श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र (Shri Lakshmi Sahasranama Stotra) एक प्रमुख हिन्दू धर्मिक पाठ है, जिसे माता लक्ष्मी, धन, और समृद्धि के प्रतीक के रूप में माना जाता है। इस पाठ का महत्व धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अत्यधिक है और इसका पाठ करने से अनेक लाभ प्राप्त हो सकते हैं। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र (Shri Lakshmi Sahasranama Stotra) के महत्व के बारे में बात करेंगे और यह भी जानेंगे कि इस पाठ को कैसे किया जाता है और कैसे इससे अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। आइए, हम इस अद्भुत धार्मिक पाठ के महत्व को समझने का प्रयास करें और इसके गहरे रहस्यों में डूबकर जानने का संकल्प करें।
1.श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र: महत्व और फायदे और लाभ (Shri Lakshmi Sahasranama Stotra: Importance and Benefits)
श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र (Shri Lakshmi Sahasranama Stotra) का महत्व हिन्दू धर्म में अत्यधिक माना जाता है। यह स्तोत्र माता लक्ष्मी, धन, और समृद्धि की देवी को स्तुति और स्मरण के रूप में आराधना करने के रूप में प्रसिद्ध है। यह स्तोत्र हजार नामों से माता लक्ष्मी की महिमा का गुणगान करता है और उनकी कृपा और आशीर्वाद का प्राप्ति साधकों को प्रदान करता है।
श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र के महत्व :Importance of Shri Lakshmi Sahasranama Stotra
इस स्तोत्र के पाठ से माता लक्ष्मी से आपका आपत्तिकाल में सहायता मिलता है और धन और समृद्धि का स्रोत बनता है।
श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से आध्यात्मिक उन्नति होती है और आपका मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी सुधरता है।
श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र के लाभ : Benefits of Shri Lakshmi Sahasranama Stotra
इस स्तोत्र के नियमित पाठ से धन, संपत्ति, और आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है।
इस स्तोत्र का पाठ करने से आपका आध्यात्मिक जीवन मजबूत होता है और आप धार्मिक दृष्टिकोण से समृद्ध होते हैं।
श्री लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए यह स्तोत्र सर्वोत्तम है और विशेष रूप से उनके आशीर्वाद को प्राप्त करने में मदद करता है।
इस प्रकार, श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से हम आर्थिक और आध्यात्मिक सुख-शांति की प्राप्ति कर सकते हैं और माता लक्ष्मी के आशीर्वाद में आनंद ले सकते हैं।
2. सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ कैसे करें How to recite Sahasranama Stotra
श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने के लिए निम्नलिखित विधि का पालन करें:
स्थान और समय का चयन: इस पाठ को करने के लिए एक शांत और पवित्र स्थान का चयन करें। सुबह और शाम में इसे पाठ करना अधिक शुभ होता है।
ध्यान: माता लक्ष्मी को मानसिक रूप से ध्यान में लें, और उनके प्रति श्रद्धा और समर्पण के साथ बैठें.
पंडित: श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने के लिए आप किसी विशिष्ट पंडित को चुन सकते हैं, जो इसका आचरण कर सकते हैं, या खुद भी पाठ कर सकते हैं.
श्रवण: स्तोत्र के पठन में ध्यान से शब्दों को सुनें और समझें.
अभिवादन और संकल्प: पाठ की शुरुआत में माता लक्ष्मी को अभिवादन करें और अपने संकल्प को स्थापित करें कि आप इस पाठ को भक्ति और समर्पण के साथ कर रहे हैं.
पठन: स्तोत्र का पठन अवश्यता के अनुसार करें, धीरे धीरे और स्पष्ट ध्वनि में.
स्मरण: स्तोत्र के पठन के बाद, माता लक्ष्मी को आपके मन में ध्यान में ले और उनके आशीर्वाद की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करें.
समापन: स्तोत्र का पाठ पूरा करने के बाद, माता लक्ष्मी को धन्यवाद दें और आशीर्वाद प्राप्त करने की कामना करें.
श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित: Shree Lakshmi Sahasranama Stotra
॥ श्रीलक्ष्मीसहस्रनामस्तोत्रम् ॥
श्रीस्कन्दपुराणे सनत्कुमारसंहितायाम् ।सनत्कुमारसंहितायाम्
श्रीगणेशाय नमः ।
इस स्तोत्र का श्रीस्कन्दपुराण, सनत्कुमारसंहिता में वर्णित है। इस स्तोत्र का पाठ करने से माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है और धन, समृद्धि, और आर्थिक समृद्धि की प्राप्ति हो सकती है। इसका पाठ करने से आध्यात्मिक उन्नति भी होती है, और यह आपके आत्मा को शांति और सुख प्रदान कर सकता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से आप माता लक्ष्मी की कृपा का भाग्यशाली हो सकते हैं।
हरिः ॐ ।
नाम्नां साष्टसहस्रञ्च ब्रूहि गार्ग्य महामते ।
महालक्ष्म्या महादेव्या भुक्तिमुक्त्यर्थसिद्धये ॥ १॥
इस श्लोक में गार्ग्य मुनि ने सनत्कुमार से पूछा, "हे महामुनि! महालक्ष्मी और महादेवी के नामों के साथ इन नामों की 6,000 संख्या बताएं, ताकि हम भक्ति, मुक्ति, और आर्थिक सिद्धि को प्राप्त कर सकें।"
