वर्भानुः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः।
नैकः सवासनः सदाशिवोऽद्भुतोऽनुराधृतः॥

"सर्वदृग्व्यासः" - सर्वदृग्व्यास, सबको देखने वाला, सर्वव्यापी। "स्वर्भानुः" - स्वर्भानु, स्वयं चमकने वाला, सूर्य के समान प्रकाशमान। "प्रद्युम्नः" - प्रद्युम्न, ब्रह्मा का एक अवतार, अत्यंत वीरत्ववाला। "अमितविक्रमः" - अमितविक्रम, अत्यंत प्रभावशाली, अद्भुत कर्मों वाला। "नैकः" - नैक, एकमात्र, अद्वितीय। "सवासनः" - सवासन, सब प्राणियों का आश्रय, समस्त आवास धारण करने वाला। "सदाशिवः" - सदाशिव, सदा शुभ, शिव का एक अवतार। "अद्भुतः" - अद्भुत, आश्चर्यजनक, विस्मयकारी। "अनुराधृतः" - अनुराधृत, आराध्य, पूज्य, ध्यानमय।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि सर्वव्यापी हैं, स्वयं प्रकाशित होते हैं, अद्भुत कर्मों के साथ अत्यंत वीर हैं, एकमात्र हैं, सब प्राणियों का आश्रय हैं, सदा शुभ हैं, अद्भुत हैं और पूज्य हैं।

 
सहस्राक्षः सहस्रपात् सहस्रोऽर्चिः सप्तजिह्वः।
सप्तैधाः सप्तवाहनः सप्तांगोऽपराजितः॥

"सहस्राक्षः" - सहस्राक्ष, हजार नेत्र वाला, अनेक नेत्रों वाला। "सहस्रपात्" - सहस्रपात, हजार आरोही, अनेक पादों वाला। "सहस्रोऽर्चिः" - सहस्रोऽर्चि, हजारों आभार, अनेक प्रकाशमान वाला। "सप्तजिह्वः" - सप्तजिह्व, सात जिह्वा वाला, बहुत स्वादिष्ट वाला। "सप्तैधाः" - सप्तैध, सात विधाओं वाला, बहुत प्रकारों वाला। "सप्तवाहनः" - सप्तवाहन, सात वाहनों वाला, अनेक वाहनों वाला। "सप्तांगोऽपराजितः" - सप्तांग, सात अंगों वाला, अनिर्जेय, अजेय।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि वह हजार नेत्र वाला है, हजारों आरोही है, हजारों आभारों वाला है, सात जिह्वा वाला है, सात विधाओं वाला है, सात वाहनों वाला है और सात अंगों वाला है, जिसे कोई नहीं हरा सकता।

 
अहस्तानुर्बरः सिंहो व्याघ्रः चिन्मय आत्मनः।
वायुरनिल महाभागो रथः स्त्रीगणेश्वरः॥

"अहस्तानुर्बरः" - अहस्तानुर्बर, हाथों वाला, नाभि से उत्पन्न होने वाला। "सिंहो व्याघ्रः" - सिंह और व्याघ्र, सिंह और बाघ, अत्यंत शक्तिशाली और वज्रदंडी। "चिन्मय आत्मनः" - चिन्मय आत्मा, चेतन स्वरूप, आत्मज्ञान से परिपूर्ण। "वायुरनिल महाभागो" - वायु और अनिल, हवा और पवन, महान धनी। "रथः स्त्रीगणेश्वरः" - रथ और स्त्रीगणेश्वर, गणेश के आराध्य रथ, सभी स्त्रियों का संरक्षक।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि वह हाथों वाला है, सिंह और व्याघ्र है, चेतन स्वरूप है, वायु और अनिल है, रथ है और सभी स्त्रियों का संरक्षक है।

 
धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दामयिता दमः।
अपराजितः सर्वसहः नियन्ता नियमोऽयमः॥

