शनि चालीसा भगवान शनि की महिमा और कृपा को गाती है। यह एक प्राचीन धार्मिक पाठ है जो भगवान शनि के आशीर्वाद को प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन भक्तों द्वारा पढ़ा जाता है। इस चालीसा का पाठ करने से शनि देवता अपनी कड़ी शनि साढ़ेसाती और धनु राशि के दोषों से मुक्ति प्रदान करते हैं।
सिद्ध शनि चालीसा(Siddha Shani Chalisa)-१
॥ दोहा ॥
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।
दीनन के दुःख दूरि करि, कीजै नाथ निहाल॥
जय-जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।
करहु कृपा हे रवि-तनय, राखहु जन कौ लाज॥
अर्थ - हे गणेश, गिरिजा सुन्दर सुत, अनुग्रहकारी मंगलमय, दीननाथ, दुःखों का नाश करने वाले, हे नाथ, आपको नमस्कार है। हे जय-जयकारी श्री शनिदेव प्रभु, महाराज, आपसे विनय है। हे सूर्यपुत्र, कृपा कीजिए और आप हम जनों की लाज रक्षित कीजिए।
॥ चोपाई॥
जयति-जयति शनिदेव दयाला। करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥
चारि भुजा तन श्याम बिराजे। माथे रतन मुकुट छबि छाजे ॥
परम विशाल मनोहर भाला।टेदी . दृष्टि भृकुटि विकराला ॥
कुण्डल कर्ण . चमाचम॒ चमके। हिये भाल मुक्तन मणि दमके ॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा। पल विच करै अरिहिं संहारा॥
पिगल कृष्णां छाया-नन्दन। यम कोणस्थ रौद्र दुःख भंजन ॥
सौरि मन्न शनि दस नामा। भानु पुत्र पूजहिं सब कामा।।
जापर प्रभु प्रसन होई जाहीं। रकहुं रा करे क्षण माहीं
पर्वतहु तृण होई निहारत। तृणहू को पर्वत करि डारत॥
राज मिलन बन रामहि दीन्हा। कैकई कौ मति हरि लीन्हा॥
नहं मे मृग कपट दिखाई। मातु जानकौ गई चुराई॥
लषणहि शक्ति विकल करि डारा। मचि गई दल में हाहाकारा॥
रावण की गति-मति बौराई।रामचन्द्र सों बैर बढाई॥
दियो कौट करि कंचन लंका।बीज बजरंग वीर कौ डंका॥
नृप विक्रम पर जब पगु धारा। चित्र मयूर निगल गै हारा॥
हार नौलखा लग्यो चोरी। हाथ-पैर कटवायो तं ही॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलिहुं घर कोल्टू चलवायौ ॥
विनय राग दीपक महं कौन्हो। तब प्रसन प्रभु है सुख दीन्हो ॥
हरिश्चन्द्र हुं नृप नारि बिकानी। आपहुं भरे डोम घर पानी॥
वैसे नल पर दशा सिरानी। भूजी मीन कूद गई पानी॥
श्री शंकरहि गह्यो जब जाई। पार्वती को सती कराई॥
तनि बिलोकत ही करि रीसा। नभ उडि गयो गौरी सुत सीसा॥
पाडंव पर हैँ दशा तुम्हारी। बची द्रोपदी होति उधारी॥
कौरव की भी गति-मति मारी। युद्ध महाभारत करि डारी॥
रवि कह मुख मंह धरि तत्काला। लेकर कूदि परयो-पताला॥
शेष देव॒ लीख विनती . लाई। रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ।।
वाहन प्रभु के सात सुजाना। गज दिग्गज गदर्भं मृग स्वाना॥
जम्बुक सिंह आदि नखधारी। सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं। हय ते सुख सम्पति उपजावें ॥
गदर्भं॒हानि करै बहु काजा। सिंह सिद्धकर राज समाजा॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट करि ड। मृग दे कष्ट प्राण संहारै॥
जन आवहिं प्रभु स्वान सवारी। चोरी आदि होय डर भारी॥
तेसहिं चारि चरण यह नामा। स्वर्णं लोह चांदी अरू ताम्बा॥
लोह चरण पर जब प्रभु आदै। धन सम्पति नष्ट करावेैं॥
समता ताप्र रजत सुभकारी। स्वर्ण सर्वं॒सुख मंगलकारी ॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहु न दशा निकृष्ट सतावै ॥