उसके बाद, गार्ग्य मुनि ने सनत्कुमार से द्वादशादित्यसन्निभ नामक द्वादश सहस्र नामों का पठन किया, जो योगिनों की आर्थिक सिद्धि के लिए हैं।
इस श्लोक में कहा गया है कि सभी लोकिक कर्मों से मुक्ति प्राप्ति और सभी जीवों के हित के लिए, हे दयानिधे माता लक्ष्मी! आपके इस सहस्रनाम स्तोत्र का जप किया जाना चाहिए। यह श्लोक यह बताता है कि यह स्तोत्र भक्तों को भुक्ति (आर्थिक सुख) और मुक्ति (आध्यात्मिक मोक्ष) की प्राप्ति में सहायक है।
इस श्लोक में कहा गया है कि हे सनत्कुमार भगवान! आप विशेष रूप से सर्वज्ञ हैं, और आस्तिक्य (धार्मिकता) की प्राप्ति और मनुष्यों के धर्म और आर्थिक साधन के लिए इस स्तोत्र का पाठ किया जाना चाहिए। यह श्लोक बताता है कि यह स्तोत्र आस्तिक्य की प्राप्ति और धर्मिक अर्थ की प्राप्ति में मदद कर सकता है।
यह स्तोत्र, श्रीलक्ष्मी देवी के दिव्य सहस्रनाम का है और इसका विनियोग (उद्देश्य) सर्वेष्टार्थ सिद्धि के लिए है। इसके माध्यम से श्रीमहालक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। यहां दिए गए षडङ्गन्यास, ध्यान आदि विशेषताएं इस स्तोत्र का उच्चारण करने के लिए हैं।
आनन्दकर्दमचिक्लीतेन्दिरासुतादयो महात्मानो महर्षयः अनुष्टुप्छन्दः: इस स्तोत्र का महर्षयों द्वारा आनंद से भरा हुआ है, और इसे अनुष्टुप छन्द (छंद) में रचा गया है।
विष्णुमाया शक्तिः महालक्ष्मीः परादेवता: इस स्तोत्र में श्रीमहालक्ष्मी को विष्णुमाया और उनकी शक्ति कहा गया है, जो परम देवता हैं।
श्रीमहालक्ष्मीप्रसादद्वारा सर्वेष्टार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः: इस स्तोत्र का जप करने से सभी प्रकार के आर्थिक और आध्यात्मिक लाभ की प्राप्ति होती है।
श्रीमित्यादि षडङ्गन्यासः: इसमें 'श्रीम्' इत्यादि षडङ्गन्यास के रूप में श्रीलक्ष्मी के गुणों का ध्यान किया जाता है।
ध्यानम्-ध्यानम्: यहां श्रीलक्ष्मी के ध्यान का वर्णन है, जिसका उद्देश्य ध्यान और ब्रह्मानुष्ठान के माध्यम से देवी की कृपा प्राप्त करना है।
पद्मनाभप्रियां देवीं पद्माक्षीं पद्मवासिनीम् ।
पद्मवक्त्रां पद्महस्तां वन्दे पद्मामहर्निशम् ॥
"पद्मनाभप्रियां देवीं पद्माक्षीं पद्मवासिनीम् । पद्मवक्त्रां पद्महस्तां वन्दे पद्मामहर्निशम् ॥" इस श्लोक का अर्थ है कि यहाँ एक पद्मनाभ (विष्णु) के प्रिय रूप, पद्माक्षी (जिनकी आँखें पद्म के समान हैं), और पद्मवासिनी (जो पद्म पर आसीन हैं) देवी की स्तुति की जा रही है। इस देवी का वर्णन पद्मवक्त्रा (जिनका चेहरा पद्म की भांति है) और पद्महस्ता (जिनके हाथ में पद्म हैं) के साथ किया गया है। श्लोक का समापन "पद्मामहर्निशम्" के साथ होता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इस देवी की स्तुति हमेशा किए जाती है और उसका आदरण करना चाहिए।
पूर्णेन्दुवदनां दिव्यरत्नाभरणभूषिताम् ।
वरदाभयहस्ताढ्यां ध्यायेच्चन्द्रसहोदरीम् ॥
"श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र" के इस श्लोक का अर्थ है कि हमें श्री लक्ष्मी माता की पूजा के लिए ध्यान करना चाहिए, जो पूर्ण चंद्रमा के समान सुंदर हैं और जो दिव्य रत्नों से सजे हुए हैं। उनके हाथ में वरदान (इच्छा पूर्ति) और अभय (भयहीनता) की मूर्ति है, और उनका चेहरा अपूर्ण चंद्रमा की भांति सुंदर है। यह श्लोक श्री लक्ष्मी की महिमा और उनके दिव्य स्वरूप की स्तुति के लिए है, और भक्तों को उनकी पूजा और ध्यान के लिए प्रेरित करता है।
इच्छारूपां भगवतस्सच्चिदानन्दरूपिणीम् ।
सर्वज्ञां सर्वजननीं विष्णुवक्षस्स्थलालयाम् ॥
"श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र" में इस श्लोक का अर्थ है कि जो इच्छारूपी हैं, भगवती हैं, और सच्चिदानन्द स्वरूपिणी हैं। वह सभी ज्ञान में सम्पन्न हैं, सम्पूर्ण जगत की जननी हैं, और विष्णु के वक्षस्स्थल में विराजमान हैं। यह श्लोक श्री लक्ष्मी माता की पूजा और स्तुति के लिए एक उत्कृष्ट भक्ति ग्रंथ में शामिल है और उसके माध्यम से उनके गुणों की महत्वपूर्णता को प्रस्तुत करता है।
दयालुमनिशं ध्यायेत्सुखसिद्धिस्वरूपिणीम् ।
यथोपदेशं जपित्वा, यथाक्रमं देव्यै समर्प्य,समर्प्य
ततश्शाम्भवीमुद्रया लक्ष्मीमनुसन्धाय , नामसहस्रं जपेत् ।
इस श्लोक का अर्थ है कि व्यक्ति को दयालु और सदैव सुखसिद्धि की स्वरूपिणी श्री लक्ष्मी माता का ध्यान करना चाहिए। वह इस देवी की साकार रूप में उपासना करते हुए उसका उपदेश प्राप्त करता है, फिर यथाक्रम से उसे जप करता है, और इसके पश्चात्, देवी को समर्पित करता है। इसके बाद, वह शाम्भवी मुद्रा के साथ श्री लक्ष्मी माता का ध्यान करता है और इस प्रकार, उसे दिन-प्रतिदिन श्री लक्ष्मी के नामसहस्र का जप करना चाहिए। यह अमृतपूर्ण श्लोक श्री लक्ष्मी माता की पूजा और उनके आशीर्वाद की महत्वपूर्णता को सार्थक बनाता है।
हरिः ॐ ॥
नित्यागतानन्तनित्या नन्दिनी जनरञ्जनी ।
नित्यप्रकाशिनी चैव स्वप्रकाशस्वरूपिणी ॥ १॥
