Lakshmi Sahasranama Stotra :श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित


श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र (Shri Lakshmi Sahasranama Stotra) एक प्रमुख हिन्दू धर्मिक पाठ है, जिसे माता लक्ष्मी, धन, और समृद्धि के प्रतीक के रूप में माना जाता है। इस पाठ का महत्व धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अत्यधिक है और इसका पाठ करने से अनेक लाभ प्राप्त हो सकते हैं। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र (Shri Lakshmi Sahasranama Stotra) के महत्व के बारे में बात करेंगे और यह भी जानेंगे कि इस पाठ को कैसे किया जाता है और कैसे इससे अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। आइए, हम इस अद्भुत धार्मिक पाठ के महत्व को समझने का प्रयास करें और इसके गहरे रहस्यों में डूबकर जानने का संकल्प करें।

 

 

Lakshmi Sahasranama Stotra

1.श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र: महत्व और फायदे और लाभ  (Shri Lakshmi Sahasranama Stotra: Importance and Benefits)


श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र (Shri Lakshmi Sahasranama Stotra) का महत्व हिन्दू धर्म में अत्यधिक माना जाता है। यह स्तोत्र माता लक्ष्मी, धन, और समृद्धि की देवी को स्तुति और स्मरण के रूप में आराधना करने के रूप में प्रसिद्ध है। यह स्तोत्र हजार नामों से माता लक्ष्मी की महिमा का गुणगान करता है और उनकी कृपा और आशीर्वाद का प्राप्ति साधकों को प्रदान करता है।


श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र के महत्व :Importance of Shri Lakshmi Sahasranama Stotra

इस स्तोत्र के पाठ से माता लक्ष्मी से आपका आपत्तिकाल में सहायता मिलता है और धन और समृद्धि का स्रोत बनता है।

श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से आध्यात्मिक उन्नति होती है और आपका मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी सुधरता है।

श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र के लाभ : Benefits of Shri Lakshmi Sahasranama Stotra

इस स्तोत्र के नियमित पाठ से धन, संपत्ति, और आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है।

इस स्तोत्र का पाठ करने से आपका आध्यात्मिक जीवन मजबूत होता है और आप धार्मिक दृष्टिकोण से समृद्ध होते हैं।

श्री लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए यह स्तोत्र सर्वोत्तम है और विशेष रूप से उनके आशीर्वाद को प्राप्त करने में मदद करता है।

इस प्रकार, श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से हम आर्थिक और आध्यात्मिक सुख-शांति की प्राप्ति कर सकते हैं और माता लक्ष्मी के आशीर्वाद में आनंद ले सकते हैं।

2. सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ कैसे करें How to recite Sahasranama Stotra

श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने के लिए निम्नलिखित विधि का पालन करें:

स्थान और समय का चयन: इस पाठ को करने के लिए एक शांत और पवित्र स्थान का चयन करें। सुबह और शाम में इसे पाठ करना अधिक शुभ होता है।

ध्यान: माता लक्ष्मी को मानसिक रूप से ध्यान में लें, और उनके प्रति श्रद्धा और समर्पण के साथ बैठें.

पंडित: श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने के लिए आप किसी विशिष्ट पंडित को चुन सकते हैं, जो इसका आचरण कर सकते हैं, या खुद भी पाठ कर सकते हैं.

श्रवण: स्तोत्र के पठन में ध्यान से शब्दों को सुनें और समझें.

अभिवादन और संकल्प: पाठ की शुरुआत में माता लक्ष्मी को अभिवादन करें और अपने संकल्प को स्थापित करें कि आप इस पाठ को भक्ति और समर्पण के साथ कर रहे हैं.

पठन: स्तोत्र का पठन अवश्यता के अनुसार करें, धीरे धीरे और स्पष्ट ध्वनि में.

स्मरण: स्तोत्र के पठन के बाद, माता लक्ष्मी को आपके मन में ध्यान में ले और उनके आशीर्वाद की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करें.

समापन: स्तोत्र का पाठ पूरा करने के बाद, माता लक्ष्मी को धन्यवाद दें और आशीर्वाद प्राप्त करने की कामना करें.

श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र अर्थ सहित: Shree Lakshmi Sahasranama Stotra

॥ श्रीलक्ष्मीसहस्रनामस्तोत्रम् ॥

श्रीस्कन्दपुराणे सनत्कुमारसंहितायाम् ।सनत्कुमारसंहितायाम्

श्रीगणेशाय नमः ।

इस स्तोत्र का श्रीस्कन्दपुराण, सनत्कुमारसंहिता में वर्णित है। इस स्तोत्र का पाठ करने से माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है और धन, समृद्धि, और आर्थिक समृद्धि की प्राप्ति हो सकती है। इसका पाठ करने से आध्यात्मिक उन्नति भी होती है, और यह आपके आत्मा को शांति और सुख प्रदान कर सकता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से आप माता लक्ष्मी की कृपा का भाग्यशाली हो सकते हैं।

हरिः ॐ ।

नाम्नां साष्टसहस्रञ्च ब्रूहि गार्ग्य महामते । 
महालक्ष्म्या महादेव्या भुक्तिमुक्त्यर्थसिद्धये ॥ १॥

इस श्लोक में गार्ग्य मुनि ने सनत्कुमार से पूछा, "हे महामुनि! महालक्ष्मी और महादेवी के नामों के साथ इन नामों की 6,000 संख्या बताएं, ताकि हम भक्ति, मुक्ति, और आर्थिक सिद्धि को प्राप्त कर सकें।"

गार्ग्य उवाचसनत्कुमारमासीनं द्वादशादित्यसन्निभम् । 
द्वादशादित्यसन्निभम् अपृच्छन्योगिनो भक्त्या योगिनामर्थसिद्धये ॥ २॥

उसके बाद, गार्ग्य मुनि ने सनत्कुमार से द्वादशादित्यसन्निभ नामक द्वादश सहस्र नामों का पठन किया, जो योगिनों की आर्थिक सिद्धि के लिए हैं।

सर्वलौकिककर्मभ्यो विमुक्तानां हिताय वै । 
भुक्तिमुक्तिप्रदं जप्यमनुब्रूही दयानिधे ॥ ३॥

इस श्लोक में कहा गया है कि सभी लोकिक कर्मों से मुक्ति प्राप्ति और सभी जीवों के हित के लिए, हे दयानिधे माता लक्ष्मी! आपके इस सहस्रनाम स्तोत्र का जप किया जाना चाहिए। यह श्लोक यह बताता है कि यह स्तोत्र भक्तों को भुक्ति (आर्थिक सुख) और मुक्ति (आध्यात्मिक मोक्ष) की प्राप्ति में सहायक है।

सनत्कुमार भगवन्सर्वज्ञोऽसि विशेषतः । 
आस्तिक्यसिद्धये नॄणां क्षिप्रधर्मार्थसाधनम् ४॥

 इस श्लोक में कहा गया है कि हे सनत्कुमार भगवान! आप विशेष रूप से सर्वज्ञ हैं, और आस्तिक्य (धार्मिकता) की प्राप्ति और मनुष्यों के धर्म और आर्थिक साधन के लिए इस स्तोत्र का पाठ किया जाना चाहिए। यह श्लोक बताता है कि यह स्तोत्र आस्तिक्य की प्राप्ति और धर्मिक अर्थ की प्राप्ति में मदद कर सकता है।

खिद्यन्ति मानवास्सर्वे धनाभावेन केवलम् ।
 सिद्ध्यन्ति धनिनोऽन्यस्य नैव धर्मार्थकामनाः ॥ ५॥
 
 इस श्लोक में कहा गया है कि सभी मानव धन की अभावना से परेशान हो जाते हैं, केवल आर्थिक संपदा की अभाव से। धनियों के लिए धर्म, अर्थ, और काम की आर्थिक इच्छाएं कभी संतुष्ट नहीं होती।
 
दारिद्र्यध्वंसिनी नाम केन विद्या प्रकीर्तिता ।
केन वा ब्रह्मविद्याऽपि केन मृत्युविनाशिनी ॥ ६॥
 
अर्थ: यह विद्या, जिससे दरिद्रता का नाश होता है, किस तरह से प्रकट हुई? और ब्रह्मविद्या भी, जिससे मृत्यु का नाश होता है, किससे शिक्षित हुई?
 
सर्वासां सारभूतैका विद्यानां केन कीर्तिता । 
प्रत्यक्षसिद्धिदा ब्रह्मन् तामाचक्ष्व ब्रह्मन् दयानिधे ॥ ७॥
 
अर्थ: सभी विद्याओं का सार, उनका एक रूप, किससे प्रसिद्ध हुआ? वह विद्या, जो प्रत्यक्ष सिद्धिदाता है, वह ब्रह्म के द्वारा हमें बताइए, हे दयानिधे ब्रह्मा!
 
सनत्कुमार उवाचसाधु पृष्टं महाभागास्सर्वलोकहितैषिणः । 
महतामेष धर्मश्च नान्येषामिति मे मतिः ॥ ८॥
 
अर्थ: सनत्कुमार बोले, "सर्वलोक के हित के लिए सवाल किया गया है, और इस धर्म का महत्व बड़ा है। मेरा मत है कि इसके अतिरिक्त और कोई धर्म नहीं है।

ब्रह्मविष्णुमहादेवमहेन्द्रादिमहात्मभिः ।
सम्प्रोक्तं कथयाम्यद्यलक्ष्मीनामसहस्रकम् ९॥
 
इस श्लोक का अर्थ है:

"ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, महेन्द्र, और अन्य महात्मा देवताओं द्वारा पूजित जिन्होंने आज सम्प्रोक्त किया है, उसी में लक्ष्मी के हजार नामों का वर्णन करता हूं।"

यस्योच्चारणमात्रेण दारिद्र्यान्मुच्यते नरः । 
किं पुनस्तज्जपाज्जापी सर्वेष्टार्थानवाप्नुयात् १०॥

जिस व्यक्ति ने इस मन्त्र को सिर्फ उच्चारण किया है, उसे दारिद्र्य से मुक्त होने का अधिकार है। किसे अर्थात्, इस मन्त्र के जप के मात्र से व्यक्ति को सर्व प्रकार की सुख-साधना की प्राप्ति हो सकती है।"
 
अस्य श्रीलक्ष्मीदिव्यसहस्रनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य आनन्दकर्दमचिक्लीतेन्दिरासुतादयो महात्मानो महर्षयः अनुष्टुप्छन्दः ।विष्णुमाया शक्तिः महालक्ष्मीः परादेवता । श्रीमहालक्ष्मीप्रसादद्वारा सर्वेष्टार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । श्रीमित्यादि षडङ्गन्यासः ।ध्यानम्-ध्यानम्

यह स्तोत्र, श्रीलक्ष्मी देवी के दिव्य सहस्रनाम का है और इसका विनियोग (उद्देश्य) सर्वेष्टार्थ सिद्धि के लिए है। इसके माध्यम से श्रीमहालक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। यहां दिए गए षडङ्गन्यास, ध्यान आदि विशेषताएं इस स्तोत्र का उच्चारण करने के लिए हैं।

आनन्दकर्दमचिक्लीतेन्दिरासुतादयो महात्मानो महर्षयः अनुष्टुप्छन्दः: इस स्तोत्र का महर्षयों द्वारा आनंद से भरा हुआ है, और इसे अनुष्टुप छन्द (छंद) में रचा गया है। 

विष्णुमाया शक्तिः महालक्ष्मीः परादेवता: इस स्तोत्र में श्रीमहालक्ष्मी को विष्णुमाया और उनकी शक्ति कहा गया है, जो परम देवता हैं।

श्रीमहालक्ष्मीप्रसादद्वारा सर्वेष्टार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः: इस स्तोत्र का जप करने से सभी प्रकार के आर्थिक और आध्यात्मिक लाभ की प्राप्ति होती है।

श्रीमित्यादि षडङ्गन्यासः: इसमें 'श्रीम्' इत्यादि षडङ्गन्यास के रूप में श्रीलक्ष्मी के गुणों का ध्यान किया जाता है।

ध्यानम्-ध्यानम्: यहां श्रीलक्ष्मी के ध्यान का वर्णन है, जिसका उद्देश्य ध्यान और ब्रह्मानुष्ठान के माध्यम से देवी की कृपा प्राप्त करना है।

पद्मनाभप्रियां देवीं पद्माक्षीं पद्मवासिनीम् ।
पद्मवक्त्रां पद्महस्तां वन्दे पद्मामहर्निशम् ॥

"पद्मनाभप्रियां देवीं पद्माक्षीं पद्मवासिनीम् । पद्मवक्त्रां पद्महस्तां वन्दे पद्मामहर्निशम् ॥" इस श्लोक का अर्थ है कि यहाँ एक पद्मनाभ (विष्णु) के प्रिय रूप, पद्माक्षी (जिनकी आँखें पद्म के समान हैं), और पद्मवासिनी (जो पद्म पर आसीन हैं) देवी की स्तुति की जा रही है। इस देवी का वर्णन पद्मवक्त्रा (जिनका चेहरा पद्म की भांति है) और पद्महस्ता (जिनके हाथ में पद्म हैं) के साथ किया गया है। श्लोक का समापन "पद्मामहर्निशम्" के साथ होता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इस देवी की स्तुति हमेशा किए जाती है और उसका आदरण करना चाहिए।

पूर्णेन्दुवदनां दिव्यरत्नाभरणभूषिताम् ।
वरदाभयहस्ताढ्यां ध्यायेच्चन्द्रसहोदरीम् ॥

"श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र" के इस श्लोक का अर्थ है कि हमें श्री लक्ष्मी माता की पूजा के लिए ध्यान करना चाहिए, जो पूर्ण चंद्रमा के समान सुंदर हैं और जो दिव्य रत्नों से सजे हुए हैं। उनके हाथ में वरदान (इच्छा पूर्ति) और अभय (भयहीनता) की मूर्ति है, और उनका चेहरा अपूर्ण चंद्रमा की भांति सुंदर है। यह श्लोक श्री लक्ष्मी की महिमा और उनके दिव्य स्वरूप की स्तुति के लिए है, और भक्तों को उनकी पूजा और ध्यान के लिए प्रेरित करता है।

