महामृत्युञ्जय सहस्रनाम स्तोत्रम्‌ हिंदी अर्थ सहित

सहस्त्रनाम के पाठ में देवता के विभिन एक हजार नाम हुआ करते हं । इस पाठ को करने से देवता अवश्य ही कृपा किया करते हे । इसे शब्दशः पढ़ा जाता हे ।आधी रात को पूर्ण सावधानी के साथ इसका पाठ करने से सिद्धि कौ प्राप्ति होती है। किसी निर्जन चौराहे या एकुलिंग शिव के सम्पर्क में इसका पाठ करने से सिद्धि प्राप्तन हो, यह एक असम्भव बात हे । प्राण संकटे हो तब इसे पढने से संकट टल जाता हे। इस सहस्रनाम स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करने वाले को अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता तथा अन्य किसी भयंकर रोग से ग्रसित होने की सम्भावना नहीं रहती है ।


महामृत्युञ्जय सहस्रनाम



महामृत्युञ्जय सहस्रनाम स्तोत्रम्‌  Mahamrityunjaya Sahasranama Stotram

भगवान भैरव उवाच: "

अधुना शृणु देवेशि सहस्राख्यं स्तवोत्तमम्‌। 
महामृत्युञ्जयस्यास्य सारात्-सारोत्तमोत्तमम्‌॥

इसका अर्थ है कि हे देवेश! अब आप इस सहस्राक्ष स्तोत्र को सुनें, जो महामृत्युंजय स्तोत्र का अत्यंत उत्कृष्ट है, इसका सार और सारत्तम है।

विनियोगः

अस्य श्रीमृत्युजञ्जयसहस्रनाममन्त्रस्य भरवऋषिः उष्णिक 
छन्दः श्रीमहामृत्युज्ययो देवता ॐ बीजं जं शक्तिः सः कोलकं
चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धय्थं जपे विनियोगः॥"


इसका अर्थ है कि इस श्रीमृत्युजञ्जय सहस्रनाम मन्त्र का ऋषि भरव, छन्द उष्णिक, देवता महामृत्युञ्जय, बीज हैं ओं, जं, शक्ति है सः, कोलकं। इसे चार पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए जपने के लिए यह विनियोग किया जाता है॥

ध्यानम्‌

"उद्यच्चन्द्रसमानदीप्तिममृतानन्देकदेतुं शिवं। 
ॐ जूंसः भुवनेकसृष्टि प्रलयोदभूतेकरक्षाकरम्‌॥ 
श्रीमत्तारदश्ा्णंमण्डिततनुं त्यक्षं द्विबाहुं परम्‌। 
श्रीमृत्युञ्जयमीड्यविक्रमगुणैः पूर्ण हृदल्जे भजे॥"


इसका अर्थ है कि जो अपनी चंद्रमा की तुलना में प्रकाशमान हैं, अमृत और आनंद स्वरूप, एकदेवी का पुत्र, भूत-प्रलय को उत्पन्न करने वाले, ॐ जूंसः शक्तियुक्त हैं, जो सृष्टि, प्रलय, और रक्षा करने वाले हैं। जिनका शरीर सुन्दरता से शोभित है, द्विबाहु, महामृत्युञ्जय महादेव को योग्य मानकर उनकी स्तुति करता हूँ॥

सहस्रनाम प्रारम्भः


ॐ जसः हौ महादेवो मन्त्रज्ञो मानदायकः।
मानी मनोरमाङ्कश्च मनस्वी मानवर्धनः ॥


इसका अर्थ है:
"हे महादेव! आपके इस मन्त्रज्ञ मंत्र का जप करता हूँ, जो मान प्रदान करने वाले हैं। आप मानी हैं, आपके रूप सुंदर हैं, आप मनस्वी हैं, आप मान बढ़ाने वाले हैं॥

मायाकर्तां मल्लरूपी मल्लो मरान्तको मुनिः।
महेश्वरो महामान्यो मन्त्री मन्त्रजनप्रियः॥