"धनुर्धरो" - धनुर्धर, धनुष धारी, धनुर्विद्या के प्रमुख। "धनुर्वेदो" - धनुर्वेद, धनुष विद्या, युद्ध कला। "दण्डो" - दण्ड, शस्त्र, सज्जा, दंडन यंत्र। "दामयिता" - दामन करने वाला, संयम रखने वाला। "दमः" - दम, संयम, सामरिक शक्ति। "अपराजितः" - अपराजित, अजेय, अविजेत, हार न करने वाला। "सर्वसहः" - सर्वसामर्थ्यशाली, सबको सहने वाला। "नियन्ता" - नियंत्रक, आधिकारिक, नियमक। "नियमोऽयमः" - नियम, विधि, नियमित, व्यवस्थित।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि वह धनुष धारी है, धनुष विद्या का ज्ञाता है, शस्त्रों को नियंत्रित करने वाला है, संयम रखने वाला है, सामरिक शक्ति है, अजेय है, सभी को सहने वाला है, नियमक है और व्यवस्थित है।

 
वेदवेद्यो विदेकात्मा ज्योतिषां पतिरेकभुग्।
वातात्मा वातवाहनः सहिष्णुर्वादनः सविता॥


"वेदवेद्यो" - वेदों का ज्ञाता, वेदों द्वारा प्राप्त किया जा सकने वाला। "विदेकात्मा" - विद्या का स्वरूप, अद्वैत आत्मा, विद्या में एकीकृत। "ज्योतिषां पतिरेकभुग्" - ज्योतिषों का स्वामी, ज्योतिषीय विज्ञान के प्रभु, ज्योतिषों का भोगता। "वातात्मा" - वायु का स्वरूप, प्राणियों का आत्मा। "वातवाहनः" - वायु को धारण करने वाला, वायुवाहन धारक। "सहिष्णुः" - सहनशील, धैर्यशील, सहनशक्ति रखने वाला। "वादनः" - वाद, संवाद, वदन धारण करने वाला। "सविता" - सवितृ, सूर्य, जीवनकर्ता, प्रकाशक।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि वह वेदों का ज्ञाता है, एकीकृत विद्या का स्वरूप है, ज्योतिषों का स्वामी है, वायु का स्वरूप है, वायुवाहन धारक है, सहनशील है, वादन करने वाला है और सवितृ के समान है।

 
सूर्यो वह्निर्ज्योतिर्व्यापी सर्वदिग्गजगम्भीरः।
विन्ध्यविहारी रविलोचनः सुसंस्कृतमनोहरः॥


"सूर्यो" - सूर्य, अग्नि। "वह्निः" - अग्नि, ज्योति। "ज्योतिः" - प्रकाश, ज्योति। "व्यापी" - व्याप्त, सर्वव्यापी। "सर्वदिग्गजगम्भीरः" - सभी दिशाओं में व्याप्त, गम्भीर, महत्त्वपूर्ण। "विन्ध्यविहारी" - विन्ध्य पर्वत में विहार करने वाला, विन्ध्याचल निवासी। "रविलोचनः" - सूर्य के द्वारा देखा जाने वाला, सूर्य की आंखों वाला। "सुसंस्कृतमनोहरः" - सुशोभित, सुसंस्कृत आत्मा को मोहित करने वाला।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि सूर्य वह्नि के समान है, सर्वव्यापी है, सभी दिशाओं में महत्त्वपूर्ण है, विन्ध्य पर्वत में विहार करने वाला है, सूर्य द्वारा देखा जाने वाला है और सुसंस्कृत आत्मा को मोहित करने वाला है।

 
एको नैकः सवः काव्यो लोकत्रयाश्रयोऽन्धकृत्।
आत्मा योगश्च योगविदां नेता प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः॥

 

 एको" - एक ही, अद्वितीय। "नैकः" - अनेक, बहुत सारे। "सवः" - सम्पूर्ण, सभी। "काव्यः" - कविता, काव्य। "लोकत्रयाश्रयः" - तीनों लोकों का आश्रय, समर्थन करने वाला। "अन्धकृत्" - अंधकार को दूर करने वाला, ज्ञान का प्रकाश प्रदान करने वाला। "आत्मा" - आत्मा, स्वयंज्योति। "योगः" - योग, समाधि, एकाग्रता। "योगविदां" - योगज्ञों का, योग को जानने वालों का। "नेता" - नेतृत्व करने वाला, मार्गदर्शक। "प्रद्युम्नः" - प्रद्युम्न, एक अद्वितीय नाम। "अमितविक्रमः" - अद्वितीय वीरता वाला, असाधारण बलशाली।