इच्छारूपां भगवतस्सच्चिदानन्दरूपिणीम् ।
सर्वज्ञां सर्वजननीं विष्णुवक्षस्स्थलालयाम् ॥

"श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र" में इस श्लोक का अर्थ है कि  जो इच्छारूपी हैं, भगवती हैं, और सच्चिदानन्द स्वरूपिणी हैं। वह सभी ज्ञान में सम्पन्न हैं, सम्पूर्ण जगत की जननी हैं, और विष्णु के वक्षस्स्थल में विराजमान हैं। यह श्लोक श्री लक्ष्मी माता की पूजा और स्तुति के लिए एक उत्कृष्ट भक्ति ग्रंथ में शामिल है और उसके माध्यम से उनके गुणों की महत्वपूर्णता को प्रस्तुत करता है।

दयालुमनिशं ध्यायेत्सुखसिद्धिस्वरूपिणीम् ।
यथोपदेशं जपित्वा, यथाक्रमं देव्यै समर्प्य,समर्प्य
ततश्शाम्भवीमुद्रया लक्ष्मीमनुसन्धाय , नामसहस्रं जपेत् ।

इस श्लोक का अर्थ है कि व्यक्ति को दयालु और सदैव सुखसिद्धि की स्वरूपिणी श्री लक्ष्मी माता का ध्यान करना चाहिए। वह इस देवी की साकार रूप में उपासना करते हुए उसका उपदेश प्राप्त करता है, फिर यथाक्रम से उसे जप करता है, और इसके पश्चात्, देवी को समर्पित करता है। इसके बाद, वह शाम्भवी मुद्रा के साथ श्री लक्ष्मी माता का ध्यान करता है और इस प्रकार, उसे दिन-प्रतिदिन श्री लक्ष्मी के नामसहस्र का जप करना चाहिए। यह अमृतपूर्ण श्लोक श्री लक्ष्मी माता की पूजा और उनके आशीर्वाद की महत्वपूर्णता को सार्थक बनाता है।

हरिः ॐ ॥

नित्यागतानन्तनित्या नन्दिनी जनरञ्जनी ।
नित्यप्रकाशिनी चैव स्वप्रकाशस्वरूपिणी ॥ १॥

इस श्लोक का अर्थ है कि श्री लक्ष्मी माता सदैव आगत रहने वाली हैं, अनंत और नित्य हैं, नित्यानंदनी हैं, जनरंजनी हैं, नित्यप्रकाशिनी हैं, और अपने स्वयं के प्रकाश में स्थित हैं। यह श्लोक उनकी अनन्त, आनंदमय, और स्वयं प्रकाश स्वरूप महिमा को प्रशंसा करता है और भक्तों को उनके स्वरूप में समर्पित होने का प्रेरणा देता है।

महालक्ष्मीर्महाकाली महाकन्या सरस्वती ।
भोगवैभवसन्धात्री भक्तानुग्रहकारिणी ॥ २॥

इस श्लोक का अर्थ है कि श्री महालक्ष्मी, महाकाली, और महाकन्या सरस्वती आपस में समृद्धि और विभूति की संधाना करने वाली हैं। वे भोग और वैभव की प्रदात्री हैं और अपने भक्तों के प्रति अत्यंत कृपाशील हैं। यह श्लोक इन त्रिदेवियों की महत्वपूर्ण गुणों की स्तुति करता है और उनके भक्तों को उनकी कृपा में समर्पित होने का प्रेरणा देता है।

ईशावास्या महामाया महादेवी महेश्वरी ।
हृल्लेखा परमा शक्तिर्मातृकाबीजरूपिणी ॥ ३॥

इस श्लोक का अर्थ है कि महामाया ईशावास्या, महादेवी, महेश्वरी हैं। वह परम शक्ति हैं और मातृका बीजरूपिणी हैं, जो सम्पूर्ण जगत के नाथ माता के रूप में स्थित हैं। इस श्लोक में महामाया को सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, और जगत की उत्पत्ति और संसार के साकार रूप में उपास्य देवी के रूप में परिचित किया गया है।

नित्यानन्दा नित्यबोधा नादिनी जनमोदिनी ।
सत्यप्रत्ययनी चैव स्वप्रकाशात्मरूपिणी ॥ ४॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी, जो नित्यानंदा हैं, नित्यबोधा हैं, नादिनी हैं, जन्मोदिनी हैं। वह सत्यप्रत्ययनी हैं और उनका स्वरूप स्वप्रकाश और आत्मरूप है। इस श्लोक में देवी को नित्य, ज्ञान, आनंद, जनन और सत्य की स्वरूपिणी बताया गया है, जो अपने स्वयं के प्रकाश में स्थित हैं।

त्रिपुरा भैरवी विद्या हंसा वागीश्वरी शिवा ।
वाग्देवी च महारात्रिः कालरात्रिस्त्रिलोचना ॥ ५॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी त्रिपुरा भैरवी, विद्या हंसा, वागीश्वरी, शिवा, वाग्देवी, महारात्रि, कालरात्रि, और त्रिलोचना हैं। इन नामों के माध्यम से, देवी के विभिन्न रूपों और आवतारों की महिमा की स्तुति हो रही है, जो सभी कालों की भगवती हैं। यह श्लोक उनके विभिन्न स्वरूपों की महत्वपूर्णता को प्रमोट करता है और भक्तों को उनकी उपासना में समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।

भद्रकाली कराली च महाकाली तिलोत्तमा ।
काली करालवक्त्रान्ता कामाक्षी कामदा शुभा ॥ ६॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी भद्रकाली, कराली, और महाकाली तिलोत्तमा हैं। वह काली है, करालवक्त्रा है, कामाक्षी है, और कामदा और शुभा भी हैं। इसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों और गुणों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सभी प्रकार के भय, रोग, और कष्टों का नाश करने की शक्ति रखती हैं। यह श्लोक देवी के भक्तों को उनकी महिमा में समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।

चण्डिका चण्डरूपेशा चामुण्डा चक्रधारिणी ।
त्रैलोक्यजयिनी देवी त्रैलोक्यविजयोत्तमा ॥ ७॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी चण्डिका, चण्डरूपेशा, चामुण्डा, चक्रधारिणी हैं। वह त्रैलोक्यजयिनी हैं, जो सभी तीनों लोकों को जीतने वाली हैं, और त्रैलोक्यविजयोत्तमा हैं, जो सभी लोकों में सर्वोत्तम जय लाने वाली हैं। यह श्लोक देवी के अद्वितीय शक्ति और सर्वशक्तिमान स्वरूप की प्रशंसा करता है और उसके भक्तों को उनकी पूजा और स्तुति के लिए प्रेरित करता है।

सिद्धलक्ष्मीः क्रियालक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीः प्रसादिनी ।
उमा भगवती दुर्गा चान्द्री दाक्षायणी शिवा ॥ ८॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी सिद्धलक्ष्मी, क्रियालक्ष्मी, मोक्षलक्ष्मी, और प्रसादिनी हैं। वह उमा, भगवती, दुर्गा, चांद्री, दाक्षायणी, और शिवा भी हैं। इसमें देवी के विभिन्न नामों और स्वरूपों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सभी लक्ष्मीरूपी और महाशक्तिमान हैं। यह श्लोक देवी की सर्वाधिक उच्च और अनंत शक्तियों की प्रशंसा करता है और उनके भक्तों को उनकी उपासना में समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।

प्रत्यङ्गिरा धरावेला लोकमाता हरिप्रिया ।
पार्वती परमा देवी ब्रह्मविद्याप्रदायिनी ॥ ९॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी प्रत्यङ्गिरा हैं, धरावेला हैं, लोकमाता हैं, हरिप्रिया हैं। वह पार्वती हैं, परमा देवी हैं, और ब्रह्मविद्या को प्रदान करने वाली हैं। इसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सभी लोकों की माता हैं और सर्वशक्तिमान ब्रह्मविद्या की प्रदात्री हैं। यह श्लोक उनके भक्तों को उनकी महिमा में समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।

अरूपा बहुरूपा च विरूपा विश्वरूपिणी ।
पञ्चभूतात्मिका वाणी पञ्चभूतात्मिका परा ॥ १०॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी अरूपा हैं, बहुरूपा हैं, विरूपा हैं, और विश्वरूपिणी हैं। वह पञ्चभूतात्मिका हैं, जो पाँच महाभूतों की रूप में स्थित हैं, और वाणी पञ्चभूतात्मिका हैं, जो वाणी के माध्यम से पाँच महाभूतों को प्रतिष्ठापित करने में समर्थ हैं। इसमें देवी की अनन्त और सर्वव्यापी शक्तियों की प्रशंसा करता है, जो सृष्टि के एकीकरण में समर्थ हैं और सभी रूपों में स्थित हैं।

काली मा पञ्चिका वाग्मी हविःप्रत्यधिदेवता ।
देवमाता सुरेशाना देवगर्भाऽम्बिका धृतिः ॥ ११॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी काली, पञ्चिका, वाग्मी, हविःप्रत्यधिदेवता हैं। वह देवमाता हैं, सुरेशाना हैं, देवगर्भा हैं, और अम्बिका हैं, जिनकी धृति सभी देवताओं द्वारा प्रस्तुत की जाती है। इसमें देवी की महिमा और सर्वशक्तिमान स्वरूप की स्तुति है, जो समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति, और संहार को नियन्त्रित करने की शक्तिशाली हैं।

सङ्ख्या जातिः क्रियाशक्तिः प्रकृतिर्मोहिनी मही ।
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या विभावरी ॥ १२॥ 

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी सङ्ख्या, जाति, क्रियाशक्ति, प्रकृति, मोहिनी, मही हैं। वह यज्ञविद्या हैं, महाविद्या हैं, गुह्यविद्या हैं, और विभावरी हैं। इसमें देवी की अनेक शक्तियों की स्तुति है, जो सृष्टि के सम्पूर्ण प्रक्रिया को नियंत्रित करने में समर्थ हैं और समस्त विद्याओं की सृष्टि करने वाली हैं।

ज्योतिष्मती महामाता सर्वमन्त्रफलप्रदा ।
दारिद्र्यध्वंसिनी देवी हृदयग्रन्थिभेदिनी ॥ १३॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी ज्योतिष्मती हैं, महामाता हैं, सर्वमन्त्रफलप्रदा हैं। वह दारिद्र्यध्वंसिनी हैं, जो दरिद्रता को नष्ट करने वाली हैं, और हृदयग्रन्थिभेदिनी हैं, जो हृदय की ग्रंथियों को खोलने में समर्थ हैं। इसमें देवी की अद्वितीय और सर्वशक्तिमान स्वरूप की प्रशंसा की जा रही है, जो भक्तों को समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं।

सहस्रादित्यसङ्काशा चन्द्रिका चन्द्ररूपिणी ।
गायत्री सोमसम्भूतिस्सावित्री प्रणवात्मिका ॥ १४॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी सहस्रादित्यसङ्काशा हैं, चन्द्रिका हैं, चन्द्ररूपिणी हैं। वह गायत्री हैं, सोमसम्भूति हैं, सावित्री हैं, और प्रणवात्मिका हैं। इसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों और गुणों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सूर्य, चंद्र, गायत्री, सोम, सावित्री, और ओंकार के माध्यम से प्रकट होती हैं। यह श्लोक उनके अद्वितीय और सर्वशक्तिमान स्वरूप की प्रशंसा करता है, जो समस्त ब्रह्माण्ड को प्रेरित करने वाली हैं।

शाङ्करी वैष्णवी ब्राह्मी सर्वदेवनमस्कृता ।
सेव्यदुर्गा कुबेराक्षी करवीरनिवासिनी ॥ १५॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी शाङ्करी हैं, वैष्णवी हैं, ब्राह्मी हैं, सर्वदेवनमस्कृता हैं। वह सेव्य दुर्गा हैं, कुबेराक्षी हैं, करवीरनिवासिनी हैं। इसमें देवी के विभिन्न नामों और स्वरूपों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो सभी देवताओं द्वारा पूजित हैं और समस्त लोकों की रक्षा करने में समर्थ हैं।

जया च विजया चैव जयन्ती चाऽपराजिता ।
कुब्जिका कालिका शास्त्री वीणापुस्तकधारिणी ॥ १६॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी जया हैं, विजया हैं, जयन्ती हैं, और अपराजिता हैं। वह कुब्जिका हैं, कालिका हैं, शास्त्री हैं, और वीणा-पुस्तक धारिणी हैं। इसमें देवी के अनेक नामों, गुणों, और रूपों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो समस्त लोकों की जीत में समर्थ हैं और ज्ञान और कला की प्रतीक हैं।

सर्वज्ञशक्तिश्श्रीशक्तिर्ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका ।
इडापिङ्गलिकामध्यमृणालीतन्तुरूपिणी ॥ १७॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी सर्वज्ञशक्ति हैं, श्रीशक्ति हैं, ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका हैं। वह इडा, पिङ्गला, और सुषुम्ना नाड़ीओं को धारण करने वाली हैं, और मूलाधार से सहस्त्रार तक के रूप में स्थित हैं। इसमें देवी की सर्वशक्तिमान स्वरूप, त्रिमूर्तियों की समानता, और नाड़ी सिद्धांत की महत्वपूर्णता की स्तुति है।

यज्ञेशानी प्रथा दीक्षा दक्षिणा सर्वमोहिनी ।
अष्टाङ्गयोगिनी देवी निर्बीजध्यानगोचरा ॥ १८॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी यज्ञेशानी हैं, प्रथा हैं, दीक्षा हैं, दक्षिणा हैं, और सर्वमोहिनी हैं। वह अष्टाङ्गयोगिनी हैं, जिन्हें निर्बीजध्यान में पहुंचना गोचर है। इसमें देवी की अद्वितीय शक्तियों की महत्वपूर्णता की स्तुति है, जो योगीयों को ध्यान और साधना में मार्गदर्शन करती हैं।

सर्वतीर्थस्थिता शुद्धा सर्वपर्वतवासिनी ।
वेदशास्त्रप्रमा देवी षडङ्गादिपदक्रमा ॥ १९॥