इस श्लोक का अर्थ है कि श्री लक्ष्मी माता सदैव आगत रहने वाली हैं, अनंत और नित्य हैं, नित्यानंदनी हैं, जनरंजनी हैं, नित्यप्रकाशिनी हैं, और अपने स्वयं के प्रकाश में स्थित हैं। यह श्लोक उनकी अनन्त, आनंदमय, और स्वयं प्रकाश स्वरूप महिमा को प्रशंसा करता है और भक्तों को उनके स्वरूप में समर्पित होने का प्रेरणा देता है।
महालक्ष्मीर्महाकाली महाकन्या सरस्वती ।
भोगवैभवसन्धात्री भक्तानुग्रहकारिणी ॥ २॥
इस श्लोक का अर्थ है कि श्री महालक्ष्मी, महाकाली, और महाकन्या सरस्वती आपस में समृद्धि और विभूति की संधाना करने वाली हैं। वे भोग और वैभव की प्रदात्री हैं और अपने भक्तों के प्रति अत्यंत कृपाशील हैं। यह श्लोक इन त्रिदेवियों की महत्वपूर्ण गुणों की स्तुति करता है और उनके भक्तों को उनकी कृपा में समर्पित होने का प्रेरणा देता है।
ईशावास्या महामाया महादेवी महेश्वरी ।
हृल्लेखा परमा शक्तिर्मातृकाबीजरूपिणी ॥ ३॥
इस श्लोक का अर्थ है कि महामाया ईशावास्या, महादेवी, महेश्वरी हैं। वह परम शक्ति हैं और मातृका बीजरूपिणी हैं, जो सम्पूर्ण जगत के नाथ माता के रूप में स्थित हैं। इस श्लोक में महामाया को सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, और जगत की उत्पत्ति और संसार के साकार रूप में उपास्य देवी के रूप में परिचित किया गया है।
नित्यानन्दा नित्यबोधा नादिनी जनमोदिनी ।
सत्यप्रत्ययनी चैव स्वप्रकाशात्मरूपिणी ॥ ४॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी, जो नित्यानंदा हैं, नित्यबोधा हैं, नादिनी हैं, जन्मोदिनी हैं। वह सत्यप्रत्ययनी हैं और उनका स्वरूप स्वप्रकाश और आत्मरूप है। इस श्लोक में देवी को नित्य, ज्ञान, आनंद, जनन और सत्य की स्वरूपिणी बताया गया है, जो अपने स्वयं के प्रकाश में स्थित हैं।
त्रिपुरा भैरवी विद्या हंसा वागीश्वरी शिवा ।
वाग्देवी च महारात्रिः कालरात्रिस्त्रिलोचना ॥ ५॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी त्रिपुरा भैरवी, विद्या हंसा, वागीश्वरी, शिवा, वाग्देवी, महारात्रि, कालरात्रि, और त्रिलोचना हैं। इन नामों के माध्यम से, देवी के विभिन्न रूपों और आवतारों की महिमा की स्तुति हो रही है, जो सभी कालों की भगवती हैं। यह श्लोक उनके विभिन्न स्वरूपों की महत्वपूर्णता को प्रमोट करता है और भक्तों को उनकी उपासना में समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।
भद्रकाली कराली च महाकाली तिलोत्तमा ।
काली करालवक्त्रान्ता कामाक्षी कामदा शुभा ॥ ६॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी भद्रकाली, कराली, और महाकाली तिलोत्तमा हैं। वह काली है, करालवक्त्रा है, कामाक्षी है, और कामदा और शुभा भी हैं। इसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों और गुणों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सभी प्रकार के भय, रोग, और कष्टों का नाश करने की शक्ति रखती हैं। यह श्लोक देवी के भक्तों को उनकी महिमा में समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी चण्डिका, चण्डरूपेशा, चामुण्डा, चक्रधारिणी हैं। वह त्रैलोक्यजयिनी हैं, जो सभी तीनों लोकों को जीतने वाली हैं, और त्रैलोक्यविजयोत्तमा हैं, जो सभी लोकों में सर्वोत्तम जय लाने वाली हैं। यह श्लोक देवी के अद्वितीय शक्ति और सर्वशक्तिमान स्वरूप की प्रशंसा करता है और उसके भक्तों को उनकी पूजा और स्तुति के लिए प्रेरित करता है।
सिद्धलक्ष्मीः क्रियालक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीः प्रसादिनी ।
उमा भगवती दुर्गा चान्द्री दाक्षायणी शिवा ॥ ८॥
प्रत्यङ्गिरा धरावेला लोकमाता हरिप्रिया ।
पार्वती परमा देवी ब्रह्मविद्याप्रदायिनी ॥ ९॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी प्रत्यङ्गिरा हैं, धरावेला हैं, लोकमाता हैं, हरिप्रिया हैं। वह पार्वती हैं, परमा देवी हैं, और ब्रह्मविद्या को प्रदान करने वाली हैं। इसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सभी लोकों की माता हैं और सर्वशक्तिमान ब्रह्मविद्या की प्रदात्री हैं। यह श्लोक उनके भक्तों को उनकी महिमा में समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।
अरूपा बहुरूपा च विरूपा विश्वरूपिणी ।
पञ्चभूतात्मिका वाणी पञ्चभूतात्मिका परा ॥ १०॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी अरूपा हैं, बहुरूपा हैं, विरूपा हैं, और विश्वरूपिणी हैं। वह पञ्चभूतात्मिका हैं, जो पाँच महाभूतों की रूप में स्थित हैं, और वाणी पञ्चभूतात्मिका हैं, जो वाणी के माध्यम से पाँच महाभूतों को प्रतिष्ठापित करने में समर्थ हैं। इसमें देवी की अनन्त और सर्वव्यापी शक्तियों की प्रशंसा करता है, जो सृष्टि के एकीकरण में समर्थ हैं और सभी रूपों में स्थित हैं।
काली मा पञ्चिका वाग्मी हविःप्रत्यधिदेवता ।