इस श्लोक में वर्णित किया गया है कि आत्मा एक ही है, अनेकता में सम्पूर्ण है, काव्य सभी लोकों का समर्थन करता है, ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है, योग को जानने वालों का मार्गदर्शक है, प्रद्युम्न नामक अद्वितीय व्यक्ति है और वह असाधारण बलशाली है।


व्यक्ताव्यक्तः सनातानः प्रभवः प्रभुरीश्वरः।
स्वयंभूः शम्भुः शम्भुवैश्वानरो भावनः॥


"व्यक्ताव्यक्तः" - प्रकट और अप्रकट, द्रष्टव्य और अदृश्य। "सनातानः" - अनादि, सर्वकालिक। "प्रभवः" - उत्पन्न होनेवाला, उद्भव करने वाला। "प्रभुः" - सर्वाधिपति, सर्वशक्तिमान। "ईश्वरः" - सर्वेश्वर, ईश्वरता वाला। "स्वयंभूः" - स्वयं उत्पन्न, स्वयं उत्पादित होने वाला। "शम्भुः" - शिव, आदिशिव। "शम्भुवैश्वानरः" - शम्भु और वैश्वानर, अर्थात् शिव और अग्नि। "भावनः" - सर्वभावों का धारक, सम्पूर्णतः व्याप्त होने वाला।

इस श्लोक में व्यक्तिगत और अव्यक्त, सनातन, प्रभव, प्रभु, ईश्वर, स्वयंभू, शम्भु, वैश्वानर और भावना आदि गुणों का वर्णन किया गया है।
 

प्रपञ्चनिलयोऽन्तःस्थो प्रणवो विराटात्मकः।
सहस्रांशुः सव्यशच्छीलीं नियमो योगविग्रहः॥


प्रपञ्चनिलयोऽन्तःस्थो" - सम्पूर्ण जगत का आधार और निवासस्थान होने वाला। "प्रणवो विराटात्मकः" - ओंकार (प्रणव) सर्वव्यापक और विश्वरूप आत्मा होने वाला। "सहस्रांशुः" - हजारों प्रकाशमान सूर्यों के समान तेजस्वी। "सव्यशच्छीलीं" - सभी दिशाओं में प्रवृत्ति करने वाला। "नियमो योगविग्रहः" - संयम और योग के अच्छे नियम का पालन करने वाला और उनका स्वरूप धारण करने वाला।

इस श्लोक में ईश्वर के समस्त गुणों का वर्णन किया गया है। ईश्वर जगत का आधार है, सभी दिशाओं में प्रवृत्ति करता है, तेजस्वी है और संयम और योग के नियम का पालन करता है।

 
वेदान्तो वेदविद्वांसो यज्ञः यज्ञपतिः प्रभुः।
यज्ञगूह्यमनादिस्थो यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः॥


वेदान्तो वेदविद्वांसो" - वेदांत का अध्ययन करने वाले वेदज्ञ लोग। "यज्ञः यज्ञपतिः प्रभुः" - यज्ञ स्वरूप परमेश्वर भगवान। "यज्ञगूह्यमनादिस्थो" - यज्ञ को गोपन करने वाला, अनादि स्थिति में होने वाला। "यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः" - यज्ञ के अंग होने वाला और यज्ञ को वाहन माने जाने वाला।

इस श्लोक में यज्ञ के महत्व का वर्णन किया गया है। यज्ञ को वेदांत का अध्ययन करने वाले विद्वान लोग जानते हैं। यज्ञ विभिन्न प्रकारों में प्रदर्शित होता है और वह परमेश्वर भगवान का स्वरूप है। यज्ञ अनादि स्थिति में गोपनीय होता है और यज्ञ को आदि से ही बनाए रखने वाला है। यज्ञ यज्ञ के अंग है और यज्ञ को वाहन माना जाता है, अर्थात् यज्ञ के द्वारा ही संपूर्ण विश्व का सम्पादन किया जाता है।


यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः।
यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यं अन्नं अन्नाद एव च॥


"यज्ञभृत् यज्ञकृत् यज्ञी यज्ञभुक् यज्ञसाधनः" - यज्ञ को धारण करने वाला, यज्ञ का कर्ता, यज्ञ का भोक्ता, यज्ञ के उपकरण और यज्ञ का साधन होने वाला। "यज्ञान्तकृत् यज्ञगुह्यं" - यज्ञ को पूरा करने वाला और यज्ञ के गोपनीय रहस्यों को जानने वाला। "अन्नं अन्नाद एव च" - अन्न और अन्न के दाता ही हैं।

इस श्लोक में यज्ञ की भूमिका और महत्व वर्णित किया गया है। यज्ञ को धारण करने वाला, कर्ता, भोक्ता, उपकरण और साधन होता है। यज्ञ को पूरा करने वाला उसके गोपनीय रहस्यों को जानता है। यह श्लोक अन्न (भोज्य पदार्थ) के महत्व को भी स्पष्ट करता


अतिथिरदितिः सुतः पिता सर्वस्य सर्वस्य अपि।
जातो विद्याधरो विद्याध्यक्षः सत्यान्तकृत्सत्यसङ्कल्पः॥


अतिथिरदितिः सुतः पिता सर्वस्य सर्वस्य अपि" - सूर्य अतिथि (अतिथि देवता) का पुत्र, पिता हैं, वह सबका पिता हैं। "जातो विद्याधरो विद्याध्यक्षः सत्यान्तकृत्सत्यसङ्कल्पः" - वह विद्याधरों (देवी-देवताओं) के जाति का हैं, वह विद्याओं का निर्माता हैं, सत्य को सच्चा करने वाला हैं, और सत्य के संकल्प (आशय) रखने वाला हैं।

इस श्लोक में सूर्य की महिमा और उसके सम्बंधित गुणों का वर्णन किया गया है। सूर्य अतिथि (अतिथि देवता) का पुत्र हैं, सबका पिता हैं। वह विद्याओं के निर्माता हैं, सत्य को सच्चा करने वाला हैं और सत्य के संकल्प रखने वाला हैं।


सत्यसत्यपराक्रमो निमिषोऽनिमिषः स्रग्विभुः।
विभुर्विश्वः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः॥


"सत्यसत्यपराक्रमो निमिषोऽनिमिषः स्रग्विभुः" - वह सत्यता के पराक्रम में अद्वितीय हैं, वह एक निमिष के भीतर हजारों निमिष हैं, वह सर्वव्यापी हैं। "विभुर्विश्वः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः" - वह सबका संपूर्ण समर्थन हैं, वह विश्व को आश्रय देता हैं, वह शरण हैं, वह संसार के पालन करने वाले हैं, वह प्रजा का उत्पत्तिकर्ता हैं।

इस श्लोक में सूर्य की महिमा और उसके सम्बंधित गुणों का वर्णन किया गया है। सूर्य सत्यता के पराक्रम में अद्वितीय हैं, वह अद्वितीय क्षणों के भीतर हजारों क्षण हैं और सभी जगत को व्याप्त करते हैं। वह सबका संपूर्ण समर्थन हैं, वह विश्व का आश्रय हैं, वह शरण हैं, वह संसार के पालन करने वाले हैं और प्रजा के उत्पत्तिकर्ता हैं।


अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः।
अजः सर्वो देवानां अमृतः शर्वरीकरः॥


अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः" - सूर्य, संवत्सर, व्याल (नाग या साँप), प्रत्यय (शक्ति) और सर्वदर्शन (सभी दिशाओं का दर्शन करने वाला) हैं। "अजः सर्वो देवानां अमृतः शर्वरीकरः" - वह अजन्मा हैं, सभी देवताओं का संपूर्ण समर्थन हैं, अमृत (अविनाशी) हैं और शर्वरीकर (शर्वरी विधाता) हैं।