इस श्लोक का अर्थ है कि देवी शक्ति सभी तीर्थों में स्थित हैं, वह शुद्ध हैं और सभी पर्वतों में वास करती हैं। वह वेद और शास्त्रों की प्रमाण हैं, और उनके शक्तिशाली स्वरूप को षडङ्गादिपदक्रमा कहा गया है, जिससे उनका पूरा स्वरूप स्पष्ट होता है।


शिवा धात्री शुभानन्दा यज्ञकर्मस्वरूपिणी ।
व्रतिनी मेनका देवी ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी ॥ २०॥

इस श्लोक में देवी लक्ष्मी को विभिन्न स्वरूपों में समर्थ और सर्वशक्तिमान के रूप में स्तुति गई है। "शिवा" के रूप में उन्हें आदिशक्ति का संकेत मिलता है, जो सृष्टि, स्थिति, और संहार की शक्ति का प्रतीक हैं। "धात्री" के रूप में वह धरा माता के सहायिका के रूप में स्तुति जाती है, जो समस्त प्राणियों का पोषण करती है। "शुभानन्दा" नाम उन्हें शुभ आनंद की प्रदाता के रूप में चित्रित करता है, जो भक्तों को आनंद, शांति, और कल्याण प्रदान करती हैं। "यज्ञकर्मस्वरूपिणी" के रूप में वह यज्ञ के स्वरूप में स्तुति जाती है, जिससे उनकी समर्पण भावना और अद्वितीयता प्रकट होती है। "व्रतिनी" के रूप में देवी व्रत और साधना की प्रतिष्ठा का प्रतीक है, जो भक्तों को सच्ची भक्ति की दिशा में प्रेरित करती हैं। "मेनका देवी" के रूप में उन्हें अप्सरा की रानी के रूप में जाना जाता है, जो सौंदर्य और श्रृंगार की प्रतीक हैं, जबकि "ब्रह्माणी" के रूप में वह ब्रह्मा की सहायिका के रूप में स्तुति गई है, जो सृष्टि की रचना में सक्रिय हैं। "ब्रह्मचारिणी" के रूप में उनकी तपस्या और ब्रह्मचर्य व्रत की महत्वपूर्णता प्रमोट की गई है, जो उनके भक्तों को सत्य और आत्मा के प्रति समर्पित रहने के मार्ग पर प्रेरित करती हैं।

एकाक्षरपरा तारा भवबन्धविनाशिनी ।
विश्वम्भरा धराधारा निराधाराऽधिकस्वरा ॥ २१॥

इस श्लोक में, देवी लक्ष्मी को एकाक्षरी तारा कहकर उनकी अद्वितीयता को बताया गया है जो भवबंधन को नष्ट करने वाली हैं। उन्हें विश्व संसार को संभालने वाली, धरा की धारा, और अनन्त स्वरूप कहा गया है, जो सबका सार्थक आधार हैं। देवी लक्ष्मी का यह रूप उनकी अद्वितीय शक्तियों को और भी प्रकट करता है जो सभी भक्तों को संपूर्णता और आनंद में समर्पित करने के लिए हैं।

राका कुहूरमावास्या पूर्णिमाऽनुमतिर्द्युतिः ।
सिनीवाली शिवाऽवश्या वैश्वदेवी पिशङ्गिला ॥ २२॥

इस श्लोक में, देवी लक्ष्मी को विभिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है, जो उनकी अद्वितीयता, सामर्थ्य, और सर्वगुण सम्पन्नता को प्रतिष्ठापित करते हैं। "राका" के रूप में वह रात्रि की संरक्षक हैं, "कुहू" के रूप में सुख और शांति की प्रतीक हैं, "रमावास्या" के रूप में राम की सहधर्मिणी हैं, और "पूर्णिमा" के रूप में पूर्णता की प्रतीक हैं। "अनुमति" के रूप में उन्हें अनुमति और आशीर्वाद की देवी कहा गया है, जबकि "द्युतिः" के रूप में उन्हें प्रकाश की देवी कहा गया है। "सिनीवाली" के रूप में वह वीर और साहसी हैं, "शिवा" के रूप में शिव की सहधर्मिणी, और "वैश्वदेवी" के रूप में समस्त देवताओं की सेवित्री हैं। "पिशङ्गिला" के रूप में उन्हें पिशाचिनी और यक्षिणी की सहधर्मिणी कहा गया है, जो अपने भक्तों को रक्षा करती हैं। इस रूपभेद से दिखता है कि देवी लक्ष्मी सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं और उनकी कृपा अपने भक्तों पर समर्थन और सुरक्षा के रूप में प्रकट होती है।

पिप्पला च विशालाक्षी रक्षोघ्नी वृष्टिकारिणी ।
दुष्टविद्राविणी देवी सर्वोपद्रवनाशिनी ॥ २३॥

इस श्लोक में देवी लक्ष्मी के कई पूर्णिक नामों का सुंदर वर्णन किया गया है। "पिप्पला" के रूप में उन्हें पिप्पला वृक्ष की साकार रूप में बताया गया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि उनकी आशीर्वाद सभी दिशाओं में फैला हुआ है। "विशालाक्षी" के रूप में वह अत्यंत बड़ी आंखों वाली हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि वे समस्त जीवों को ध्यान में रखती हैं। "रक्षोघ्नी" के रूप में वह राक्षसों को नष्ट करने वाली हैं, और "वृष्टिकारिणी" के रूप में वह वर्षा का कारण हैं, जो सभी प्राणियों को जीवन देती है। "दुष्टविद्राविणी" के रूप में उन्हें दुष्टों को भगाने वाली देवी कहा गया है, और "सर्वोपद्रवनाशिनी" के रूप में वह समस्त उपद्रवों का नाश करने वाली हैं। इस रूपभेद से दिखता है कि देवी लक्ष्मी सभी प्राणियों के संपूर्ण कल्याण के लिए समर्पित हैं और उनकी कृपा से सभी दुःखों का नाश होता है।

शारदा शरसन्धाना सर्वशस्त्रस्वरूपिणी ।
युद्धमध्यस्थिता देवी सर्वभूतप्रभञ्जनी ॥ २४॥

इस श्लोक में, देवी लक्ष्मी को उनके विभिन्न स्वरूपों का सुंदर वर्णन किया गया है। "शारदा" के रूप में वह विद्या और ज्ञान की देवी कही जाती है, जो शिक्षा का प्रतीक है। "शरसन्धाना" के रूप में उन्हें धनुर्विद्या की देवी माना जाता है, जो सारे शस्त्रों का संचार करने में समर्थ हैं। "सर्वशस्त्रस्वरूपिणी" के रूप में उन्हें सभी शस्त्रों की साकार रूप में व्याप्त होने वाली देवी माना जाता है। "युद्धमध्यस्थिता" के रूप में वह युद्ध के मध्यस्थिता हैं, जो न्याय की रक्षा करती हैं। "सर्वभूतप्रभञ्जनी" के रूप में उन्हें समस्त भूतों के प्रभंजन करने वाली देवी माना जाता है, जिससे सभी जीवों को सद्गति मिलती है। इस रूपभेद से दिखता है कि देवी लक्ष्मी समस्त जगत के कल्याण के लिए समर्पित हैं और उनकी कृपा से सभी प्राणियों को धार्मिक और सफल जीवन में मदद मिलती है।

अयुद्धा युद्धरूपा च शान्ता शान्तिस्वरूपिणी ।
गङ्गा सरस्वतीवेणीयमुनानर्मदापगा ॥ २५॥

देवी लक्ष्मी को युद्ध रूपी संकट से रक्षा करने वाली, शान्ति की रूप में शान्तिप्रदायिनी, और गङ्गा, सरस्वती, यमुना, नर्मदा सहित समस्त नदियों का परिचयकर्ता कहा गया है।

समुद्रवसनावासा ब्रह्माण्डश्रोणिमेखला ।
पञ्चवक्त्रा दशभुजा शुद्धस्फटिकसन्निभा ॥ २६॥

"जो समुद्रवसना (सागर की चादर) से धारण करने वाली है, जो ब्रह्माण्ड को आभूषित करने वाली है, पाँच मुख और दस बाहों वाली, जो शुद्ध स्फटिक के समान चमकती है॥ २६॥"

रक्ता कृष्णा सिता पीता सर्ववर्णा निरीश्वरी ।
कालिका चक्रिका देवी सत्या तु वटुकास्थिता ॥ २७॥

"रक्ता, कृष्णा, सिता, पीता, और सभी वर्णों की, सर्वशक्तिमान और निरीश्वरी देवी कालिका, चक्रिका, और सत्या, वटुकास्थिता हैं॥ २७॥"

तरुणी वारुणी नारी ज्येष्ठादेवी सुरेश्वरी ।
विश्वम्भराधरा कर्त्री गलार्गलविभञ्जनी ॥ २८॥

"तरुणी वारुणी" में देवी की युवा और ताजगी से भरी स्वरूप की स्तुति है, जो सृष्टि की नवीनता और पुनर्जीवन को प्रतिष्ठित करती है। "नारी ज्येष्ठादेवी" के माध्यम से दिव्य और बुद्ध धीमत्ता से प्राचीन देवी की महिमा जाती है, जे ओ ज्ञान और अनुभव की रानी हैं। "सुरेश्वरी" में उन्हें ईश्वरीय सत्ता की रानी माना गया है, जो विश्व की सृष्टि का समर्थन करती हैं। "विश्वंभराधारा" में देवी को संपूर्ण विश्व की रक्षिका के रूप में देखा जाता है, जो सभी रकारों के विघ्नों को नष्ट करने में सक्षम हैं। "राघलविभंजनी" में देवी को संशय और कठिनाइयो और को दूर करने वाली बात कही गई है, जिससे उनकी शक्ति और महत्वपूर्णता प्रकट होती है।

सन्ध्यारात्रिर्दिवाज्योत्स्त्ना कलाकाष्ठा निमेषिका ।
उर्वी कात्यायनी शुभ्रा संसारार्णवतारिणी ॥ २९॥

संध्या-रात्रि" रूकने वाली, "कला-काष्ठा" में अपनी कलाओं में स्थित थी, और "निमेषिका" में अपनी हथेलियों में बसी हुई। "उर वी" में समग्र स्थान की रक्षिका," और कात्यायनी के रूप में पूज्य," शुभ्रा" में पवित्र और निर्मल, और "संसार-अर्णव-तारिणी" में संसार के समुद्र को तार इन, यानि पार करने वाली हैं। यह श्लोक माँ कात्या अयनी की प्रशंसा करता है और उनके दिव्य स्वरूप की महिमा को गाता है।

कपिला कीलिकाऽशोका मल्लिकानवमल्लिका ।
देविका नन्दिका शान्ता भञ्जिका भयभञ्जिका ॥ ३०॥

"कपिला" में जो श्वेत रंगीन हैं, "कीलिका" में जिनकी शक्ति का अधार है, "अशोका" में जिन्हें कभी दुःख नहीं होता, "मल्लिका-नवमल्लिका" में जिनके अर्पण किए गए मालाएं स्वीकृत होती हैं, "देविका" में जो सभी देवियों की स्वामिनी हैं, "नन्दिका" में जिनका अभिषेक गाय के दूध से किया जाता है, "शान्ता" में जो हमेशा शान्त रहती हैं, "भञ्जिका" में जो सभी भयों को भंग करने वाली हैं, और "भय-भञ्जिका" में जो सभी भयों को नष्ट करने वाली हैं। यह श्लोक देवी की विभिन्न स्वरूपों की महिमा को गुणगान करता है और उनकी शक्तियों की प्रशंसा करता है।

कौशिकी वैदिकी देवी सौरी रूपाधिकाऽतिभा ।
दिग्वस्त्रा नववस्त्रा च कन्यका कमलोद्भवा ॥ ३१॥

"कौशिकी वैदिकी देवी सौरी रूपाधिका, जिनकी दिग्वस्त्रा नववस्त्रा चन्दनी, शुभ सौंदर्य से परिपूर्ण है। सरस्वती का आशीर्वाद, जो सभी कला और ज्ञान के स्रोत के रूप में उजगर होती है।"

श्रीस्सौम्यलक्षणाऽतीतदुर्गा सूत्रप्रबोधिका ।
श्रद्धा मेधा कृतिः प्रज्ञा धारणा कान्तिरेव च ॥ ३२॥


"श्रीस्सौम्यलक्षणा" में जो सौंदर्यपूर्ण लक्षणों से युक्त हैं, "अतीतदुर्गा" में जो भविष्य की कठिनाइयों को पहले ही दूर कर देने वाली हैं, "सूत्रप्रबोधिका" में जो सूत्ररूप से विचार करने की क्षमता रखती है। "श्रद्धा, मेधा, कृतिः, प्रज्ञा, धारणा" और "कान्ति" में जो धार्मिक गुणों से युक्त हैं, और जिनकी कान्ति स्वयं प्रकाशमान है। यह श्लोक श्री लक्ष्मी की उच्च गुणों की महिमा को बयान करता है।

श्रुतिः स्मृतिर्धृतिर्धन्या भूतिरिष्टिर्मनीषिणी ।
विरक्तिर्व्यापिनी माया सर्वमायाप्रभञ्जनी ॥ ३३॥


"श्रुति, स्मृति, धृति, धन्या, भूति, इष्टि, मनीषिणी, विरक्ति, व्यापिनी, माया, सर्वमायाप्रभञ्जनी" में जो सर्व आयुर्वेदिक शास्त्रों की रानी हैं, जो धर्म, नैतिकता, संयम, धन, सुख, बुद्धि, विवेक, अभिवृद्धि, अंतर्यामिता, और विकास की रूप में पूज्य हैं। यह श्लोक भगवान लक्ष्मी की महिमा और उनकी सर्वाधिक शक्तिशाली स्वरूप की प्रशंसा करता है।

माहेन्द्री मन्त्रिणी सिंही चेन्द्रजालस्वरूपिणी ।
अवस्थात्रयनिर्मुक्ता गुणत्रयविवर्जिता ॥ ३४॥