देवमाता सुरेशाना देवगर्भाऽम्बिका धृतिः ॥ ११॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी काली, पञ्चिका, वाग्मी, हविःप्रत्यधिदेवता हैं। वह देवमाता हैं, सुरेशाना हैं, देवगर्भा हैं, और अम्बिका हैं, जिनकी धृति सभी देवताओं द्वारा प्रस्तुत की जाती है। इसमें देवी की महिमा और सर्वशक्तिमान स्वरूप की स्तुति है, जो समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति, और संहार को नियन्त्रित करने की शक्तिशाली हैं।
सङ्ख्या जातिः क्रियाशक्तिः प्रकृतिर्मोहिनी मही ।
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या विभावरी ॥ १२॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी सङ्ख्या, जाति, क्रियाशक्ति, प्रकृति, मोहिनी, मही हैं। वह यज्ञविद्या हैं, महाविद्या हैं, गुह्यविद्या हैं, और विभावरी हैं। इसमें देवी की अनेक शक्तियों की स्तुति है, जो सृष्टि के सम्पूर्ण प्रक्रिया को नियंत्रित करने में समर्थ हैं और समस्त विद्याओं की सृष्टि करने वाली हैं।
ज्योतिष्मती महामाता सर्वमन्त्रफलप्रदा ।
दारिद्र्यध्वंसिनी देवी हृदयग्रन्थिभेदिनी ॥ १३॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी ज्योतिष्मती हैं, महामाता हैं, सर्वमन्त्रफलप्रदा हैं। वह दारिद्र्यध्वंसिनी हैं, जो दरिद्रता को नष्ट करने वाली हैं, और हृदयग्रन्थिभेदिनी हैं, जो हृदय की ग्रंथियों को खोलने में समर्थ हैं। इसमें देवी की अद्वितीय और सर्वशक्तिमान स्वरूप की प्रशंसा की जा रही है, जो भक्तों को समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं।
सहस्रादित्यसङ्काशा चन्द्रिका चन्द्ररूपिणी ।
गायत्री सोमसम्भूतिस्सावित्री प्रणवात्मिका ॥ १४॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी सहस्रादित्यसङ्काशा हैं, चन्द्रिका हैं, चन्द्ररूपिणी हैं। वह गायत्री हैं, सोमसम्भूति हैं, सावित्री हैं, और प्रणवात्मिका हैं। इसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों और गुणों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सूर्य, चंद्र, गायत्री, सोम, सावित्री, और ओंकार के माध्यम से प्रकट होती हैं। यह श्लोक उनके अद्वितीय और सर्वशक्तिमान स्वरूप की प्रशंसा करता है, जो समस्त ब्रह्माण्ड को प्रेरित करने वाली हैं।
शाङ्करी वैष्णवी ब्राह्मी सर्वदेवनमस्कृता ।
सेव्यदुर्गा कुबेराक्षी करवीरनिवासिनी ॥ १५॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी शाङ्करी हैं, वैष्णवी हैं, ब्राह्मी हैं, सर्वदेवनमस्कृता हैं। वह सेव्य दुर्गा हैं, कुबेराक्षी हैं, करवीरनिवासिनी हैं। इसमें देवी के विभिन्न नामों और स्वरूपों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सभी देवताओं द्वारा पूजित हैं और समस्त लोकों की रक्षा करने में समर्थ हैं।
जया च विजया चैव जयन्ती चाऽपराजिता ।
कुब्जिका कालिका शास्त्री वीणापुस्तकधारिणी ॥ १६॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी जया हैं, विजया हैं, जयन्ती हैं, और अपराजिता हैं। वह कुब्जिका हैं, कालिका हैं, शास्त्री हैं, और वीणा-पुस्तक धारिणी हैं। इसमें देवी के अनेक नामों, गुणों, और रूपों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो समस्त लोकों की जीत में समर्थ हैं और ज्ञान और कला की प्रतीक हैं।
सर्वज्ञशक्तिश्श्रीशक्तिर्ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका ।
इडापिङ्गलिकामध्यमृणालीतन्तुरूपिणी ॥ १७॥
यज्ञेशानी प्रथा दीक्षा दक्षिणा सर्वमोहिनी ।
अष्टाङ्गयोगिनी देवी निर्बीजध्यानगोचरा ॥ १८॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी यज्ञेशानी हैं, प्रथा हैं, दीक्षा हैं, दक्षिणा हैं, और सर्वमोहिनी हैं। वह अष्टाङ्गयोगिनी हैं, जिन्हें निर्बीजध्यान में पहुंचना गोचर है। इसमें देवी की अद्वितीय शक्तियों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो योगीयों को ध्यान और साधना में मार्गदर्शन करती हैं।
सर्वतीर्थस्थिता शुद्धा सर्वपर्वतवासिनी ।
वेदशास्त्रप्रमा देवी षडङ्गादिपदक्रमा ॥ १९॥
इस श्लोक का अर्थ है कि देवी शक्ति सभी तीर्थों में स्थित हैं, वह शुद्ध हैं और सभी पर्वतों में वास करती हैं। वह वेद और शास्त्रों की प्रमाण हैं, और उनके शक्तिशाली स्वरूप को षडङ्गादिपदक्रमा कहा गया है, जिससे उनका पूरा स्वरूप स्पष्ट होता है।
शिवा धात्री शुभानन्दा यज्ञकर्मस्वरूपिणी ।
व्रतिनी मेनका देवी ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी ॥ २०॥
इस श्लोक में देवी लक्ष्मी को विभिन्न स्वरूपों में समर्थ और सर्वशक्तिमान के रूप में स्तुति गई है। "शिवा" के रूप में उन्हें आदिशक्ति का संकेत मिलता है, जो सृष्टि, स्थिति, और संहार की शक्ति का प्रतीक हैं। "धात्री" के रूप में वह धरा माता के सहायिका के रूप में स्तुति जाती है, जो समस्त प्राणियों का पोषण करती है। "शुभानन्दा" नाम उन्हें शुभ आनंद की प्रदाता के रूप में चित्रित करता है, जो भक्तों को आनंद, शांति, और कल्याण प्रदान करती हैं। "यज्ञकर्मस्वरूपिणी" के रूप में वह यज्ञ के स्वरूप में स्तुति जाती है, जिससे उनकी समर्पण भावना और अद्वितीयता प्रकट होती है। "व्रतिनी" के रूप में देवी व्रत और साधना की प्रतिष्ठा का प्रतीक है, जो भक्तों को सच्ची भक्ति की दिशा में प्रेरित करती हैं। "मेनका देवी" के रूप में उन्हें अप्सरा की रानी के रूप में जाना जाता है, जो सौंदर्य और श्रृंगार की प्रतीक हैं, जबकि "ब्रह्माणी" के रूप में वह ब्रह्मा की सहायिका के रूप में स्तुति गई है, जो सृष्टि की रचना में सक्रिय हैं। "ब्रह्मचारिणी" के रूप में उनकी तपस्या और ब्रह्मचर्य व्रत की महत्वपूर्णता प्रमोट की गई है, जो उनके भक्तों को सत्य और आत्मा के प्रति समर्पित रहने के मार्ग पर प्रेरित करती हैं।