इसका अर्थ है:
"आप मायाकर्ता हैं, मल्ल के रूप में अवस्थित हैं, मल्लारी, मरान्तक रूपी मुनि हैं। आप महेश्वर हैं, महामान्य हैं, मन्त्री हैं और मन्त्रजनप्रिय हैं॥

मारुती मरुतां श्रेष्ठो मासिकः पक्षिको मृतः।
मातगंगो मात्तयित्तो मत्तयिन्‌ मत्तभावनः॥


इसका अर्थ है:
"आप मरुतों के श्रेष्ठ हैं, मासिक (महाकाल) हैं, पक्षीकों के स्वामी हैं, मृत्यु हैं। आप मातगंगा हैं, मात्तयित्त (महात्त) हैं, मत्तभावना हैं॥

मानवेष्ठप्रदो मेणो मीनकीपतिवल्लभः।
मानकायो मधुस्तेयी मारयुक्तो जितेन्‌रियः॥


इसका अर्थ है:
"आप मानवों को अभिवृद्धि प्रदान करने वाले हैं, मेणा रूपी हैं, मीनाधिपति वल्लभ हैं। आप मानव शरीर धारण करने वाले हैं, मधुस्तेयी हैं, मारने वाले और इंद्रियों को जितने वाले हैं॥

जयो विजयदो जेता जयेशो जयवल्लभः।
डामरेणो विरूपाक्षो विर्वभक्तो विभावसुः ॥


इसका अर्थ है:
"आप जय और विजय को देने वाले हैं, जयप्रद हैं, जयेश हैं, जयवल्लभ हैं। आप डामरु धारण करने वाले हैं, विरूपाक्ष हैं, विभूतियों को धारण करने वाले हैं, विभावसु हैं॥"

"विश्वेखछो विश्वतातणश्च विश्वस विश्वनायक:।
विनीतो विनयी वादी वान्तदो वाग्भवो बटुः॥।


इसका अर्थ है:
जो सभी दिशाओं को आवृत करता है, विश्वविद और सर्वत्र स्थित है, संसार का निर्माणकर्ता है, वह विश्वनायक है। वह विनीत, विनयी, वादी, वाक्प्रवृत्ति में अद्भुत और बटु है, श्रीकृष्ण का सर्वगुणसम्पन्न स्वरूप है॥

स्थूलः सृक्ष्मश्चलो लोलो ललच्जिह्वाकरालकः।
विराध्येयो विरागीणो विलासी लास्यलालसः॥

इसका अर्थ है:
वह स्थूल, सूक्ष्म, चल, लोल, जिह्वा से विकराल, विराधन को परास्त करने में सक्षम है, विरागी, विलासी, लास्य रूपी और लालसा रहित है॥

लोलाक्षो ललधीर्धनी धनदो धनदार्चितः।
धनी ध्येयोऽप्यध्येयश्च धमो धर्ममयोदयः॥


इसका अर्थ है:
जिसके आंखें चढ़ी रहती हैं, वह लोलाक्षी है, ललने में महान है, धनी है और जिसे धन देने का कारण है, धनदार्चित है। वह धनी है, जिसकी उपासना करने योग्य है, अध्येय है, जिसे जानकर ध्यान करना योग्य है, धर्म से युक्त है और जिसका उदय धर्म में होता है॥"

दयावान्‌ देवजनको देवसव्यो दयापतिः।
दुर्णिचक्षुदरीवासो दाम्भी देवदयात्मकः ॥


इसका अर्थ है:

"जो दयालु है, देवता का जनक है, देवों के सर्वोत्तम हैं,
जो सर्वत्र दया का स्वामी है, जो दुर्णिग्रही है, जिनकी दृष्टि दुर्मिति रूपी है, और जो दम्भ से रहित देवदया का स्वरूप है॥"

कुरूपः कीर्तिदः कान्तः क्लवः क्लीवात्मकः कुजः ।
बुधो विद्यामयः कामी कामकालान्धकान्तकः॥


इसका अर्थ है:

"जो कुरूप है, कीर्ति को देने वाला है, सुंदर है, क्लांतिमय है, जिसका स्वभाव क्लीवात्मक है, कुज ग्रह का स्वामी है।
जो बुद्धिमान है, विद्या से परिपूर्ण है, कामी है, जिसका समय कामकाल और अंधकार को नष्ट करने का है॥"

जीवो जीवप्रदः श॒क्रः शुद्धः शर्मप्रदोऽनघः।
रानैर्चरो वेगगतिर्वाचालोराहुरव्ययः ॥


इसका अर्थ है:

"जो जीवन को प्रदान करने वाले हैं, जीवों को उत्तेजने वाले हैं, इन्द्र हैं, शुद्ध हैं, शरण देने वाले हैं, पापरहित हैं।
जो युद्ध में चरने वाले हैं, उनकी गति अत्यंत तेज़ है, वाचा में स्थिर हैं, राहु ग्रह का स्वामी हैं, अव्यय हैं॥"

केतु राकापतिः कालः सू्योऽमतपराक्रमः।
चन्द्रो भद्रप्रदो भास्वान्‌ भाग्यदो भर्गरूपभृत्‌॥


इसका अर्थ है:

"जो केतु ग्रह के स्वामी हैं, राका के पति हैं, काल हैं, सूर्य के अत्यंत शक्तिशाली हैं।
चंद्रमा हैं, भद्र प्रदाने वाले हैं, भास्वत हैं, भाग्य को प्रदान करने वाले हैं, भर्गरूपी और भृति रूप में स्थित हैं॥"

कूर्तो धूर्तो वियोगी च संगी गंगाधरो गजः।
गजाननोप्रेयो गीतो ज्ञानी स्नानार्चनः प्रियः॥
परमः पीवरांगश्च पार्वतीवल्लभो महान्‌।
परात्मको विराटूवास्यो वानरोऽमितकर्मकृत्‌॥।


इसका अर्थ है:

"जो धूर्त है, वियोगी है, संगी से रहित है, गंगाधर और गजानन को बहुत अच्छे से जानते हैं।
जो गजानन के प्रिय हैं, गाना रत हैं, ज्ञानी हैं, स्नान और आराधना को प्रिय मानते हैं।
जो परम हैं, पीवरांग हैं, पार्वती के पति हैं, महान हैं।
जो परात्मा हैं, विराट स्वरूप में स्थित हैं, वानर हैं और अमित कर्म करने वाले हैं॥"

चिदानन्दी चारूरूपो गरुडो गरुडप्रियः।
नन्दीश्वरो नयो नागो नागालद्धारमण्डितः॥।
नागहारो महानागी गोधरो गोपतिस्तपः।
त्रिलोचनः त्रिलोकेशः त्रिमूर्तिस्त्रिपुरान्तकः ॥


इसका अर्थ है:

"जो चिदानंद स्वरूप हैं, चारुरूप और गरुड़ के प्रिय हैं।
नंदीश्वर हैं, नयने रखने वाले हैं, नाग हैं, जो नागों को अलंकृत करने वाले हैं॥
जो नागहार हैं, महानागिनी हैं, गोधर हैं, गोपति हैं और तपस्वी हैं।
त्रिलोचन हैं, त्रिलोकेश्वर हैं, त्रिमूर्ति हैं और त्रिपुरान्तक हैं॥"

त्रिधामयो लोकमयो लोकेकव्यसनापहः।
व्यसनी तोषितः ङम्भुस्त्रिधारूपस्त्रिवर्णभाक्‌ ॥
त्रिज्योतिस्त्रिपुरीनाथस्तरिधाशान्तस्त्रिधागतिः ।
त्रिधागुणी विश्वकर्ता विश्वभरतां त्रिपुरुषः॥


इसका अर्थ है:

"जो तीनों लोकों में विराजमान हैं, लोकों को व्यापक करने वाले हैं, व्यसनों को दूर करने वाले हैं।
जो व्यसनों को प्रसन्न करने वाले हैं, गम्भीर हैं, त्रिधारा रूप में स्थित हैं, त्रिवर्णरूपी हैं॥
त्रिज्योतिरूपी हैं, त्रिपुरीनाथ हैं, तारिणी हैं, त्रिधाशान्त हैं, त्रिधागति हैं।
त्रिधागुणी हैं, विश्वकर्ता हैं, विश्वभरता हैं और त्रिपुरुष हैं॥"