जो स्वयं माहेन्द्री देवता, मंत्रों की स्वामिनी, सिंही, चंद्रमा के जाल के समान रूप में प्रतिष्ठित हैं, जो तीनों अवस्थाओं से मुक्त, और तीनों गुणों से रहित हैं। यह श्लोक माँ दुर्गा की शक्तिशाली और अद्वितीय स्वरूप की प्रशंसा करता है।

ईषणात्रयनिर्मुक्ता सर्वरोगविवर्जिता।
योगिध्यानान्तगम्या च योगध्यानपरायणा॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

"ईषणात्रयनिर्मुक्ता, सर्वरोगविवर्जिता, योगिध्यानान्तगम्या, च योगध्यानपरायणा" में जो स्वयं ईश्वरी, तीनों लोकों से मुक्त, सभी रोगों से रहित, योगीश्वरी हैं, जिनका ध्यान और ध्यान से ही समाप्त हो सकता है, और जो योग और ध्यान में प्रवृत्त हैं। यह श्लोक माँ लक्ष्मी की महिमा और उनकी अनुग्रहशील स्वरूप की प्रशंसा करता है।

"त्रयीशिखा विशेषज्ञा वेदान्तज्ञानरूपिणी।
भारती कमला भाषा पद्मा पद्मवती कृतिः॥ ३६॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

"त्रयीशिखा, विशेषज्ञा, वेदान्तज्ञानरूपिणी, भारती, कमला, भाषा, पद्मा, पद्मवती, कृतिः" में जो तीनों वेदों की शिखा, विशेषज्ञा, वेदान्त ज्ञान के स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं, जो भारती, कमला, पद्मा, पद्मवती, और कृति के रूप में पूज्य हैं। यह श्लोक माँ लक्ष्मी की महिमा और उनकी उच्च विद्याओं की प्रशंसा करता है।


"गौतमी गोमती गौरी ईशाना हंसवाहनी।
नारायणी प्रभाधारा जाह्नवी शङ्करात्मजा॥ ३७॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

"गौतमी, गोमती, गौरी, ईशाना, हंसवाहनी, नारायणी, प्रभाधारा, जाह्नवी, शङ्करात्मजा" में जो गौतम ऋषि की पत्नी, गंगा नदी, पार्वती, ईशानी, हंस वाहन वाली, भगवान विष्णु की पत्नी, प्रभावती, यमुना नदी, और शंकर भगवान की पुत्री हैं। यह श्लोक माँ लक्ष्मी की विभिन्न नामों और स्वरूपों की प्रशंसा करता है।


चित्रघण्टा सुनन्दा श्रीर्मानवी मनुसम्भवा।
स्तम्भिनी क्षोभिणी मारी भ्रामिणी शत्रुमारिणी॥ ३८॥


इस श्लोक का अर्थ है:

"चित्रघण्टा, सुनन्दा, श्रीर्मानवी, मनुसम्भवा, स्तम्भिनी, क्षोभिणी, मारी, भ्रामिणी, शत्रुमारिणी" में जो रंगीन घंटा लपटाने वाली, सुखदायिनी, श्री के स्वरूप में प्रकट होने वाली, मानव जन्म लेने वाली, स्तम्भन करने वाली, असुरों को क्षोभित करने वाली, मारने वाली, भ्रमण करने वाली, और शत्रुओं को मारने वाली हैं। यह श्लोक माँ लक्ष्मी की अनेक रूपों की प्रशंसा करता है।

मोहिनी द्वेषिणी वीरा अघोरा रुद्ररूपिणी।
रुद्रैकादशिनी पुण्या कल्याणी लाभकारिणी॥ ३९॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

"मोहिनी, द्वेषिणी, वीरा, अघोरा, रुद्ररूपिणी, रुद्रैकादशिनी, पुण्या, कल्याणी, लाभकारिणी" में जो मोहनी रूप से विशेषज्ञ, शत्रु का द्वेष करने वाली, वीर स्वरूप, अघोरा रूप में भयंकर, रुद्र के स्वरूप में प्रतिष्ठित, रुद्र द्वारा अनुग्रहित, पुण्यशाली, कल्याणकारिणी, और लाभकारिणी हैं। यह श्लोक श्री लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र में देवी लक्ष्मी की महिमा का वर्णन करता है।

 

"देवदुर्गा महादुर्गा स्वप्नदुर्गाऽष्टभैरवी।
सूर्यचन्द्राग्निरूपा च ग्रहनक्षत्ररूपिणी॥ ४०॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

"देवदुर्गा, महादुर्गा, स्वप्नदुर्गा, अष्टभैरवी, सूर्य-चंद्र-अग्नि-रूपा च, ग्रह-नक्षत्र-रूपिणी" में जो देवी दुर्गा के रूप में पूज्य हैं, जो सभी दुर्गाओं की रानी, स्वप्न में प्रकट होने वाली, अष्टभैरवों की स्वामिनी, सूर्य, चंद्र, और अग्नि के स्वरूप में हैं, और ग्रह और नक्षत्रों के स्वरूप में प्रकट होने वाली हैं। यह श्लोक माँ दुर्गा की विभिन्न स्वरूपों और शक्तियों की प्रशंसा करता है।
 
 

बिन्दुनादकलातीता बिन्दुनादकलात्मिका।
दशवायुजयाकारा कलाषोडशसंयुता॥ ४१॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

"बिन्दुनादकलातीता, बिन्दुनादकलात्मिका, दशवायुजयाकारा, कलाषोडशसंयुता" में जो बिन्दु और नाद से परे है, बिन्दु और नाद के स्वरूप में प्रतिष्ठित है, दस वायुओं की जयकार के समान आकार की है, और बारह कलाओं से युक्त है। यह श्लोक माँ दुर्गा की अतीत और आत्मिका स्वरूप की प्रशंसा करता है।
 

काश्यपी कमलादेवी नादचक्रनिवासिनी।
मृडाधारा स्थिरा गुह्या देविका चक्ररूपिणी॥ ४२॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

"काश्यपी, कमलादेवी, नादचक्रनिवासिनी, मृडाधारा, स्थिरा, गुह्या, देविका, चक्ररूपिणी" में जो काश्यप ऋषि की पत्नी, कमला के स्वामिनी, नादचक्र के आधार पर विराजमान, मृडा की आधारशिला, स्थिर और दृढ़, गुह्या और अपरिच्छिन्न, देविका और चक्ररूप में प्रतिष्ठित हैं।
 

अविद्या शार्वरी भुञ्जा जम्भासुरनिबर्हिणी ।
श्रीकाया श्रीकला शुभ्रा कर्मनिर्मूलकारिणी ॥ ४३॥


इस श्लोक का अर्थ है:
"अविद्या (अज्ञान) को नष्ट करने वाली, जम्भासुर को भक्षण करने वाली, श्रीकाया, श्रीकला और शुभ्रा (भगवती के रूपों के नाम) हैं और वह कर्मों को मूल से उत्पन्न करने वाली हैं॥ ४३॥"
 

आदिलक्ष्मीर्गुणाधारा पञ्चब्रह्मात्मिका परा ।
श्रुतिर्ब्रह्ममुखावासा सर्वसम्पत्तिरूपिणी ॥ ४४॥.

 
"आदिलक्ष्मी, गुणों की धारा, पंचब्रह्मा की आत्मा, परमात्मा की परा। वेदों का आश्रय, ब्रह्मा के मुख से निकली हुई, सभी समृद्धियों की रूपिणी
 

मृतसञ्जीविनी मैत्री कामिनी कामवर्जिता ।
निर्वाणमार्गदा देवी हंसिनी काशिका क्षमा ॥ ४५॥

 
इस श्लोक का अर्थ है:
"जो मृत्युकों से जीवन देने वाली, मैत्री और कामिनी में सम्बद्ध, कामनाओं से रहित, निर्वाणमार्ग की प्रदाता, हंसने वाली, काशी में वास करने वाली, और क्षमा करने वाली देवी हैं।"
 
 

सपर्या गुणिनी भिन्ना निर्गुणा खण्डिताशुभा ।
स्वामिनी वेदिनी शक्या शाम्बरी चक्रधारिणी ॥ ४६॥

 
उस (देवी का) सर्वत्र गुणमयी, सभी से अलग, निर्गुण, भिन्न-भिन्न रूपों में विभाती हुई और सभी प्रकार से शुभमयी है। वह स्वयं वेदों की धारिणी है, उसे जानना संभव नहीं है, और वह शक्तिशाली शाम्बरी रूप में चक्रधारिणी है।
 
 

दण्डिनी मुण्डिनी व्याघ्री शिखिनी सोमसंहतिः ।
चिन्तामणिश्चिदानन्दा पञ्चबाणाग्रबोधिनी ॥ ४७॥ 

 
इस श्लोक का अर्थ है:

वह देवी, जो दण्ड (कठिनाई) में रहने वाली, मुण्ड (बालों की झड़ी) में शोभा प्रदान करने वाली, व्याघ्री (बाघ की भावना से युक्त) और शिखिनी (शिखा धारण करने वाली) है, वह सोमरूप में संगठित है। चिन्तामणि की भावना और चिदानन्द (चैतन्य और आनंद) स्वरूपी हैं, और वह पाँच बाणों को सीधा मारने वाली है।
 

बाणश्रेणिस्सहस्राक्षी सहस्रभुजपादुका ।
सन्ध्यावलिस्त्रिसन्ध्याख्या ब्रह्माण्डमणिभूषणा ॥ ४८॥

 
 इस श्लोक का अर्थ है:

वह देवी, जिनके पास सहस्र बाणों की श्रृंगारी हैं, वह सहस्र भुजाओं वाली और पादुका (पैरों के नीचे रखने वाली) हैं। उनका नाम सन्ध्यावलि है, और वह तीन सन्ध्याओं के नाम से जानी जाती है। वह ब्रह्माण्ड को आभूषित करने वाली है।
 

वासवी वारुणीसेना कुलिका मन्त्ररञ्जनी ।
जितप्राणस्वरूपा च कान्ता काम्यवरप्रदा ॥ ४९॥

 
इस श्लोक का अर्थ है:

वह देवी, जिनकी सेना वासव (इंद्र) और वारुण (वायु) से संगठित है, वह कुलिका नामक और मन्त्रों से रंजन करने वाली है। वह प्राणों को जीतने वाली स्वरूपा है और वह जीवनसाथी है, कामना के अर्थों को पूर्ण करने वाली है।
 
 

मन्त्रब्राह्मणविद्यार्था नादरूपा हविष्मती ।
आथर्वणी श्रुतिशून्या कल्पनावर्जिता सती ॥ ५०॥

 

इस श्लोक का अर्थ है:

वह देवी, जो मन्त्र, ब्राह्मण, विद्या, अर्थ, नाद रूप, हविष्मती (यज्ञ के रूप में तेजस्वी) है। वह आथर्वणी (एक वेद) को श्रुतिशून्य (श्रुति से रहित) और कल्पना से मुक्त, अर्थात सत्य स्वरूपी है।
 
 

सत्ताजातिः प्रमाऽमेयाऽप्रमितिः प्राणदा गतिः। 
अवर्णा पञ्चवर्णा च सर्वदा भुवनेश्वरी॥ ५१॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

वह देवी, जो सत्ता के रूप में उत्पन्न होने वाली है, अद्वितीय, अमित, अप्रमेय, प्राण को देने वाली, जीवों की गति, अवर्णा (जो वर्णों से रहित है), पंचवर्णा (पाँच प्रमुख वर्णों की समृद्धि) और सदा ही भुवनेश्वरी है।

त्रैलोक्यमोहिनी विद्या सर्वभर्त्री क्षराऽक्षरा ।
हिरण्यवर्णा हरिणी सर्वोपद्रवनाशिनी ॥ ५२॥


इस श्लोक में कहा गया है कि वह विद्या जो त्रैलोक्य को मोहित करने वाली है, सभी को पालने वाली, सब कुछ क्षार-अक्षर रूप में है, सुनहरी वर्णा वाली, हिरण्यवर्णा, हिरणी रूप में है, और सभी उपद्रवों का नाश करने वाली है।

कैवल्यपदवीरेखा सूर्यमण्डलसंस्थिता ।
सोममण्डलमध्यस्था वह्निमण्डलसंस्थिता ॥ ५३॥


स श्लोक का अर्थ है - "जो सूर्य के मण्डल में कैवल्यपदवीरेखा (अकेलापन की श्रेणी) में स्थित हैं, वह सोम के मण्डल में मध्यस्थ हैं और वह वह्नि के मण्डल में स्थित हैं।"

वायुमण्डलमध्यस्था व्योममण्डलसंस्थिता।
चक्रिका चक्रमध्यस्था चक्रमार्गप्रवर्तिनी॥ ५४॥


इस श्लोक का अर्थ है - "जो वायु के मण्डल में मध्यस्थ हैं, वह आकाश के मण्डल में स्थित हैं। वह चक्रिका है, चक्र के मध्यस्थ हैं, और वह चक्रों के मार्ग को प्रवर्तित करने वाली है।"

कोकिलाकुलचक्रेशा पक्षतिः पंक्तिपावनी।
सर्वसिद्धान्तमार्गस्था षड्वर्णावरवर्जिता॥ ५५॥


इस श्लोक का अर्थ है - "जो कोकिला के जन्मे चक्रेश्वरी (चक्रराज) हैं, पक्षतिरूपी और पंक्तियों को पवित्र करने वाली हैं। वे सभी सिद्धान्तों के मार्ग में स्थित हैं और षड्वर्णों से रहित हैं।"


शररुद्रहरा हन्त्री सर्वसंहारकारिणी।
पुरुषा पौरुषी तुष्टिस्सर्वतन्त्रप्रसूतिका॥ ५६॥


इस श्लोक का अर्थ है - "वह शर को हरने वाली है, रुद्ररूपी और सभी संहार करने वाली है। वह पुरुष है, पौरुषी है, तुष्टि है, सभी तन्त्रों की प्रसूति है।"

अर्धनारीश्वरी देवी सर्वविद्याप्रदायिनी।
भार्गवी याजुषीविद्या सर्वोपनिषदास्थिता॥ ५७॥