एकाक्षरपरा तारा भवबन्धविनाशिनी ।
विश्वम्भरा धराधारा निराधाराऽधिकस्वरा ॥ २१॥
इस श्लोक में, देवी लक्ष्मी को एकाक्षरी तारा कहकर उनकी अद्वितीयता को बताया गया है जो भवबंधन को नष्ट करने वाली हैं। उन्हें विश्व संसार को संभालने वाली, धरा की धारा, और अनन्त स्वरूप कहा गया है, जो सबका सार्थक आधार हैं। देवी लक्ष्मी का यह रूप उनकी अद्वितीय शक्तियों को और भी प्रकट करता है जो सभी भक्तों को संपूर्णता और आनंद में समर्पित करने के लिए हैं।
राका कुहूरमावास्या पूर्णिमाऽनुमतिर्द्युतिः ।
सिनीवाली शिवाऽवश्या वैश्वदेवी पिशङ्गिला ॥ २२॥
इस श्लोक में, देवी लक्ष्मी को विभिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है, जो उनकी अद्वितीयता, सामर्थ्य, और सर्वगुण सम्पन्नता को प्रतिष्ठापित करते हैं। "राका" के रूप में वह रात्रि की संरक्षक हैं, "कुहू" के रूप में सुख और शांति की प्रतीक हैं, "रमावास्या" के रूप में राम की सहधर्मिणी हैं, और "पूर्णिमा" के रूप में पूर्णता की प्रतीक हैं। "अनुमति" के रूप में उन्हें अनुमति और आशीर्वाद की देवी कहा गया है, जबकि "द्युतिः" के रूप में उन्हें प्रकाश की देवी कहा गया है। "सिनीवाली" के रूप में वह वीर और साहसी हैं, "शिवा" के रूप में शिव की सहधर्मिणी, और "वैश्वदेवी" के रूप में समस्त देवताओं की सेवित्री हैं। "पिशङ्गिला" के रूप में उन्हें पिशाचिनी और यक्षिणी की सहधर्मिणी कहा गया है, जो अपने भक्तों को रक्षा करती हैं। इस रूपभेद से दिखता है कि देवी लक्ष्मी सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं और उनकी कृपा अपने भक्तों पर समर्थन और सुरक्षा के रूप में प्रकट होती है।
पिप्पला च विशालाक्षी रक्षोघ्नी वृष्टिकारिणी ।
दुष्टविद्राविणी देवी सर्वोपद्रवनाशिनी ॥ २३॥
इस श्लोक में देवी लक्ष्मी के कई पूर्णिक नामों का सुंदर वर्णन किया गया है। "पिप्पला" के रूप में उन्हें पिप्पला वृक्ष की साकार रूप में बताया गया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि उनकी आशीर्वाद सभी दिशाओं में फैला हुआ है। "विशालाक्षी" के रूप में वह अत्यंत बड़ी आंखों वाली हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि वे समस्त जीवों को ध्यान में रखती हैं। "रक्षोघ्नी" के रूप में वह राक्षसों को नष्ट करने वाली हैं, और "वृष्टिकारिणी" के रूप में वह वर्षा का कारण हैं, जो सभी प्राणियों को जीवन देती है। "दुष्टविद्राविणी" के रूप में उन्हें दुष्टों को भगाने वाली देवी कहा गया है, और "सर्वोपद्रवनाशिनी" के रूप में वह समस्त उपद्रवों का नाश करने वाली हैं। इस रूपभेद से दिखता है कि देवी लक्ष्मी सभी प्राणियों के संपूर्ण कल्याण के लिए समर्पित हैं और उनकी कृपा से सभी दुःखों का नाश होता है।
शारदा शरसन्धाना सर्वशस्त्रस्वरूपिणी ।
युद्धमध्यस्थिता देवी सर्वभूतप्रभञ्जनी ॥ २४॥
इस श्लोक में, देवी लक्ष्मी को उनके विभिन्न स्वरूपों का सुंदर वर्णन किया गया है। "शारदा" के रूप में वह विद्या और ज्ञान की देवी कही जाती है, जो शिक्षा का प्रतीक है। "शरसन्धाना" के रूप में उन्हें धनुर्विद्या की देवी माना जाता है, जो सारे शस्त्रों का संचार करने में समर्थ हैं। "सर्वशस्त्रस्वरूपिणी" के रूप में उन्हें सभी शस्त्रों की साकार रूप में व्याप्त होने वाली देवी माना जाता है। "युद्धमध्यस्थिता" के रूप में वह युद्ध के मध्यस्थिता हैं, जो न्याय की रक्षा करती हैं। "सर्वभूतप्रभञ्जनी" के रूप में उन्हें समस्त भूतों के प्रभंजन करने वाली देवी माना जाता है, जिससे सभी जीवों को सद्गति मिलती है। इस रूपभेद से दिखता है कि देवी लक्ष्मी समस्त जगत के कल्याण के लिए समर्पित हैं और उनकी कृपा से सभी प्राणियों को धार्मिक और सफल जीवन में मदद मिलती है।
अयुद्धा युद्धरूपा च शान्ता शान्तिस्वरूपिणी ।
गङ्गा सरस्वतीवेणीयमुनानर्मदापगा ॥ २५॥
देवी लक्ष्मी को युद्ध रूपी संकट से रक्षा करने वाली, शान्ति की रूप में शान्तिप्रदायिनी, और गङ्गा, सरस्वती, यमुना, नर्मदा सहित समस्त नदियों का परिचयकर्ता कहा गया है।
समुद्रवसनावासा ब्रह्माण्डश्रोणिमेखला ।
पञ्चवक्त्रा दशभुजा शुद्धस्फटिकसन्निभा ॥ २६॥
"जो समुद्रवसना (सागर की चादर) से धारण करने वाली है, जो ब्रह्माण्ड को आभूषित करने वाली है, पाँच मुख और दस बाहों वाली, जो शुद्ध स्फटिक के समान चमकती है॥ २६॥"
रक्ता कृष्णा सिता पीता सर्ववर्णा निरीश्वरी ।
कालिका चक्रिका देवी सत्या तु वटुकास्थिता ॥ २७॥