अद्भुत नाथ दिखावै लीला। कर शत्रु के नशि बल ढीला।
जो पंडित सुयोग्य बुलवाई। विधिवत शनि ग्रह शान्ति कराई ॥
पीपल जल शनि दिवस चटढावत। दीप दान दै बहु सुख पावत॥
॥ दोहा ॥
प्रतिमा श्री शनिदेव. कौ, लोह धातु -बनवाय।
परेम सहित पूजन करै, सकल कष्ट कटि जाय॥
चालीसा नित नेम यह, कहहिं सुनहि धरि ध्यान ।
निश्चय शनि ग्रह॒ सुखद बने, पावहि नर॒ सम्मान ॥
सिद्ध शनि चालीसा -२ (Siddha Shani Chalisa)
विपदा संकट, कष्ट और दारुण दुःख भरपूर।
साढ़े साती का समय, बड़ा विकट और क्रूर।।
ईश भजन औ सदुपाय हरये क्लेश क्रूर।।
शनि कृपा, सदभाव से रहे, दुःख सब दूर।।
।। दोहा ।।
सुख मूरि गुरु चरण-रज, सुखद अलौकिक धूल।
मन के पाप विकार को, नासै तुरत समूल।।
दुःख दाता शनिदेव की, कहूं चालीसा सिद्ध।
शनि कृपा से दूर हों, ताप कष्ट अरु शूल।।
दुःख घने मैं बुद्धि मन्द, शनि सुख-दुख के हेतु।
सर्व सिद्धि, सफलता दो, हरो कष्ट भव-सेतु।
जग दारुण दुःख बेलड़ी, मैं एक हाय! असहाय।
विपद-सेना विपुल बड़ी, तुम बिना कौन सहाय।।
नाश करो मेरै विघृो का । कृपा सहारा दु:खी जनों का।
जप नाम सुमिरण नहीं कीन्हा । तभी हुआ बल बुद्धि हीना ।।
विपद क्लेश कष्ट के लेखे । रवि सुत सब तव रिस के देखे ।।
क्रूर तनिक बभु की दृष्टि । तुरत कौं दारुण जप द्रु:ख-बृष्टि
कृष्ण नाम जप "राम कृष्णा' । क्रोणस्थ मन्द हरैं सब तृछणा
पिंगल, सौरि, शनैश्चर, मन्द । रौद्र, यम कृपा जगतानन्द।।
कष्ट क्लेश, विकार घनेरे । विघृ, पाप हरो शनि मेरे।।
विपुल समुद्र दुःख-शत्रु-सेना । कृष्ण सारथि नैया खेना ।।
सुरासुर नर किन्नर विघ्धाधर । पशु, कीट अरु नभचर जलचर।।
राजा रंक व सेठ, भिखारी । देव्याकुलता गति बिगाङ़ी।।
दुःख, दुर्भिक्ष, दुस्सह संतापा । अपयश कहीं, घोर उत्पाता ।।
कहीँ पाप, दुष्टता व्यापी । तुम्हरे बल दुःख पावै पापी।।
सुख सम्पदा साधन नाना । तव कृपा बिन राख समाना।।
मन्द ग्रह दुर्घटना कारक । साढे साती से सुख-संहारक।.
कृपा कीजिए दुःख के दाता । जोरि युगल कर नावऊ माथा।।
हरीश्चन्द्र से ज्ञानी राजा । छीन लिए तुम राज-समाजा।।
डोम चाकरी, टहल कराईं । दारूण विपदा यर विपद चढ़ाई।।
गुरु सम सबकी करो ताड़ना । बहुत दीन हुं, नाथ उबारना।।
तिहुँ लोक के तुम दुःख दाता । कृपा क्रोर से जन सुख पाता।।
जौं, तिल, लोहा, तेल, अन्न, धन । तम उरद, गुड़ प्रिय मन भावन।।
यथा सामथ्य जो दान करे । शनि सुख के सब भण्डार भरे।।
जे जन करैं दुःखी की सेवा । शनि-दया की चखैं नित मेवा।।
बुरे स्वप्न से शनि बचावें । अपशकुन को दूर भगावें।।
दुर्गति मिटे दया से उनकी । हरैं दुष्ट-क्रूरता मन को।।
दुष्ट ग्रहों की पीड़ा भागे । रोग निवारक शक्ति जागे।।
सुखदा, वरदा, अभयदा मन्द । पीर, पाप ध्वंसक रविनन्द।।
दुःख, दावग्नि विदारक मंद । धारण किए धनुष, खंभ, फंद।।
विकटट्टहास से कंपित जग । गीध संवार शनि, सदैव सजग।।
जय-जय-जय करो शनि देव को । विपद विनाशक देव देव को।।
प्रज्जवलित होइए, रक्ष रक्ष । अपमृत्यु नाश मेँ पूर्ण दक्ष।।
काटो रोग भय कृपालु शनि । दुख शमन करो, अब प्राण बनी।।
मृत्यु भय के भगा दीजिए । मेरे पुण्यों को जगा दीजिए।।
रोग शोक को जड़ से काटो । शत्रु को सबल शक्ति से डांटो।।
काम, अधि, लोभ, भयंकरारि । करो उच्चाटन भबन-पुरारि।।
भय के सरि भूत भगादो । सुकर्म पुण्य की शबित्त जगादो।।