इस श्लोक का अर्थ है - "वह अर्धनारीश्वरी देवी है, सभी विद्याओं को प्रदान करने वाली। वह भार्गवी है, याजुषीविद्या में स्थित है और सभी उपनिषदों में विराजमान है।"

व्योमकेशाखिलप्राणा पञ्चकोशविलक्षणा।
पञ्चकोशात्मिका प्रत्यक्पञ्चब्रह्मात्मिका शिवा॥ ५८॥


इस श्लोक का अर्थ है - "वह सब प्राणों के स्वामी है, जो आकाश के शिरस्त्राण में स्थित है। वह पाँच कोशों से अलग है, पाँच कोशों की आत्मा है और पाँच ब्रह्मांड की आत्मा है वही शिवा है।"

जगज्जराजनित्री च पञ्चकर्मप्रसूतिका।
वाग्देव्याभरणाकारा सर्वकाम्यस्थितस्थितिः॥ ५९॥


इस श्लोक का अर्थ है - "जगत् की जननी हैं, पाँच कर्मों की प्रसूति हैं। वाणी की देवी हैं, सभी कामनाओं की स्थिति हैं और स्थिति का आधार हैं।"

अष्टादशचतुष्षष्ठिपीठिका विद्यया युता।
कालिकाकर्षणश्यामा यक्षिणी किन्नरेश्वरी॥ ६०॥


इस श्लोक का अर्थ है - "वह अष्टादश (अठारह) चतुर्षष्टि (चौंसठ) पीठों से युक्त है, विद्याओं से युक्त है। काली के रूप में कालिका हैं, कार्षणी हैं, श्यामा हैं, यक्षिणी हैं, किन्नरों की ईश्वर हैं।"

केतकी मल्लिकाशोका वाराही धरणी ध्रुवा।
नारसिंही महोग्रास्या भक्तानामार्तिनाशिनी॥ ६१॥


यह श्लोक कहता है कि ये देवीयाँ भक्तों की संकटों को नष्ट करती हैं और उनकी सुख-समृद्धि में सहायता करती हैं।

अन्तर्बला स्थिरा लक्ष्मीर्जरामरणनाशिनी।
श्रीरञ्जिता महाकाया सोमसूर्याग्निलोचना॥ ६२॥


इस श्लोक में कहा गया है कि ये देवी आंतरिक बला हैं, स्थिर हैं, जरा, मृत्यु और मरण को नष्ट करने वाली हैं। उनकी आंखें सूर्य, चंद्रमा और अग्नि की भांति हैं।

अदितिर्देवमाता च अष्टपुत्राऽष्टयोगिनी।
अष्टप्रकृतिरष्टाष्टविभ्राजद्विकृताकृतिः॥ ६३॥


इस श्लोक में कहा गया है कि अदिति देवी हैं और उनके अष्ट पुत्र हैं, अष्ट योगिनियाँ हैं। उनकी आठ प्रकृतियाँ हैं, जो अष्ट विभ्राजित और द्विकृति हैं।

दुर्भिक्षध्वंसिनी देवी सीता सत्या च रुक्मिणी।
ख्यातिजा भार्गवी देवी देवयोनिस्तपस्विनी॥ ६४॥


इस श्लोक में कहा गया है कि ये देवी सीता, सत्या, रुक्मिणी, ख्याति, भार्गवी और देवयोनि हैं। वे तपस्विनी हैं और दुर्भिक्षा और विनाशकारिणी हैं।

शाकम्भरी महाशोणा गरुडोपरिसंस्थिता।
सिंहगा व्याघ्रगा देवी वायुगा च महाद्रिगा॥ ६५॥

यहाँ इस श्लोक में बताया गया है कि ये देवी शाकम्भरी, महाशोणा, गरुड़ पर बैठी हुई हैं। वे सिंह की अवतार हैं, व्याघ्र (बाघ) की अवतार हैं, वायु और महाद्रि (हिमालय) की अवतार हैं।

अकारादिक्षकारान्ता सर्वविद्याधिदेवता।
मन्त्रव्याख्याननिपुणा ज्योतिश्शास्त्रैकलोचना॥ ६६॥

इस श्लोक में बताया गया है कि ये देवी सब विद्याओं की अधिदेवी हैं, जो अकार से लेकर क्षकार तक हैं। वे मन्त्रों की व्याख्या में निपुण हैं और ज्योतिष शास्त्र को अच्छे से जानती हैं।

इडापिङ्गलिकामध्यासुषुम्ना ग्रन्थिभेदिनी।
कालचक्राश्रयोपेता कालचक्रस्वरूपिणी॥ ६७॥

इस श्लोक में बताया गया है कि यह देवी इडा, पिङ्गला और सुषुम्ना नाड़ियों को बांधती हैं। वे कालचक्र में आश्रित हैं और कालचक्र की स्वरूपिणी हैं।

वैशारदी मतिश्श्रेष्ठा वरिष्ठा सर्वदीपिका।
वैनायकी वरारोहा श्रोणिवेला बहिर्वलिः॥ ६८॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी वैशारदी हैं, उनकी बुद्धि श्रेष्ठ है, वे सब दीपों की तरह प्रकाशमान हैं। वे वैनायकी हैं, उनकी बाँहें वरारोहा हैं और वे श्रोणिवेला और बहिर्वलिका हैं।

जम्भिनी जृम्भिणी जृम्भकारिणी गणकारिका।
शरणी चक्रिकाऽनन्ता सर्वव्याधिचिकित्सकी॥ ६९॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी जम्भिनी हैं, जृम्भिणी हैं, जृम्भकारिणी हैं, गणकारिका हैं। वे शरणी हैं, चक्रिका हैं, अनन्ता हैं और सभी रोगों का इलाज करने वाली हैं।

देवकी देवसङ्काशा वारिधिः करुणाकरा।
शर्वरी सर्वसम्पन्ना सर्वपापप्रभञ्जिनी॥ ७०॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी देवकी की संतान सीता, वारिधि हैं, करुणा करने वाली हैं। वे शर्वरी हैं, सम्पूर्ण सम्पत्तियों से युक्त हैं और सभी पापों को तोड़ देने वाली हैं।

एकमात्रा द्विमात्रा च त्रिमात्रा च तथापरा।
अर्धमात्रा परा सूक्ष्मा सूक्ष्मार्थाऽर्थपराऽपरा॥ ७१॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी एक मात्रा हैं, दो मात्रा हैं, तीन मात्रा हैं और उससे भी ऊपर हैं। वे अर्धमात्रा हैं, परा हैं, सूक्ष्मा हैं, सूक्ष्मार्था हैं, अर्थपरा हैं और सबसे ऊपर हैं।

एकवीरा विशेषाख्या षष्ठीदेवी मनस्विनी।
नैष्कर्म्या निष्कलालोका ज्ञानकर्माधिका गुणा॥ ७२॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी एकवीरा हैं, विशेषा नामक हैं, षष्ठी देवी हैं, मनस्विनी हैं। वे नैष्कर्म्या हैं, निष्कला हैं, लोकों की अचल हैं, ज्ञान-कर्म में अधिक हैं और गुणों की प्राप्ति में अधिक हैं।

सबन्ध्वानन्दसन्दोहा व्योमाकाराऽनिरूपिता।
गद्यपद्यात्मिका वाणी सर्वालङ्कारसंयुता॥ ७३॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी सब बंधनों का आनंद संदोह हैं, अनिरूपित व्योमकार हैं। वे गद्य-पद्य-आत्मिका वाणी हैं और सभी आलंकारिक गुणों से युक्त हैं।

साधुबन्धपदन्यासा सर्वौको घटिकावलिः।
षट्कर्मा कर्कशाकारा सर्वकर्मविवर्जिता॥ ७४॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी साधुओं के सभी बंधनों को नष्ट करने वाली हैं, घटिकावलिः हैं। वे षट्कर्मों का कारण हैं, कर्कश रूप से कार्य करने वाली हैं और सभी कर्मों से रहित हैं।

आदित्यवर्णा चापर्णा कामिनी वररूपिणी।
ब्रह्माणी ब्रह्मसन्ताना वेदवागीश्वरी शिवा॥ ७५॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी आदित्यवर्णा हैं, अपर्णा हैं, कामिनी हैं, वररूपिणी हैं। वे ब्रह्माणी हैं, ब्रह्मा की संतान हैं, वेदों की वाणी हैं, ईश्वरी और शिवा हैं।

पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रागमश्रुता ।
सद्योवेदवती सर्वा हंसी विद्याधिदेवता ॥ ७६॥

इस श्लोक का अर्थ है कि यह देवी पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, आगम, और श्रुति का ज्ञान रखती हैं। वे सभी वेदों की तरह सद्य और सरल हैं, वे हंस की अवतार हैं और विद्याओं की अधिदेवता हैं।

विश्वेश्वरी जगद्धात्री विश्वनिर्माणकारिणी।
वैदिकी वेदरूपा च कालिका कालरूपिणी॥ ७७॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी जगत की धारिणी और उसे बनाने वाली हैं। वे वेदों की रूपवती हैं और काल की रूपवती हैं।

नारायणी महादेवी सर्वतत्त्वप्रवर्तिनी।
हिरण्यवर्णरूपा च हिरण्यपदसम्भवा॥ ७८॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी सर्व तत्त्वों को प्रवर्तित करने वाली हैं। वे हिरण्य के वर्ण में हैं और हिरण्यपद से उत्पन्न हुई हैं।

कैवल्यपदवी पुण्या कैवल्यज्ञानलक्षिता।
ब्रह्मसम्पत्तिरूपा च ब्रह्मसम्पत्तिकारिणी॥ ७९॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी कैवल्य पदवी की हैं, जो पुण्य से भरी हैं और कैवल्य ज्ञान को प्रकट करती हैं। वे ब्रह्मसम्पत्ति की रूपवती हैं और ब्रह्मसम्पत्ति का कारण हैं।

वारुणी वारुणाराध्या सर्वकर्मप्रवर्तिनी।
एकाक्षरपराऽऽयुक्ता सर्वदारिद्र्यभञ्जिनी॥ ८०॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी वारुणी हैं, जिनकी पूजा की जाती है। वे सभी कर्मों का प्रवर्तन करती हैं। वे एकाक्षर (ॐ) परायण हैं और सभी दारिद्र्य को नष्ट करने वाली हैं।

पाशांकुशान्विता दिव्या वीणाव्याख्याक्षसूत्रभृत् ।
एकमूर्तिस्त्रयीमूर्तिर्मधुकैटभभञ्जिनी ॥ ८१॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी दिव्य पाश और अंकुश से युक्त हैं, वीणा, व्याख्या, और अक्षमाला धारण करती हैं। वे एकमूर्ति हैं, लेकिन तीन मूर्तियों की रूप में हैं, और वे मधुकैटभ को भंग करने वाली हैं।

सांख्या सांख्यवती ज्वाला ज्वलन्ती कामरूपिणी ।
जाग्रन्ती सर्वसम्पत्तिस्सुषुप्तान्वेष्टदायिनी ॥ ८२॥ 

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी सांख्या और सांख्यवती हैं, उनकी ज्वाला प्रकट होती है और वे कामरूपिणी हैं। वे जाग्रती स्थिति में हैं, सर्व सम्पत्तियों की प्राप्ति में हैं, और सुषुप्ति स्थिति में आनंद करने का कारण हैं।

कपालिनी महादंष्ट्रा भ्रुकुटी कुटिलानना ।
सर्वावासा सुवासा च बृहत्यष्टिश्च शक्वरी ॥ ८३॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी कपालिनी हैं, महादंष्ट्रा (बड़ी दंष्ट्रा) के साथ, भ्रुकुटी में कुटिल चेहरे वाली हैं। वे सभी आवासों की रक्षिका हैं, सुवासा हैं, और बृहत्यष्टि के साथ शक्वरी हैं।

छन्दोगणप्रतिष्ठा च कल्माषी करुणात्मिका ।
चक्षुष्मती महाघोषा खड्गचर्मधराऽशनिः ॥ ८४॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी छन्दोगणप्रतिष्ठा हैं, कल्माषी हैं, करुणा स्वरूपिणी हैं।

सर्वलक्ष्मीस्सदानन्दा सारविद्या सदाशिवा । सर्वज्ञा सर्वशक्तिश्च खेचरीरूपगोच्छ्रिता ॥ ८७॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी सदा आनंदमयी हैं, सर्वविद्या हैं, सदाशिवा हैं, सर्वज्ञा हैं, सर्वशक्तिमान हैं, और वे खेचरी मुद्रा में रूपगोच्छ्रिता हैं।

अणिमादिगुणोपेता परा काष्ठा परा गतिः । हंसयुक्तविमानस्था हंसारूढा शशिप्रभा ॥ ८८॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी अणिमा आदि गुणों से संपन्न हैं, परा काष्ठा हैं, परा गति हैं, हंस युक्त विमान में स्थित हैं, हंसारूढ़ा हैं और उनकी प्रकाश सशशीप्रभा है।

भवानी वासनाशक्तिराकृतिस्थाखिलाऽखिला । तन्त्रहेतुर्विचित्राङ्गी व्योमगङ्गाविनोदिनी ॥ ८९॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी भवानी हैं, वासना शक्तिरूपिणी हैं, आकृति में स्थित हैं, अखिल विश्व में सम्पूर्ण रूपों की धारिणी हैं, तन्त्रहेतु हैं, विचित्राङ्गी हैं, और व्योमगङ्गा का आनंद लेने वाली हैं।

वर्षा च वार्षिका चैव ऋग्यजुस्सामरूपिणी । महानदीनदीपुण्याऽगण्यपुण्यगुणक्रिया ॥ ९०॥

इस श्लोक में कहा गया है कि यह देवी वर्षा और वार्षिका हैं, ऋग्यजुस्सामरूपिणी हैं, महानदीओं के समृद्धि का कारण हैं, और अगण्य पुण्यगुणों की क्रिया करती हैं।


समाधिगतलभ्यार्था श्रोतव्या स्वप्रिया घृणा ।
नामाक्षरपरा देवी उपसर्गनखाञ्चिता ॥ ९१॥