"रक्ता, कृष्णा, सिता, पीता, और सभी वर्णों की, सर्वशक्तिमान और निरीश्वरी देवी कालिका, चक्रिका, और सत्या, वटुकास्थिता हैं॥ २७॥"
तरुणी वारुणी नारी ज्येष्ठादेवी सुरेश्वरी ।
विश्वम्भराधरा कर्त्री गलार्गलविभञ्जनी ॥ २८॥
"तरुणी वारुणी" में देवी की युवा और ताजगी से भरी स्वरूप की स्तुति है, जो सृष्टि की नवीनता और पुनर्जीवन को प्रतिष्ठित करती है। "नारी ज्येष्ठादेवी" के माध्यम से दिव्य और बुद्ध धीमत्ता से प्राचीन देवी की महिमा जाती है, जे ओ ज्ञान और अनुभव की रानी हैं। "सुरेश्वरी" में उन्हें ईश्वरीय सत्ता की रानी माना गया है, जो विश्व की सृष्टि का समर्थन करती हैं। "विश्वंभराधारा" में देवी को संपूर्ण विश्व की रक्षिका के रूप में देखा जाता है, जो सभी रकारों के विघ्नों को नष्ट करने में सक्षम हैं। "राघलविभंजनी" में देवी को संशय और कठिनाइयो और को दूर करने वाली बात कही गई है, जिससे उनकी शक्ति और महत्वपूर्णता प्रकट होती है।
सन्ध्यारात्रिर्दिवाज्योत्स्त्ना कलाकाष्ठा निमेषिका ।
उर्वी कात्यायनी शुभ्रा संसारार्णवतारिणी ॥ २९॥
संध्या-रात्रि" रूकने वाली, "कला-काष्ठा" में अपनी कलाओं में स्थित थी, और "निमेषिका" में अपनी हथेलियों में बसी हुई। "उर वी" में समग्र स्थान की रक्षिका," और कात्यायनी के रूप में पूज्य," शुभ्रा" में पवित्र और निर्मल, और "संसार-अर्णव-तारिणी" में संसार के समुद्र को तार इन, यानि पार करने वाली हैं। यह श्लोक माँ कात्या अयनी की प्रशंसा करता है और उनके दिव्य स्वरूप की महिमा को गाता है।
कपिला कीलिकाऽशोका मल्लिकानवमल्लिका ।
देविका नन्दिका शान्ता भञ्जिका भयभञ्जिका ॥ ३०॥
"कपिला" में जो श्वेत रंगीन हैं, "कीलिका" में जिनकी शक्ति का अधार है, "अशोका" में जिन्हें कभी दुःख नहीं होता, "मल्लिका-नवमल्लिका" में जिनके अर्पण किए गए मालाएं स्वीकृत होती हैं, "देविका" में जो सभी देवियों की स्वामिनी हैं, "नन्दिका" में जिनका अभिषेक गाय के दूध से किया जाता है, "शान्ता" में जो हमेशा शान्त रहती हैं, "भञ्जिका" में जो सभी भयों को भंग करने वाली हैं, और "भय-भञ्जिका" में जो सभी भयों को नष्ट करने वाली हैं। यह श्लोक देवी की विभिन्न स्वरूपों की महिमा को गुणगान करता है और उनकी शक्तियों की प्रशंसा करता है।
कौशिकी वैदिकी देवी सौरी रूपाधिकाऽतिभा ।
दिग्वस्त्रा नववस्त्रा च कन्यका कमलोद्भवा ॥ ३१॥
"कौशिकी वैदिकी देवी सौरी रूपाधिका, जिनकी दिग्वस्त्रा नववस्त्रा चन्दनी, शुभ सौंदर्य से परिपूर्ण है। सरस्वती का आशीर्वाद, जो सभी कला और ज्ञान के स्रोत के रूप में उजगर होती है।"
श्रीस्सौम्यलक्षणाऽतीतदुर्गा सूत्रप्रबोधिका ।
श्रद्धा मेधा कृतिः प्रज्ञा धारणा कान्तिरेव च ॥ ३२॥
"श्रीस्सौम्यलक्षणा" में जो सौंदर्यपूर्ण लक्षणों से युक्त हैं, "अतीतदुर्गा" में जो भविष्य की कठिनाइयों को पहले ही दूर कर देने वाली हैं, "सूत्रप्रबोधिका" में जो सूत्ररूप से विचार करने की क्षमता रखती है। "श्रद्धा, मेधा, कृतिः, प्रज्ञा, धारणा" और "कान्ति" में जो धार्मिक गुणों से युक्त हैं, और जिनकी कान्ति स्वयं प्रकाशमान है। यह श्लोक श्री लक्ष्मी की उच्च गुणों की महिमा को बयान करता है।
श्रुतिः स्मृतिर्धृतिर्धन्या भूतिरिष्टिर्मनीषिणी ।
विरक्तिर्व्यापिनी माया सर्वमायाप्रभञ्जनी ॥ ३३॥
"श्रुति, स्मृति, धृति, धन्या, भूति, इष्टि, मनीषिणी, विरक्ति, व्यापिनी, माया, सर्वमायाप्रभञ्जनी" में जो सर्व आयुर्वेदिक शास्त्रों की रानी हैं, जो धर्म, नैतिकता, संयम, धन, सुख, बुद्धि, विवेक, अभिवृद्धि, अंतर्यामिता, और विकास की रूप में पूज्य हैं। यह श्लोक भगवान लक्ष्मी की महिमा और उनकी सर्वाधिक शक्तिशाली स्वरूप की प्रशंसा करता है।
माहेन्द्री मन्त्रिणी सिंही चेन्द्रजालस्वरूपिणी ।
अवस्थात्रयनिर्मुक्ता गुणत्रयविवर्जिता ॥ ३४॥
जो स्वयं माहेन्द्री देवता, मंत्रों की स्वामिनी, सिंही, चंद्रमा के जाल के समान रूप में प्रतिष्ठित हैं, जो तीनों अवस्थाओं से मुक्त, और तीनों गुणों से रहित हैं। यह श्लोक माँ दुर्गा की शक्तिशाली और अद्वितीय स्वरूप की प्रशंसा करता है।
ईषणात्रयनिर्मुक्ता सर्वरोगविवर्जिता।
योगिध्यानान्तगम्या च योगध्यानपरायणा॥"
इस श्लोक का अर्थ है:
"ईषणात्रयनिर्मुक्ता, सर्वरोगविवर्जिता, योगिध्यानान्तगम्या, च योगध्यानपरायणा" में जो स्वयं ईश्वरी, तीनों लोकों से मुक्त, सभी रोगों से रहित, योगीश्वरी हैं, जिनका ध्यान और ध्यान से ही समाप्त हो सकता है, और जो योग और ध्यान में प्रवृत्त हैं। यह श्लोक माँ लक्ष्मी की महिमा और उनकी अनुग्रहशील स्वरूप की प्रशंसा करता है।
"त्रयीशिखा विशेषज्ञा वेदान्तज्ञानरूपिणी।
भारती कमला भाषा पद्मा पद्मवती कृतिः॥ ३६॥"
इस श्लोक का अर्थ है:
"त्रयीशिखा, विशेषज्ञा, वेदान्तज्ञानरूपिणी, भारती, कमला, भाषा, पद्मा, पद्मवती, कृतिः" में जो तीनों वेदों की शिखा, विशेषज्ञा, वेदान्त ज्ञान के स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं, जो भारती, कमला, पद्मा, पद्मवती, और कृति के रूप में पूज्य हैं। यह श्लोक माँ लक्ष्मी की महिमा और उनकी उच्च विद्याओं की प्रशंसा करता है।