जीवन दो, सुख दो, शक्ति दो । शुभ कर्म कृपा कर भक्ति दो।।
बाधा दूर भगा दो सारी । खिले मनोकामना फुलवारी।।
शुद्ध मन दुःखी जन पढे चालीसा । शनि सहाय हों सहित जगदीसा।।
बढ़ै दाम जस पानी बरखा । परखों शनि शनि तुम परखा।।
।। दोहा ।।
चालीस दिन के पाठ से, मन्द देव अनुकूल।
राम कृष्ण कष्ट घटें सूक्ष्म अरु स्थूल।।
दशरथ शूरता स्मरण, मंगलकारी भाव।
शनि मंत्र उच्चारित दुःख विकार निर्मूल।।
सिद्ध शनि चालीसा -३ (Siddha Shani Chalisa)
।। दोहा ।।
श्री शनिश्चर देव जी, सुनहु श्रवण मम टेर।
कोटि विघ्ननाशक प्रभो, करो न मम हित बेर।।
सोरठा-तवस्तुति हे नाथ! जोरि जुगल कर करत हौ I
करिए मोहिं सनाथ, विघ्नहरन हे रविसुवन।।
॥। चौपाई ।।
शनि देव मैं सुमिरौं तोही, विद्या बुद्धि ज्ञान दो मोही।
तुम्हरो नाम अनेक बखानौं, क्षुद्रबुद्धि मैं जो कुछ जानौं।
अन्तक, कोण, रौद्रय मगाऊँ, कृष्ण बभ्रु शनि सबहिं सुनाऊँ।
पिंगल मन्दसौरि सुख दाता, हित अनहित सब जग के ज्ञाता।
नित जपै जो नाम तुम्हारा, करहु व्याधि दुख से निस्तारा।
राशि विषमवस असुरन सुरनर, पन्नग शेष साहित विद्याधर।
राजा रंक रहहिं जो नीको, पशु पक्षी वनचर सबही को।
कानन किला शिविर सेनाकर, नाश करत सब ग्राम्य नगर भर।
डालत विघ्न सबहि के सुख में, व्याकुल होहिं पड़े सब दुख में।
नाथ विनय तुमसे यह मेरी, करिये मोपर दया घनेरी।
मम हित विषयम राशि मंहवासा, करिय न नाथ यही मम आसा।
जो गुड उड़द दे वार शनीचर, तिल जब लोह अन्न धन बिस्तर।
दान दिये से होंय सुखारी, सोइ शनि सुन यह विनय हमारी।
नाथ दया तुम मोपर कीजै, कोटिक विघ्न क्षणिक महं छीजै।
वंदत नाथ जुगल कर जोरी, सुनहुं दया कर विनती मोरी।
कबहुंक तीरथ राज प्रयागा, सरयू तोर सहित अनुरागा।
कबहुं सरस्वती शुद्ध नार महं, या कहु गिरी खोह कंदर महं।
ध्यान धरत हैं जो जोगी जनि, ताहि ध्यान महं सूक्ष्म होहि शनि।
है अगम्य क्या करूं बड़ाई, करत प्रणाम चरण शिर नाई।
जो विदेश में बार शनीचर, मुड कर आवेगा जिन घर पर।
रहैं सुखी शनि देव दुहाई, रक्षा रवि सुत रखैं बनाई।
जो विदेश जावैं शनिवारा, गृह आवैं नहिं सहै दुखाना।
संकट देय शनीचर ताही, जेते दुखी होई मन माही।
सोई रवि नन्दन कर जोरी, वन्दन करत मूढ मति थोरी।
ब्रह्मा जगत बनावन हारा, विष्णु सबहिं नित देत अहारा।
हैं त्रिशूलधारी त्रिपुरारी, विभू देव मूरति एक वारी।
इकहोइ धारण करत शनि नित, वंदत सोई शनि को दमनचित।
जो नर पाठ करै मन चित से, सो नर छूटै व्यथा अमित से।
हौं सुपुत्र धन सन्तति बाढ़े, कलि काल कर जोड़े ठाढ़े।
पशु कुटुम्ब बांधन आदि से, भरो भवन रहिहैं नित सबसे।
नाना भांति भोग सुख सारा, अन्त समय तजकर संसारा।
पावै मुक्ति अमर पद भाई, जो नित शनि सम ध्यान लगाई।
पढ़ै प्रात जो नाम शनि दस, रहै शनीश्चर नित उसके बस।
पीड़ा शनि की कबहुं न होई, नित उठ ध्यान धरै जो कोई।
जो यह पाठ करै चालीसा, होय सुख साखी जगदीशा।
चालिस दिन नित पढ़ै सबेरे, पातक नाशे शनी घनेरे।
रवि नन्दन की अस प्रभुताई, जगत मोहतम नाशै भाई।
याको पाठ करै जो कोई, सुख सम्पत्ति की कमी न होई।
निशिदिन ध्यान धरै मन माही, आधिव्याधि ढिंग आवै नाही।
।। दोहा ।।
पाठ शनिचर देव को, की हों विमल तैयार।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार।।
जो स्तुति दशरथ जी कियो, सम्मुख शनि निहार।
सरस सुभाषा में वही, ललिता लिखें सुधार।