 इसका अर्थ है - जो ज्ञान और सिद्धि को प्राप्त करने में सुनने योग्य हैं, वह स्वयं को पसंद करती हैं। वह घृणा को अपने नाम और अक्षरों के उपयोग में लेती हैं, और वह उपसर्गों और नाखुँचित अक्षरों में निहित हैं।

निपातोरुद्वयीजङ्घा मातृका मन्त्ररूपिणी ।
आसीना च शयाना च तिष्ठन्ती धावनाधिका ॥ ९२॥

इस श्लोक का अर्थ है - जिसके निपात दो पैरों वाले होते हैं, वह मातृका और मन्त्र के रूप में विद्यमान है। वह बैठी हुई है, लेटी हुई है, और खड़ी हुई है, और उसकी धावना बहुत तेज़ है।

लक्ष्यलक्षणयोगाढ्या ताद्रूप्यगणनाकृतिः ।
सैकरूपा नैकरूपा सेन्दुरूपा तदाकृतिः ॥ ९३॥

"लक्ष्यलक्षणयोगाढ्या ताद्रूप्यगणनाकृतिः" इस श्लोक का अर्थ है कि देवी लक्ष्मी वह अद्वितीय शक्ति है, जो सभी लक्षणों और गुणों की अत्यंत सूक्ष्म और अनूठी गणना करती है। उनका स्वरूप तादात्म्ययुक्त है, और वह सभी लक्षणों के साथ एक रूप में समाहित हैं।

"सैकरूपा नैकरूपा सेन्दुरूपा तदाकृतिः" इस श्लोक में बताया गया है कि माँ लक्ष्मी अनगिनत रूपों में समाहित हैं, जो सभी भक्तों के लिए एक से बढ़कर एक हैं। उनका स्वरूप सुंदरता से भरा है, और वे सभी प्राणियों को आपने चरित्रवान और प्रेमयुक्त बनाने में समर्थ हैं।

"समासतद्धिताकारा विभक्तिवचनात्मिका।
स्वाहाकारा स्वधाकारा श्रीपत्यर्धाङ्गनन्दिनी॥ ९४॥"

यह श्लोक बताता है कि देवी लक्ष्मी समास, तद्धित, अव्ययीभाव, विभक्ति और वचन का स्वरूप है। वह स्वाहा, स्वधा, श्रीपति, और अर्धाङ्गना के रूप में समाहित हैं और सभी को आनंद और सुख प्रदान करती हैं।

"गम्भीरा गहना गुह्या योनिलिङ्गार्धधारिणी।
शेषवासुकिसंसेव्या चषाला वरवर्णिनी॥ ९५॥"


यह श्लोक बताता है कि देवी लक्ष्मी अत्यंत गहरी, गुह्य और गम्भीर स्वभाव वाली हैं। वे योनि-लिङ्गार्ध-धारिणी हैं, जिन्हें शेष और वासुकि सेवित करते हैं और वे सभी वर्णों का आदरणीय रूप हैं।

"कारुण्याकारसम्पत्तिः कीलकृन्मन्त्रकीलिका।
शक्तिबीजात्मिका सर्वमन्त्रेष्टाक्षयकामना॥ ९६॥"


यह श्लोक बताता है कि देवी लक्ष्मी कारुण्य रूप से समृद्धि प्रदान करने वाली हैं, मन्त्रों के कीलकृत करने वाली हैं, शक्ति के बीजरूप में हैं और सभी मन्त्रों को पूर्ण करने वाली हैं, जो अक्षय सिद्धि की कामना करती हैं।

"आग्नेयी पार्थिवा आप्या वायव्या व्योमकेतना।
सत्यज्ञानात्मिकाऽऽनन्दा ब्राह्मी ब्रह्म सनातनी॥ ९७॥"


यह श्लोक बताता है कि देवी लक्ष्मी अग्नि स्वरूपी, पृथ्वी स्वरूपी, जल स्वरूपी, वायु स्वरूपी, आकाश स्वरूपी हैं। वे सत्य, ज्ञान और आनंद स्वरूपी हैं, ब्राह्मी और सनातन ब्रह्म की स्वरूपा हैं।

"अविद्यावासना मायाप्रकृतिस्सर्वमोहिनी।
शक्तिर्धारणशक्तिश्च चिदचिच्छक्तियोगिनी॥ ९८॥"


यह श्लोक बताता है कि देवी लक्ष्मी अविद्या, वासना, माया, प्रकृति और सभी को मोहित करने वाली हैं। वे शक्ति की धारणा करने वाली हैं, चैतन्य और अचैतन्य की शक्तियों का योग हैं।

"वक्त्रारुणा महामाया मरीचिर्मदमर्दिनी।
विराड् स्वाहा स्वधा शुद्धा नीरूपास्तिस्सुभक्तिगा॥ ९९॥"


यह श्लोक बताता है कि देवी लक्ष्मी चेहरे का रूप रखने वाली हैं, महामाया हैं, सूर्य की किरणों को मारने वाली हैं। वे विराट स्वरूपी हैं, स्वाहा, स्वधा, शुद्धता, और नीरूपा स्वरूपी हैं और सब भक्तों को शुभ भक्ति प्रदान करने वाली हैं।

निरूपिताद्वयीविद्या नित्यानित्यस्वरूपिणी ।
वैराजमार्गसञ्चारा सर्वसत्पथदर्शिनी ॥ १००॥


यह श्लोक बताता है कि देवी लक्ष्मी द्वैत रहित विद्या हैं, जो सदा अनित्य-नित्य के स्वरूप में हैं। वे वैराज मार्ग के प्रवासी हैं, सभी सत्य के मार्ग का दर्शन कराती हैं।

"जालन्धरी मृडानी च भवानी भवभञ्जनी।
त्रैकालिकज्ञानतन्तुस्त्रिकालज्ञानदायिनी॥ १०१॥"

इस श्लोक में कहा गया है कि देवी लक्ष्मी जालंधर मारने वाली हैं, भवानी हैं, भव तोड़ने वाली हैं। वे त्रैकालिक ज्ञान की प्राप्ति कराने वाली हैं, त्रिकाल ज्ञान की प्रदान करने वाली हैं।


नादातीता स्मृतिः प्रज्ञा धात्रीरूपा त्रिपुष्करा ।
पराजिताविधानज्ञा विशेषितगुणात्मिका ॥ १०२॥


इस श्लोक का अर्थ:

"नादातीता" - देवी लक्ष्मी जो सभी शब्दों के परे हैं, जिन्हें शब्द नहीं जा सकता।
"स्मृतिः" - वह ज्ञान जो सभी स्मृतियों को समझती है, सभी धरोहरों की स्मृति है।
"प्रज्ञा" - इसका अर्थ है पूर्ण ज्ञान या सर्वज्ञता।
"धात्रीरूपा" - जो सम्पूर्ण धरोहरों की रक्षिका हैं, जैसे कि एक माँ अपने बच्चों की रक्षा करती है।
"त्रिपुष्करा" - यह बताता है कि देवी लक्ष्मी तीनों लोकों की सृष्टि, स्थिति, और संहार करने वाली हैं।
"पराजिताविधानज्ञा" - वह ज्ञानी हैं जो सभी पराजितता की विधियों को जानती हैं, या उन्हें हराने की कला को समझती हैं।
"विशेषितगुणात्मिका" - विशेष गुणों की अद्भुत स्वरूप हैं, जो उन्हें अनुकरणीय बनाते हैं और उन्हें विशेष बनाते हैं।


हिरण्यकेशिनी हेमब्रह्मसूत्रविचक्षणा ।
असंख्येयपरार्धान्तस्वरव्यञ्जनवैखरी ॥ १०३॥


इस श्लोक का अर्थ:

"हिरण्यकेशिनी" - देवी लक्ष्मी के बाल रूपी हैं, जिनके बाल सोने के बालों की तरह हैं।
"हेमब्रह्मसूत्रविचक्षणा" - वह ब्रह्मसूत्र को जानने वाली हैं, जिनका ज्ञान सोने के समान अनन्त है।
"असंख्येयपरार्धान्तस्वरव्यञ्जनवैखरी" - देवी लक्ष्मी की वाणी अनन्त व्यापारों की वाणी है, जिसका व्यापार अनन्त है, जैसे अनन्त के अर्धांशों का व्यापार।

मधुजिह्वा मधुमती मधुमासोदया मधुः।
माधवी च महाभागा मेघगम्भीरनिस्वना॥ १०४॥


इस श्लोक का अर्थ:

"मधुजिह्वा" - देवी लक्ष्मी की जिह्वा मधु की तरह है, जिससे मधु की तरह सुगंध आती है।
"मधुमती" - जो मधु की तरह मीठी हैं, जिन्हें मीठा अनुभव होता है।
"मधुमासोदया" - वह महीनों के संग्रह करने वाली हैं, जो मधु के समान महीनता लाती है।
"मधु" - वह आत्मा जो सबको मधुर अनुभव कराती है, जैसे मधु की मिठास।
"माधवी" - जो माधव की तरह महान हैं, जो मधुरता को लाती हैं।
"महाभागा" - वे बहुत भाग्यशाली हैं, जो सभी को अपने महानता से आश्चर्यचकित करती हैं।
"मेघगम्भीरनिस्वना" - उनकी वाणी बादलों के गहराई में सुनाई देती है, जो गंभीरता से उत्तरती है।

"ब्रह्मविष्णुमहेशादिज्ञातव्यार्थविशेषगा।
नाभौ वह्निशिखाकारा ललाटे चन्द्रसन्निभा॥ १०५॥"


इस श्लोक का अर्थ:

"ब्रह्मविष्णुमहेशादिज्ञातव्यार्थविशेषगा" - वह ज्ञाता हैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि के अर्थ की विशेषताओं की।
"नाभौ वह्निशिखाकारा" - उनकी धारणा की गई हैं नाभि के अर्ध शिखर की तरह, जो आग के तरह उठती है।
"ललाटे चन्द्रसन्निभा" - उनकी भौतिकता चन्द्रमा के समान है, जो ललाट में प्रकट होती है।

"भ्रूमध्ये भास्कराकारा सर्वताराकृतिर्हृदि।
कृत्तिकादिभरण्यन्तनक्षत्रेष्ट्यार्चितोदया॥ १०६॥"


इस श्लोक का अर्थ:

"भ्रूमध्ये भास्कराकारा" - उनकी आकृति सूर्य के समान है, जो माथे के बीच में है।
"सर्वताराकृतिर्हृदि" - उनकी सम्पूर्णता हृदय में स्थित है।
"कृत्तिकादिभरण्यन्तनक्षत्रेष्ट्यार्चितोदया" - वे कृत्तिका आदि नक्षत्रों के आराधना के योग्य हैं और उनका उदय होता है।

"ग्रहविद्यात्मिका ज्योतिर्ज्योतिर्विन्मतिजीविका।
ब्रह्माण्डगर्भिणी बाला सप्तावरणदेवता॥ १०७॥"


इस श्लोक में बताया गया है कि देवी लक्ष्मी ग्रहों की ज्ञानमयी हैं, जो ज्योतियों की ज्ञान को जीवित करती हैं। वे ब्रह्मांड को गर्भ में धारण करने वाली हैं और सप्त आवरणों की देवी हैं।

"वैराजोत्तमसाम्राज्या कुमारकुशलोदया।
बगला भ्रमराम्बा च शिवदूती शिवात्मिका॥ १०८॥"


इस श्लोक में बताया गया है कि देवी लक्ष्मी वैराज रूपी सम्राट की हैं, कुमारों को उत्तम बनाने वाली हैं। वे भगवान शिव की दूत हैं और शिव की आत्मा हैं।

"मेरुविन्ध्यादिसंस्थाना काश्मीरपुरवासिनी। 
योगनिद्रा महानिद्रा विनिद्रा राक्षसाश्रिता॥ १०९॥"


इस श्लोक का अर्थ है:

वह देवी, जो मेरु और विन्ध्य पर्वतों सहित अनेक स्थानों में स्थित है, काश्मीर के पुरवासिनी हैं। वह योगनिद्रा है, महानिद्रा है, और वह राक्षसों की शरण में रहने वाली विनिद्रा है।

सुवर्णदा महागङ्गा पञ्चाख्या पञ्चसंहतिः। 
सुप्रजाता सुवीरा च सुपोषा सुपतिश्शिवा॥ ११०॥
सुगृहा रक्तबीजान्ता हतकन्दर्पजीविका।
 समुद्रव्योममध्यस्था समबिन्दुसमाश्रया॥ १११॥
"


इस श्लोक का अर्थ है:

"सुवर्णदा, महागङ्गा, पञ्चाख्या, पञ्चसंहति, सुप्रजाता, सुवीरा, सुपोषा, सुपतिश्शिवा - ये सभी नाम हैं उस देवी के, जो सोने की धारा, महागङ्गा, पाँच नामों से युक्त, पाँच संहतियों में समाहित, सुप्रजा देने वाली, सुवीरा, सुपोषा, सुपतिश्शिवा है।

सुगृहा, रक्तबीजान्ता, हतकन्दर्पजीविका - ये उसके और एक रूप हैं, जो सज्जनों की सुखद भावना को रक्षित करने वाली है, जिनके बीज रक्त से बने हैं और जो कामदेव को मारने वाली है।

समुद्रव्योममध्यस्था, समबिन्दुसमाश्रया - यह उसका एक रूप है, जो समुद्र और आकाश के मध्यस्थित है, और जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साकार और निराकार बिन्दु में आश्रित है।"

सौभाग्यरसजीवातुस्सारासारविवेकदृक् ।
त्रिवल्यादिसुपुष्टाङ्गा भारती भरताश्रिता ॥ ११२॥
नादब्रह्ममयीविद्या ज्ञानब्रह्ममयीपरा ।
ब्रह्मनाडी निरुक्तिश्च ब्रह्मकैवल्यसाधनम् ॥


इस श्लोक का अर्थ है:

"सौभाग्यरसजीवा तु, सारासारविवेकदृक्, त्रिवल्यादिसुपुष्टाङ्गा, भारती, भरताश्रिता। नादब्रह्ममयीविद्या, ज्ञानब्रह्ममयीपरा, ब्रह्मनाडी निरुक्तिश्च, ब्रह्मकैवल्यसाधनम्॥"