"गौतमी गोमती गौरी ईशाना हंसवाहनी।
नारायणी प्रभाधारा जाह्नवी शङ्करात्मजा॥ ३७॥"
इस श्लोक का अर्थ है:
"गौतमी, गोमती, गौरी, ईशाना, हंसवाहनी, नारायणी, प्रभाधारा, जाह्नवी, शङ्करात्मजा" में जो गौतम ऋषि की पत्नी, गंगा नदी, पार्वती, ईशानी, हंस वाहन वाली, भगवान विष्णु की पत्नी, प्रभावती, यमुना नदी, और शंकर भगवान की पुत्री हैं। यह श्लोक माँ लक्ष्मी की विभिन्न नामों और स्वरूपों की प्रशंसा करता है।
चित्रघण्टा सुनन्दा श्रीर्मानवी मनुसम्भवा।
स्तम्भिनी क्षोभिणी मारी भ्रामिणी शत्रुमारिणी॥ ३८॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"चित्रघण्टा, सुनन्दा, श्रीर्मानवी, मनुसम्भवा, स्तम्भिनी, क्षोभिणी, मारी, भ्रामिणी, शत्रुमारिणी" में जो रंगीन घंटा लपटाने वाली, सुखदायिनी, श्री के स्वरूप में प्रकट होने वाली, मानव जन्म लेने वाली, स्तम्भन करने वाली, असुरों को क्षोभित करने वाली, मारने वाली, भ्रमण करने वाली, और शत्रुओं को मारने वाली हैं। यह श्लोक माँ लक्ष्मी की अनेक रूपों की प्रशंसा करता है।
मोहिनी द्वेषिणी वीरा अघोरा रुद्ररूपिणी।
रुद्रैकादशिनी पुण्या कल्याणी लाभकारिणी॥ ३९॥"
इस श्लोक का अर्थ है:
"मोहिनी, द्वेषिणी, वीरा, अघोरा, रुद्ररूपिणी, रुद्रैकादशिनी, पुण्या, कल्याणी, लाभकारिणी" में जो मोहनी रूप से विशेषज्ञ, शत्रु का द्वेष करने वाली, वीर स्वरूप, अघोरा रूप में भयंकर, रुद्र के स्वरूप में प्रतिष्ठित, रुद्र द्वारा अनुग्रहित, पुण्यशाली, कल्याणकारिणी, और लाभकारिणी हैं। यह श्लोक श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र में देवी लक्ष्मी की महिमा का वर्णन करता है।
"देवदुर्गा महादुर्गा स्वप्नदुर्गाऽष्टभैरवी।
सूर्यचन्द्राग्निरूपा च ग्रहनक्षत्ररूपिणी॥ ४०॥"
इस श्लोक का अर्थ है:
"देवदुर्गा, महादुर्गा, स्वप्नदुर्गा, अष्टभैरवी, सूर्य-चंद्र-अग्नि-रूपा च, ग्रह-नक्षत्र-रूपिणी" में जो देवी दुर्गा के रूप में पूज्य हैं, जो सभी दुर्गाओं की रानी, स्वप्न में प्रकट होने वाली, अष्टभैरवों की स्वामिनी, सूर्य, चंद्र, और अग्नि के स्वरूप में हैं, और ग्रह और नक्षत्रों के स्वरूप में प्रकट होने वाली हैं। यह श्लोक माँ दुर्गा की विभिन्न स्वरूपों और शक्तियों की प्रशंसा करता है।
बिन्दुनादकलातीता बिन्दुनादकलात्मिका।
दशवायुजयाकारा कलाषोडशसंयुता॥ ४१॥"
"बिन्दुनादकलातीता, बिन्दुनादकलात्मिका, दशवायुजयाकारा, कलाषोडशसंयुता" में जो बिन्दु और नाद से परे है, बिन्दु और नाद के स्वरूप में प्रतिष्ठित है, दस वायुओं की जयकार के समान आकार की है, और बारह कलाओं से युक्त है। यह श्लोक माँ दुर्गा की अतीत और आत्मिका स्वरूप की प्रशंसा करता है।
काश्यपी कमलादेवी नादचक्रनिवासिनी।
मृडाधारा स्थिरा गुह्या देविका चक्ररूपिणी॥ ४२॥"
इस श्लोक का अर्थ है:
"काश्यपी, कमलादेवी, नादचक्रनिवासिनी, मृडाधारा, स्थिरा, गुह्या, देविका, चक्ररूपिणी" में जो काश्यप ऋषि की पत्नी, कमला के स्वामिनी, नादचक्र के आधार पर विराजमान, मृडा की आधारशिला, स्थिर और दृढ़, गुह्या और अपरिच्छिन्न, देविका और चक्ररूप में प्रतिष्ठित हैं।
अविद्या शार्वरी भुञ्जा जम्भासुरनिबर्हिणी ।
श्रीकाया श्रीकला शुभ्रा कर्मनिर्मूलकारिणी ॥ ४३॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"अविद्या (अज्ञान) को नष्ट करने वाली, जम्भासुर को भक्षण करने वाली, श्रीकाया, श्रीकला और शुभ्रा (भगवती के रूपों के नाम) हैं और वह कर्मों को मूल से उत्पन्न करने वाली हैं॥ ४३॥"
आदिलक्ष्मीर्गुणाधारा पञ्चब्रह्मात्मिका परा ।
श्रुतिर्ब्रह्ममुखावासा सर्वसम्पत्तिरूपिणी ॥ ४४॥.
मृतसञ्जीविनी मैत्री कामिनी कामवर्जिता ।
निर्वाणमार्गदा देवी हंसिनी काशिका क्षमा ॥ ४५॥
इस श्लोक का अर्थ है:
"जो मृत्युकों से जीवन देने वाली, मैत्री और कामिनी में सम्बद्ध, कामनाओं से रहित, निर्वाणमार्ग की प्रदाता, हंसने वाली, काशी में वास करने वाली, और क्षमा करने वाली देवी हैं।"
सपर्या गुणिनी भिन्ना निर्गुणा खण्डिताशुभा ।
स्वामिनी वेदिनी शक्या शाम्बरी चक्रधारिणी ॥ ४६॥
उस (देवी का) सर्वत्र गुणमयी, सभी से अलग, निर्गुण, भिन्न-भिन्न रूपों में विभाती हुई और सभी प्रकार से शुभमयी है। वह स्वयं वेदों की धारिणी है, उसे जानना संभव नहीं है, और वह शक्तिशाली शाम्बरी रूप में चक्रधारिणी है।
दण्डिनी मुण्डिनी व्याघ्री शिखिनी सोमसंहतिः ।
चिन्तामणिश्चिदानन्दा पञ्चबाणाग्रबोधिनी ॥ ४७॥
इस श्लोक का अर्थ है:
वह देवी, जो दण्ड (कठिनाई) में रहने वाली, मुण्ड (बालों की झड़ी) में शोभा प्रदान करने वाली, व्याघ्री (बाघ की भावना से युक्त) और शिखिनी (शिखा धारण करने वाली) है, वह सोमरूप में संगठित है। चिन्तामणि की भावना और चिदानन्द (चैतन्य और आनंद) स्वरूपी हैं, और वह पाँच बाणों को सीधा मारने वाली है।
बाणश्रेणिस्सहस्राक्षी सहस्रभुजपादुका ।
सन्ध्यावलिस्त्रिसन्ध्याख्या ब्रह्माण्डमणिभूषणा ॥ ४८॥
वह देवी, जिनके पास सहस्र बाणों की श्रृंगारी हैं, वह सहस्र भुजाओं वाली और पादुका (पैरों के नीचे रखने वाली) हैं। उनका नाम सन्ध्यावलि है, और वह तीन सन्ध्याओं के नाम से जानी जाती है। वह ब्रह्माण्ड को आभूषित करने वाली है।