इस श्लोक में सूर्य की विभिन्न गुणों का वर्णन किया गया है। सूर्य दिन हैं, संवत्सर हैं, व्याल या सर्प हैं, प्रत्यय हैं (शक्ति) और सभी दिशाओं का दर्शन करने वाले हैं। वह अजन्मा हैं, सभी देवताओं का समर्थन करने वाले हैं, अमृत हैं (अविनाशी) और शर्वरी को सँभालने वाले हैं।


प्रत्ययः सर्वदर्शी च विश्वयोनिरनन्तः शिवः।
अमृतप्रशस्तः प्रशान्तो निष्कलः कलयाणः कलः॥


"प्रत्ययः सर्वदर्शी च विश्वयोनिरनन्तः शिवः" - प्रत्यय (शक्ति) सभी को देखने वाला हैं और विश्व का उत्पन्न करने वाला हैं, अनंत हैं और शिव हैं। "अमृतप्रशस्तः प्रशान्तो निष्कलः कलयाणः कलः" - वह अमृत से प्रशंसित हैं, प्रशान्त हैं, निर्मल हैं, सबके हित का विचार करने वाला हैं, और काल (समय) हैं।

इस श्लोक में भगवान शिव के विभिन्न गुणों का वर्णन किया गया है। वह प्रत्यय हैं (शक्ति), सभी को देखने वाले हैं, विश्व की उत्पत्ति करने वाले हैं, अनंत हैं और वह शिव हैं। वह अमृत से प्रशंसित हैं, प्रशान्त हैं, निर्मल हैं, सबके हित का विचार करने वाले हैं और काल (समय) हैं।


ब्रह्मा ब्रह्मण्यो ब्रह्मविद्ब्रह्मज्ञो ब्रह्मणाधिपः।
ब्रह्मण्यः ब्राह्मणो ब्रह्मज्ञानग्राह्यः सुमेधसः॥


रह्मा ब्रह्मण्यो ब्रह्मविद्ब्रह्मज्ञो ब्रह्मणाधिपः" - ब्रह्मा वह हैं जो ब्रह्मण का होने वाला हैं, ब्रह्मज्ञानी हैं, ब्रह्म को जानने वाले हैं और ब्रह्मांड के आधिपत्य करने वाले हैं। "ब्रह्मण्यः ब्राह्मणो ब्रह्मज्ञानग्राह्यः सुमेधसः" - वह ब्रह्मण के होने वाला हैं, ब्राह्मण हैं, ब्रह्मज्ञान को ग्रहण करने योग्य हैं, सुमेधा हैं।

यह श्लोक ब्रह्मा के गुणों का वर्णन करता है। वह ब्रह्मण का होने वाला हैं, ब्रह्मज्ञानी हैं, ब्रह्म को जानने वाले हैं और ब्रह्मांड के आधिपत्य करने वाले हैं। वह ब्रह्मण के होने वाला हैं, ब्राह्मण हैं, ब्रह्मज्ञान को ग्रहण करने योग्य हैं, सुमेधा हैं।


अमोघः शान्तः शिवस्तारः सर्वकर्ता सर्वसामर्थ्यवान्।
महादेवः कृतयुगः स्वर्गपवर्गप्रदायकः॥

अमोघः शान्तः शिवस्तारः सर्वकर्ता सर्वसामर्थ्यवान्" - वह अव्यक्त हैं, शान्त हैं, शिव स्वरूपी हैं, सबके कर्ता हैं, सर्वशक्तिमान् हैं। "महादेवः कृतयुगः स्वर्गपवर्गप्रदायकः" - वह महादेव हैं, कृतयुग का स्थापक हैं, स्वर्ग और मोक्ष को प्रदान करने वाले हैं।

यह श्लोक महादेव के गुणों का वर्णन करता है। वह अमोघ हैं, शांत हैं, शिव स्वरूपी हैं, सबके कर्ता हैं, सर्वशक्तिमान हैं। वह महादेव हैं, कृतयुग का स्थापक हैं, स्वर्ग और मोक्ष को प्रदान करने वाले हैं।


श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रं पूर्णं।



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