इस श्लोक के अनुसार, यह देवी सौभाग्यरस से युक्त जीवन का सारासारविवेक करने वाली है, त्रिवल्या (इडा, पिङ्गला, शुषुम्णा) और अन्य पञ्चाङ्गों से पूर्ण है, भारती नामक और भरत की शरण में है। इस देवी की विद्या नादब्रह्ममयी है, और इसमें ज्ञान ब्रह्ममयी है, इसके नाड़ियाँ ब्रह्मनाडी हैं और इसमें निरुक्ति और ब्रह्मकैवल्य का साधन है।"

"कालिकेयमहोदारवीर्यविक्रमरूपिणी। वडबाग्निशिखावक्त्रा महाकबलतर्पणा॥ ११४॥
महाभूता महादर्पा महासारा महाक्रतुः। पञ्जभूतमहाग्रासा पञ्चभूताधिदेवता॥ ११५॥
सर्वप्रमाणा सम्पत्तिस्सर्वरोगप्रतिक्रिया। ब्रह्माण्डान्तर्बहिर्व्याप्ता विष्णुवक्षोविभूषणी॥ ११६॥
शाङ्करी विधिवक्त्रस्था प्रवरा वरहेतुकी। हेममाला शिखामाला त्रिशिखा पञ्चमोचना॥ ११७॥"


इस श्लोक के अर्थ है:

कालिका, जिनका रूप विराट और वीर्य से भरा हुआ है, जिनका मुख वड़ (बड़ा) है और जिसने बड़े तेजस्वी अग्नि को शिखाओं के माध्यम से वाक्य करा है, वह देवी महाकबल को तृप्त करने वाली है।

वह महाभूता है, महादर्पा है, महासारा है, महाक्रतु है, जो पाँच महाभूतों को अपनी आदिदेवता मानती है।

वह सभी प्रमाणों की स्रोत है, सम्पत्ति की दाता है और सभी रोगों का प्रतिक्रियाशील उपाय है।

वह ब्रह्माण्ड के अंतर्गत और बाहर व्याप्त है और विष्णु के वक्षस्थल की शोभा है।

वह शाङ्करी है, विधिवक्त्र से युक्त है, प्रवरा है, वरहेतुकी है, हेममाला, शिखामाला, त्रिशिखा, पञ्चमोचना हैं, जिन्हें समर्पित करना शुभ है।"

"सर्वागमसदाचारमर्यादा यातुभञ्जनी। पुण्यश्लोकप्रबन्धाढ्या सर्वान्तर्यामिरूपिणी॥ ११८॥
सामगानसमाराध्या श्रोत्रकर्णरसायनम्। जीवलोकैकजीवातुर्भद्रोदारविलोकना॥ ११९॥
तटित्कोटिलसत्कान्तिस्तरुणी हरिसुन्दरी। मीननेत्रा च सेन्द्राक्षी विशालाक्षी सुमङ्गला॥ १२०॥
सर्वमङ्गलसम्पन्ना साक्षान्मङ्गलदेवता। देहहृद्दीपिका दीप्तिर्जिह्मपापप्रणाशिनी॥ १२१॥
अर्धचन्द्रोल्लसद्दंष्ट्रा यज्ञवाटीविलासिनी। महादुर्गा महोत्साहा महादेवबलोदया॥ १२२॥
डाकिनीड्या शाकिनीड्या साकिनीड्या समस्तजुट्। निरङ्कुशा नाकिवन्द्या षडाधाराधिदेवता॥ १२३॥
भुवनज्ञानिनिश्श्रेणी भुवनाकारवल्लरी। शाश्वती शाश्वताकारा लोकानुग्रहकारिणी॥ १२४॥
सारसी मानसी हंसी हंसलोकप्रदायिनी। चिन्मुद्रालङ्कृतकरा कोटिसूर्यसमप्रभा॥ १२५॥"


इस श्लोक में, देवी का विवरण बहुत विस्तार से है। यह देवी सर्वागम, सदाचार, अद्भुत मर्यादा, और सदा यत्नशील हैं। उन्होंने सभी पुण्यश्लोक और प्रबंधों को अच्छी तरह से स्वीकार किया है और सभी आचार्यों के अनुसार चलती हैं। वह सर्वांतर्यामिनी हैं और सभी अंतर्यामिनी देवताओं की समाहिता हैं। वह सामगान, समाराध्या हैं, और उन्हें श्रवण, करण, और रसायन में बाध्य किया गया है। वह जीवलोक की एकमात्र जीवनादाता हैं और भद्रोदारविलोकना हैं, जो सभी को भद्र में ले जाने के लिए देखती हैं।

उनकी रूपरेखा बहुत आकर्षक हैं, और उनकी आलोकिक दिव्यता को वर्णित किया गया है। वे सर्वमङ्गलसम्पन्ना हैं और साक्षात् मङ्गलदेवता हैं। उनकी दीप्ति देह और हृदय को प्रकाशित करती है और उन्होंने पापों को जला देने वाली ज्ञान की दीपिका हैं। उनकी दंडाकारी दन्तें अर्धचंद्रमय हैं और उनका चेहरा यज्ञवाटी में विल

सित है। वह महादुर्गा हैं, जो अत्युत्साह से भरी हुई हैं, और वह महादेव के बलोदय हैं। उनकी शक्तियों को डाकिनी, शाकिनी, साकिनी, समस्त जुट्टों के साथ, और षडाधाराधिदेवता के रूप में पूजा जाता है। वह भुवनज्ञानी निश्श्रेणी हैं, भुवन का आकारवल्लरी हैं, शाश्वती हैं, जो शाश्वत आकारवाली हैं, और वह लोकों के उद्धार का कारण हैं। उन्होंने सारसी, मानसी, हंसी, हंसलोकप्रदायिनी के रूप में प्रकट होने वाली हैं। उनके चिन्मुद्रा-लङ्कृतकरा हैं, जो कोटि सूर्यों के समान प्रकाशमान हैं।"

सुखप्राणिशिरोरेखा सददृष्टप्रदायिनी । 
सर्वसाङ्कर्यदोषघ्नी ग्रहोपद्रवनाशिनी ॥ १२६॥


अनुवाद:
जो शक्ति सुख की प्राणियों के उच्च मार्ग में सदृश प्रदान करने वाली है। वह सभी कार्यों के दोषों को नष्ट करने वाली है और ग्रहों के अशुभ प्रभावों को दूर करने वाली है।

यह श्लोक देवी लक्ष्मी की महत्वपूर्ण गुणों की स्तुति करता है और उसकी शक्तियों का वर्णन करता है जो सुख, समृद्धि, और समृष्टि की प्राप्ति में मदद करती हैं।
:

क्षुद्रजन्तुभयघ्नी च विषरोगादिभञ्जनी ।
सदाशान्ता सदाशुद्धा गृहच्छिद्रनिवारिणी ॥


अनुवाद:
जो छोटे कीटाकों का भय दूर करने वाली है और विष, रोग, आदि को नष्ट करने वाली है। हमेशा शांत और सदा ही शुद्ध, घर की छिद्रों को भी मिटाने वाली है।

यह श्लोक देवी लक्ष्मी की कुछ अन्य महत्वपूर्ण गुणों की स्तुति करता है, जो उन्हें भक्तों के जीवन में अत्यधिक महत्वपूर्ण बनाते हैं। इसमें उनकी शक्तियों का विवरण है, जो सद्गुण से युक्त हैं और भक्तों को सुरक्षित रखने में सहायक हैं।

कलिदोषप्रशमनी कोलाहलपुरस्स्थिता ।
गौरी लाक्षणकी मुख्या जघन्याकृतिवर्जिता ॥ १२८॥


अनुवाद:
जो कलियुग के दोषों को शांत करने वाली है और कोलाहलपुर (कलियुग का अर्थ) में स्थित है। वह गौरी लाक्षण की मुख्या है, और उसकी आकृति जघन्य (अनौपचारिक) रूप से अवर्जित है।

यह श्लोक देवी लक्ष्मी की एक और विशेषता को बताता है जो कलियुग के दौरान दोषों को शांत करने वाली है और उनका साक्षात्कार कोलाहलपुर (कलियुग) में होता है। इसके साथ ही, उसकी आकृति पवित्रता और शुद्धता में समृद्धि है, जो जघन्य रूप से अवर्जित है।


माया विद्या मूलभूता वासवी विष्णुचेतना ।
वादिनी वसुरूपा च वसुरत्नपरिच्छदा ॥ १२९॥


अनुवाद:
माया, विद्या, मूल प्राण, वासवी, विष्णुचेतना, वादिनी, वसुरूपा, और वसुरत्नों से विच्छिन्न होने वाली है।


छान्दसी चन्द्रहृदया मन्त्रस्वच्छन्दभैरवी ।
वनमाला वैजयन्ती पञ्चदिव्यायुधात्मिका ॥ १३०॥


अनुवाद:
छान्दसी, चन्द्रहृदया, मन्त्रस्वच्छन्दा भैरवी, वनमाला, वैजयन्ती, और पञ्चदिव्यायुध स्वरूपा है।

यह श्लोक देवी लक्ष्मी की विभिन्न स्वरूपों और गुणों की स्तुति करता है, जो उन्हें अनंत और परिपूर्ण बनाते हैं।

**श्लोक १३१:**
पीताम्बरमयी चञ्चत्कौस्तुभा हरिकामिनी ।
नित्या तथ्या रमा रामा रमणी मृत्युभञ्जनी ॥ १३१॥


अनुवाद:
तुम जिनका वस्त्र पीताम्बर से धारण करती हो, जिनके गले में चञ्चत्कौस्तुभ है, हरिकामिनी, नित्य, तथ्य, रमा, रामा, रमणी, और मृत्यु को भगाने वाली॥१३१॥

**श्लोक १३२:**
ज्येष्ठा काष्ठा धनिष्ठान्ता शराङ्गी निर्गुणप्रिया ।
मैत्रेया मित्रविन्दा च शेष्यशेषकलाशया ॥ १३२॥


अनुवाद:
तुम ज्येष्ठा, काष्ठा, धनिष्ठा, शराङ्गी, निर्गुणप्रिया, मैत्रेया, मित्रविन्दा, शेष्य और शेषकलाओं की आश्रिता हो॥१३२॥

**श्लोक १३३:**
वाराणसीवासरता चार्यावर्तजनस्तुता ।
जगदुत्पत्तिसंस्थानसंहारत्रयकारणम् ॥


अनुवाद:
तुम वाराणसी में वास करने वाली हो, आर्यावर्त जनों द्वारा स्तुतित हो, जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के त्रिकारण है॥१३३॥

**श्लोक १३४:**
त्वमम्ब विष्णुसर्वस्वं नमस्तेऽस्तु महेश्वरि ।
नमस्ते सर्वलोकानां जनन्यै पुण्यमूर्तये ॥ १३४॥


अनुवाद:
तुम मेरी माता हो, विष्णु का संपूर्ण स्वरूप, तुम्हें प्रणाम है, हे महेश्वरि! तुम्हें प्रणाम है, सर्व लोकों की जननी, पुण्यरूपिणी!॥१३४॥

**श्लोक १३५:**
सिद्धलक्ष्मीर्महाकालि महलक्ष्मि नमोऽस्तु ते ।
सद्योजातादिपञ्चाग्निरूपा पञ्चकपञ्चकम् ॥ १३५॥


अनुवाद:
हे सिद्धलक्ष्मि, हे महाकालि, हे महालक्ष्मि, तुम्हें प्रणाम है! तुम सद्योजात आदि पाँचग्नियों के स्वरूप में हो, पाँचक पाँचक करने वाली हो॥१३५॥

**श्लोक १३६:**
यन्त्रलक्ष्मीर्भवत्यादिराद्याद्ये ते नमो नमः ।
सृष्ट्यादिकारणाकारवितते दोषवर्जिते ॥ १३६॥


अनुवाद:
तुम्हारे यंत्र स्वरूप लक्ष्मी, जो सृष्टि आदि कारण है, तुम्हें प्रणाम है! जो सर्वदा दोषरहित, सृष्टि आदि के कारण है॥१३६॥

**श्लोक १३७:**
जगल्लक्ष्मीर्जगन्मातर्विष्णुपत्नि नमोऽस्तु ते । 
नवकोटिमहाशक्तिसमुपास्यपदाम्बुजे ॥ १३७॥


तुम जगत की लक्ष्मी, जगत माता, विष्णुपत्नि, तुम्हारे पादों की पूजा करता हूँ, जिनमें नवकोटि महाशक्तियाँ निवास करती हैं॥१३७॥

**श्लोक १३८:**
कनत्सौवर्णरत्नाढ्ये सर्वाभरणभूषिते ।
अनन्तानित्यमहिषीप्रपञ्चेश्वरनायकि ॥ १३८॥


तुम सोने के कन, रत्नों से भूषित हो, सभी आभूषणों से युक्त हो, अनंत, नित्य, महिषीपति, प्रपञ्चेश्वरी!॥१३८॥

**श्लोक १३९:**
अत्युच्छ्रितपदान्तस्थे परमव्योमनायकि ।
नाकपृष्ठगताराध्ये विष्णुलोकविलासिनि ॥ १३९॥


तुम अत्यंत उच्च पद स्थान पर, परमव्योमनायकि, नाभि और पृष्ठ पर स्थित हो, जो विष्णुलोक में विलास करती हैं॥१३९॥

**श्लोक १४०:**
वैकुण्ठराजमहिषि श्रीरङ्गनगराश्रिते ।
रङ्गनायकि भूपुत्रि कृष्णे वरदवल्लभे ॥ १४०॥


तुम वैकुण्ठराजनीलकान्ति की अवतार हो, श्रीरङ्गनगर में आश्रित हो, रङ्गनायकी, भूपति की संतान, कृष्ण की वरदा और वल्लभा हो॥१४०॥