वासवी वारुणीसेना कुलिका मन्त्ररञ्जनी ।
जितप्राणस्वरूपा च कान्ता काम्यवरप्रदा ॥ ४९॥
वह देवी, जिनकी सेना वासव (इंद्र) और वारुण (वायु) से संगठित है, वह कुलिका नामक और मन्त्रों से रंजन करने वाली है। वह प्राणों को जीतने वाली स्वरूपा है और वह जीवनसाथी है, कामना के अर्थों को पूर्ण करने वाली है।
मन्त्रब्राह्मणविद्यार्था नादरूपा हविष्मती ।
आथर्वणी श्रुतिशून्या कल्पनावर्जिता सती ॥ ५०॥
इस श्लोक का अर्थ है:
वह देवी, जो मन्त्र, ब्राह्मण, विद्या, अर्थ, नाद रूप, हविष्मती (यज्ञ के रूप में तेजस्वी) है। वह आथर्वणी (एक वेद) को श्रुतिशून्य (श्रुति से रहित) और कल्पना से मुक्त, अर्थात सत्य स्वरूपी है।
सत्ताजातिः प्रमाऽमेयाऽप्रमितिः प्राणदा गतिः।
अवर्णा पञ्चवर्णा च सर्वदा भुवनेश्वरी॥ ५१॥"
इस श्लोक का अर्थ है:
वह देवी, जो सत्ता के रूप में उत्पन्न होने वाली है, अद्वितीय, अमित, अप्रमेय, प्राण को देने वाली, जीवों की गति, अवर्णा (जो वर्णों से रहित है), पंचवर्णा (पाँच प्रमुख वर्णों की समृद्धि) और सदा ही भुवनेश्वरी है।
त्रैलोक्यमोहिनी विद्या सर्वभर्त्री क्षराऽक्षरा ।
हिरण्यवर्णा हरिणी सर्वोपद्रवनाशिनी ॥ ५२॥
कैवल्यपदवीरेखा सूर्यमण्डलसंस्थिता ।
सोममण्डलमध्यस्था वह्निमण्डलसंस्थिता ॥ ५३॥
वायुमण्डलमध्यस्था व्योममण्डलसंस्थिता।
चक्रिका चक्रमध्यस्था चक्रमार्गप्रवर्तिनी॥ ५४॥
कोकिलाकुलचक्रेशा पक्षतिः पंक्तिपावनी।
सर्वसिद्धान्तमार्गस्था षड्वर्णावरवर्जिता॥ ५५॥
शररुद्रहरा हन्त्री सर्वसंहारकारिणी।
पुरुषा पौरुषी तुष्टिस्सर्वतन्त्रप्रसूतिका॥ ५६॥
अर्धनारीश्वरी देवी सर्वविद्याप्रदायिनी।
भार्गवी याजुषीविद्या सर्वोपनिषदास्थिता॥ ५७॥
व्योमकेशाखिलप्राणा पञ्चकोशविलक्षणा।
पञ्चकोशात्मिका प्रत्यक्पञ्चब्रह्मात्मिका शिवा॥ ५८॥
जगज्जराजनित्री च पञ्चकर्मप्रसूतिका।
वाग्देव्याभरणाकारा सर्वकाम्यस्थितस्थितिः॥ ५९॥
अष्टादशचतुष्षष्ठिपीठिका विद्यया युता।
कालिकाकर्षणश्यामा यक्षिणी किन्नरेश्वरी॥ ६०॥
केतकी मल्लिकाशोका वाराही धरणी ध्रुवा।
नारसिंही महोग्रास्या भक्तानामार्तिनाशिनी॥ ६१॥
अन्तर्बला स्थिरा लक्ष्मीर्जरामरणनाशिनी।
श्रीरञ्जिता महाकाया सोमसूर्याग्निलोचना॥ ६२॥
अदितिर्देवमाता च अष्टपुत्राऽष्टयोगिनी।
अष्टप्रकृतिरष्टाष्टविभ्राजद्विकृताकृतिः॥ ६३॥
दुर्भिक्षध्वंसिनी देवी सीता सत्या च रुक्मिणी।
ख्यातिजा भार्गवी देवी देवयोनिस्तपस्विनी॥ ६४॥
सर्वलक्ष्मीस्सदानन्दा सारविद्या सदाशिवा । सर्वज्ञा सर्वशक्तिश्च खेचरीरूपगोच्छ्रिता ॥ ८७॥
इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी सदा आनंदमयी हैं, सर्वविद्या हैं, सदाशिवा हैं, सर्वज्ञा हैं, सर्वशक्तिमान हैं, और वे खेचरी मुद्रा में रूपगोच्छ्रिता हैं।
अणिमादिगुणोपेता परा काष्ठा परा गतिः । हंसयुक्तविमानस्था हंसारूढा शशिप्रभा ॥ ८८॥
इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी अणिमा आदि गुणों से संपन्न हैं, परा काष्ठा हैं, परा गति हैं, हंस युक्त विमान में स्थित हैं, हंसारूढ़ा हैं और उनकी प्रकाश सशशीप्रभा है।
भवानी वासनाशक्तिराकृतिस्थाखिलाऽखिला । तन्त्रहेतुर्विचित्राङ्गी व्योमगङ्गाविनोदिनी ॥ ८९॥
इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी भवानी हैं, वासना शक्तिरूपिणी हैं, आकृति में स्थित हैं, अखिल विश्व में सम्पूर्ण रूपों की धारिणी हैं, तन्त्रहेतु हैं, विचित्राङ्गी हैं, और व्योमगङ्गा का आनंद लेने वाली हैं।
वर्षा च वार्षिका चैव ऋग्यजुस्सामरूपिणी । महानदीनदीपुण्याऽगण्यपुण्यगुणक्रिया ॥ ९०॥
इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी वर्षा और वार्षिका हैं, ऋग्यजुस्सामरूपिणी हैं, महानदीओं के समृद्धि का कारण हैं, और अगण्य पुण्यगुणों की क्रिया करती हैं।
"गम्भीरा गहना गुह्या योनिलिङ्गार्धधारिणी।
शेषवासुकिसंसेव्या चषाला वरवर्णिनी॥ ९५॥"
"कारुण्याकारसम्पत्तिः कीलकृन्मन्त्रकीलिका।
शक्तिबीजात्मिका सर्वमन्त्रेष्टाक्षयकामना॥ ९६॥"
"आग्नेयी पार्थिवा आप्या वायव्या व्योमकेतना।
सत्यज्ञानात्मिकाऽऽनन्दा ब्राह्मी ब्रह्म सनातनी॥ ९७॥"
"अविद्यावासना मायाप्रकृतिस्सर्वमोहिनी।
शक्तिर्धारणशक्तिश्च चिदचिच्छक्तियोगिनी॥ ९८॥"
"वक्त्रारुणा महामाया मरीचिर्मदमर्दिनी।
विराड् स्वाहा स्वधा शुद्धा नीरूपास्तिस्सुभक्तिगा॥ ९९॥"
निरूपिताद्वयीविद्या नित्यानित्यस्वरूपिणी ।
वैराजमार्गसञ्चारा सर्वसत्पथदर्शिनी ॥ १००॥
यह श्लोक बताता है कि देवी लक्ष्मी द्वैत रहित विद्या हैं, जो सदा अनित्य-नित्य के स्वरूप में हैं। वे वैराज मार्ग के प्रवासी हैं, सभी सत्य के मार्ग का दर्शन कराती हैं।
"जालन्धरी मृडानी च भवानी भवभञ्जनी।
त्रैकालिकज्ञानतन्तुस्त्रिकालज्ञानदायिनी॥ १०१॥"
इस श्लोक में कहा गया है कि देवी लक्ष्मी जालंधर मारने वाली हैं, भवानी हैं, भव तोड़ने वाली हैं। वे त्रैकालिक ज्ञान की प्राप्ति कराने वाली हैं, त्रिकाल ज्ञान की प्रदान करने वाली हैं।