**श्लोक १४१:**
कोटिब्रह्मादिसंसेव्ये कोटिरुद्रादिकीर्तिते ।
मातुलुङ्गमयं खेटं सौवर्णचषकं तथा ॥ १४१॥

तुम्हें कोटि ब्रह्मादियाँ पूजती हैं, तुम्हारा स्तुति लक्ष्मी, रुद्र आदि द्वारा होती है। तुम्हारे मौन मातुलुङ्गमय खेट हैं, जिनमें सोने का चषक है और सौवर्ण वाहन है॥१४१॥

**श्लोक १४२:**
पद्मद्वयं पूर्णकुम्भं कीरञ्च वरदाभये ।
पाशमङ्कुशकं शङ्खं चक्रं शूलं कृपाणिकाम् ॥ १४२॥

तुम्हारे दो पंजर को पूर्णकुम्भ और कीर प्रकार देने वाले बहुल रूप कहा जाता है। तुम्हारे हाथ में पाश, अङ्कुश, शंख, चक्र, शूल, और कृपाणि हैं॥१४२॥

**श्लोक १४३:**
धनुर्बाणौ चाक्षमालां चिन्मुद्रामपि बिभ्रती ।
अष्टादशभुजे लक्ष्मीर्महाष्टादशपीठगे ॥ १४३॥

तुम्हारे हाथों में धनुष और बाण, चक्र और माला हैं, जिनमें चिन्मुद्रा है। तुम अष्टादश भुजाओं वाली हो, महाष्टादशपीठ में आसीन हो॥१४३॥

**श्लोक १४४:**
भूमिनीलादिसंसेव्ये स्वामिचित्तानुवर्तिनि।
पद्मे पद्मालये पद्मि पूर्णकुम्भाभिषेचिते ॥ १४४॥

तुम्हारी पूजा भूमि, नीला आदि द्वारा की जाती है, तुम्हारी चित्त आश्रय लेने वाली है, तुम पद्मिनी, पद्मालयिनी, पद्मि, पूर्णकुम्भाभिषेचित हो॥१४४॥

**श्लोक १४५:**
इन्दिरेन्दिन्दिराभाक्षि क्षीरसागरकन्यके । 
भार्गवि त्वं स्वतन्त्रेच्छा वशीकृतजगत्पतिः ॥ १४५॥

तुम इन्द्राणी, इन्दिराभाक्षिणी, क्षीरसागरकन्या हो, भार्गवि (पार्वती), तुम्हारी स्वतंत्र इच्छा से जगतपति वशीकृत है॥१४५॥

**श्लोक १४६:**
मङ्गलं मङ्गलानां त्वं देवतानां च देवता ।
त्वमुत्तमोत्तमानाञ्च त्वं श्रेयः परमामृतम् ॥

तुम सभी मङ्गल में मङ्गल, सभी देवताओं की देवता हो, तुम सर्वोत्तमोत्तम में सर्वोत्तम, तुम सर्वश्रेष्ठ में सर्वश्रेष्ठ, परम अमृत में परम अमृत हो॥१४६॥

**श्लोक १४७:**
धनधान्याभिवृद्धिश्च सार्वभौमसुखोच्छ्रया ।
आन्दोलिकादिसौभाग्यं मत्तेभादिमहोदयः ॥ १४७॥

तुम धन और धान्य की वृद्धि, सभी भूतपतियों की सुख उच्छ्रया, आनंद, अन्दोलन, और सौभाग्य की स्वामिनी हो, मेरे मन के महोदया हो॥१४७

**श्लोक १४८:**
पुत्रपौत्राभिवृद्धिश्च विद्याभोगबलादिकम् ।
आयुरारोग्यसम्पत्तिरष्टैश्वर्यं त्वमेव हि ॥ १४८॥

अनुवाद:
तुम ही पुत्रों और पौत्रों की वृद्धि, विद्या, भोग, बल, आयु, आरोग्य, समृद्धि, और अष्टैश्वर्य के साधन हो॥१४८॥

**श्लोक १४९:**
पदमेव विभूतिश्च सूक्ष्मासूक्ष्मतरागतिः । 
सदयापाङ्गसन्दत्तब्रह्मेन्द्रादिपदस्थितिः ॥ १४९॥

अनुवाद:
तुम्हारा पाद ही विभूतियों का सूक्ष्म और अत्यन्त सूक्ष्म रूप है, जो दया से पूर्ण है और जिसमें ब्रह्मा, इन्द्र, आदि देवताएं स्थित हैं॥१४९॥

**श्लोक १५०:**
अव्याहतमहाभाग्यं त्वमेवाक्षोभ्यविक्रमः ।
समन्वयश्च वेदानामविरोधस्त्वमेव हि ॥ १५०॥

अनुवाद:
तुम्हारा महाभाग्य अव्याहत है, तुम्हारी सामर्थ्य और अक्षोभ्य विक्रम स्वरूप है, और तुम्हीं वेदों के समन्वय और अविरोध के कारण हो॥१५०॥

**श्लोक १५१:**
निःश्रेयसपदप्राप्तिसाधनं फलमेव च ।
श्रीमन्त्रराजराज्ञी च श्रीविद्या क्षेमकारिणी ॥ १५१॥

अनुवाद:
तुम्हारी उपासना से निःश्रेयस (अच्छे लाभ) की प्राप्ति होती है और तुम्हारी कृपा से सभी श्रेयों की प्राप्ति होती है। तुम्हीं श्रीविद्या और क्षेमकारिणी हो॥१५१॥

**श्लोक १५२:**
श्रीबीजजपसन्तुष्टा ऐं ह्रीं श्रीं बीजपालिका ।
प्रपत्तिमार्गसुलभा विष्णुप्रथमकिङ्करी ॥ १५२॥

अनुवाद:
जो श्रीबीज के जप में संतुष्ट हैं, जिनके बीज ऐं, ह्रीं, श्रीं हैं, जो प्रपत्ति मार्ग में सुलभ हैं, और जो विष्णु की प्रथम पूजा करने वाली हैं॥१५२॥

**श्लोक १५३:**
क्लीङ्कारार्थसवित्री च सौमङ्गल्याधिदेवता ।
श्रीषोडशाक्षरीविद्या श्रीयन्त्रपुरवासिनी ॥ १५३॥

अनुवाद:
जिनका बीज "क्लीं" है, जो सवितृ, सौमङ्गल्य, और श्रीयन्त्रपुर में वास करने वाली हैं, वह विद्या श्रीषोडशाक्षरी है॥१५३॥

**श्लोक १५४:**
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १५४॥

अनुवाद:
हे सर्वाङ्ग में मंगल करने वाली, हे शिव रूपिणी, हे सर्वार्थ साधने वाली, हे त्र्यम्बक रूपिणी, हे नारायणि, तुम्हें प्रणाम है!॥१५४॥

पुनः पुनर्नमस्तेऽस्तु साष्टाङ्गमयुतं पुनः ।
सनत्कुमार उवाचएवं स्तुता महालक्ष्मीर्ब्रह्मरुद्रादिभिस्सुरैः ।

पुनः-पुनः आपको नमस्कार हो, साष्टाङ्ग प्रणाम हो। सनत्कुमार ने कहा, "इस प्रकार महालक्ष्मी को ब्रह्मा, रुद्र और अन्य देवताओं ने स्तुति की है।"

"नमद्भिरार्तैर्दीनैश्च निस्स्वत्वैर्भोगवर्जितैः ॥ १॥
ज्येष्ठा जुष्टैश्च निश्श्रीकैस्संसारात्स्वपरायणैः ।
विष्णुपत्नी ददौ तेषां दर्शनं दृष्टितर्पणम् ॥
शरत्पूर्णेन्दुकोट्याभधवलापाङ्गवीक्षणैः ।

अनुवाद:
जिनके मन आर्त हैं, जिनकी धन्यता और सुख बाह्य भोगों से मुक्त हैं, जो संसार में निष्काम रहकर अद्वितीय परमात्मा की उपासना करते हैं। ऐसे भक्तों को भगवान विष्णु की पत्नी, महालक्ष्मी ने अपने दर्शन कराए और उनकी दृष्टि से तृप्ति प्रदान की। इस दृष्टि से महालक्ष्मी ने शरद् पूर्णिमा की चंद्रमा के लिए उनके श्वेत और पीले वस्त्रों के साथ उनके दर्शन किए।

""सर्वात्सत्त्वसमाविष्टांश्चक्रे हृष्टा वरं ददौ ॥ ३॥
महालक्ष्मीरुवाचनाम्नां साष्टसहस्रं मे प्रमादाद्वापि यस्सकृत् ।
कीर्तयेत्तत्कुले सत्यं वसाम्याचन्द्रतारकम् ॥ ४॥
किं पुनर्नियमाज्जप्तुर्मदेकशरणस्य च ।"

अनुवाद:
"सभी सत्त्वों में निर्विष्ट होकर, मैंने धन्यता के साथ चक्र अवतारण किया॥ ३॥
महालक्ष्मी ने वचन रूप में कहा: 'मुझसे तीन लाख नामों की जप रूप साधना में प्रमाद से भी जो कोई इसे करता है, उसे मैंने सत्य से युक्त एक पुरुष की जन्म लेने का वरण दिया है, जिस पुरुष के कुल में मैं रहूँगी और उसका नाम चंद्रमा और ताराओं की तरह शोभायमान रहेगा॥ ४॥
फिर यह प्रश्न क्या है कि क्या मुझे एक मात्र शरण लेने वाले की साधना करनी चाहिए?"

"मातृवत्सानुकम्पाहं पोषकी स्यामहर्निशम् ॥ 
मन्नाम स्तवतां लोके दुर्लभं नास्ति चिन्तितम् ।
मत्प्रसादेन सर्वेऽपि स्वस्वेष्टार्थमवाप्स्यथ ॥ ६॥"

अनुवाद:
"मैं मातृभाव से संपन्न हूँ और निरंतर अपने भक्तों की कृपा करती हूँ।
मेरा नाम सुने जाने वालों में इस लोक में दुर्लभ है, और इसकी चिंता की जाती है।
मेरी कृपा से सभी अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करेंगे॥ ६॥"


"लुप्तवैष्णवधर्मस्य मद्व्रतेष्ववकीर्णिनः । 
भक्तिप्रपत्तिहीनस्य वन्द्यो नाम्नां जरापि मे ॥ ७॥
तस्मादवश्यं तैर्दोषैर्विहीनः पापवर्जितः ।
जपेत्साष्टसहस्रं मे नाम्नां प्रत्यहमादरात् ॥
साक्षादलक्ष्मीपुत्रोऽपि दुर्भाग्योऽप्यलसोऽपि वा ।
अप्रयत्नोऽपि मूढोऽपि विकलः पतितोऽपि च ॥ ९॥"


अनुवाद:
"जो व्यक्ति वैष्णव धर्म को छोड़कर मेरी शक्ति में, भक्ति में और प्राप्ति में असमर्थ है, उसका नाम मेरे लिए वंदनीय है, यहाँ तक कि जरा भी॥ ७॥
इसलिए, उन दोषों से मुक्त, पापों से रहित, और पापों के बिना, वह व्यक्ति विशेष है, जो मेरे नामों का साष्टसहस्र जप करता है, प्रतिदिन आदरपूर्वक॥
लक्ष्मीपुत्र हो या दुर्भाग्यशाली, अलस हो या अल्पबुद्धि, विकल हो या पतित, वह शरणागति को प्राप्त हो॥ ९॥"

अवशात्प्राप्नुयाद्भाग्यं मत्प्रसादेन केवलम् ।केवलम्
स्पृहेयमचिराद्देवाः वरदानाय जापिनः ॥ १०॥
ददामि सर्वमिष्टार्थं लक्ष्मीति स्मरतां ध्रुवम् ।ध्रुवम्
सनत्कुमार उवाचइत्युक्त्वाऽन्तर्दधे लक्ष्मीर्वैष्णवी भगवत्कला ॥ ११॥


"जो मेरे प्रसाद से शीघ्र ही भाग्य प्राप्त करते हैं, उन जपकर्ताओं को तुरंत वरदान देने के लिए देवताओं को उत्सुकता से प्रार्थना करनी चाहिए। मैं सब इच्छित वस्तुओं को देता हूं, इसी बात को स्मरण करते हुए तुम यह ध्यान रखो।" - सनत्कुमार ने कहा, इस तरह वैष्णवी लक्ष्मी भगवान विष्णु की शक्ति हैं।"

इष्टापूर्तं च सुकृतं भागधेयं च चिन्तितम् ।चिन्तितम्
स्वं स्वं स्थानं च भोगं च विजयं लेभिरे सुराः ॥ १२॥
तदेतत् प्रवदाम्यद्य तदेतत् लक्ष्मीनामसहस्रकम् ।
योगिनः पठत क्षिप्रं चिन्तितार्थानवाप्स्यथ ॥ १३॥


"इष्टापूर्ति, सुकृत, भाग्य, स्वयं का स्थान, आनंद और विजय - ये सभी देवताएँ प्राप्त करती हैं। आज मैं यह बता रहा हूँ, यह लक्ष्मी सहस्त्रनाम स्तोत्र है। योगी इसे पढ़ते हैं और अपने इच्छित अर्थों को प्राप्त करते हैं।"
गार्ग्य उवाचसनत्कुमारोयोगीन्द्र इत्युक्त्वा स दयानिधिः ।


अनुगृह्य ययौ क्षिप्रं तांश्च द्वादशयोगिनः ॥ १४॥
तस्मादेतद्रहस्यञ्च गोप्यं जप्यं प्रयत्नतः ।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां भृगुवासरे ॥ १५॥
पौर्णमास्याममायां च पर्वकाले विशेषतः ।
जपेद्वा नित्यकार्येषु सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे सनत्कुमारसंहितायां
लक्ष्मीसहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


"उसने उन सब ब्रह्मज्ञानी योगियों को अनुग्रह कर दिया और वे बारह योगियों के साथ चले गए। इसलिए इस गोपनीय रहस्य को प्रयत्नपूर्वक जपना चाहिए। अष्टमी, चतुर्दशी और नवमी के दिनों में और पौर्णिमा और अमावस्या के समय में, विशेषकर पूर्णिमा के समय में, इसे जपना चाहिए। या फिर नित्य कार्यों में भी इसे जपने से सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।"

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