उमे्ो वासुकिर्वीरो वैनतेयो विचारकुत्‌।
विवेकाक्षो विशालाक्षो विधिर्विधिरनुत्तमः॥
विद्यानिधिः सरोजाक्षी निस्मरः स्मरशासनः।
स्मृतिदः स्मृतिमान्‌ स्मातों ब्रह्मा ब्रह्मविदाम्बरः॥


इसका अर्थ है:

"जो उमा के पति हैं, वासुकि के स्वामी हैं, वीर हैं, वैनतेय हैं, विचार करने वाले हैं।
जो विवेकी हैं, बड़े आँखों वाले हैं, विधिर्विधिरनुत्तम हैं॥
जो विद्या के सागर हैं, सरोजाक्षी हैं, स्मरण रहित हैं, स्मरशासन हैं।
जो स्मृति को देने वाले हैं, स्मृतिमान हैं, स्मातों के पति हैं, ब्रह्मा के पति हैं, ब्रह्मविदाम्बर हैं॥"


ब्राह्मी व्रती ब्रह्माचारी चतुरश्चतुराननः।
चलाचलो चलगतिर्वेगी वीराधिपो परः॥
सर्ववासः सर्वगतिस्सर्वमान्यः सनातनः ।
सर्वव्यापी सर्वरूपः सागरश्च समेरुवरः॥


इसका अर्थ है:

"जो ब्राह्मी व्रत में रत हैं, ब्रह्मचारी हैं, चार वचनों वाले हैं, चतुर चारणों वाले हैं।
जो चल-अचल रूपी हैं, चलने-फिरने वाले हैं, तेज से युक्त हैं, वीरों के प्रभु हैं॥
जो सभी स्थानों में विराजमान हैं, सर्वगति हैं, सर्वमान्य हैं, सनातन हैं।
जो सर्वव्यापी हैं, सर्वरूपी हैं, समुद्र जैसे विशाल हैं और मेरु पर्वत के समान ऊँचे हैं॥"

समनेत्रः समद्युति समकायः सरोवरः।
सरस्वान्‌ सत्यवाक्‌ सत्यः सत्यरूपी सुधीः सुखी ॥
स्वारादट्‌ सत्यः सत्यवती रुद्रो रुद्रवयपुर्वसुः।
वसुमान्‌ वसुधानाथो वसुरूपा वसुप्रदः॥


इसका अर्थ है:

"जो सम-नेत्र, सम-द्युति, सम-काय हैं और सरोवर में निवास करते हैं।
जो सरस्वती के पति हैं, सत्यवाक्‌ हैं, सत्य हैं, सत्यरूपी हैं, सुधी हैं और सुखी हैं॥
जो स्वारा नाद में विराजमान हैं, सत्य हैं, सत्यवती हैं, रुद्र हैं, रुद्रवयपु गोत्र के हैं।
जो वसु के समान हैं, वसुधा के नाथ हैं, वसुरूपी हैं और वसुप्रद हैं॥"

ईशानः सर्वदेवानामीज्ञानः सर्वबोधिनाम्‌।
ईशो वशेषो वयवी शोषशायी श्रीयः पतिः॥
इन्द्रश्चन्द्रवतंसी च चराचरजगत्पति।
स्थिरः स्थाणुरणुः पीनः पीनवक्चापरात्परः॥


इसका अर्थ है:

"जो सभी देवताओं का ईश्वर है, सभी बुद्धिमताओं का ज्ञान है।
जो सभी को वश में करने वाले हैं, वायुरूपी हैं, आपने भक्तों को शोक हरने वाले हैं, श्रीपति हैं॥
जो इंद्र और चंद्रमा के समान हैं, सम्पूर्ण चराचर जगत के पति हैं।
जो स्थिर, स्थाणु, पीन (विष्णु), पीनवक्ता (गरुड़) के परायण हैं और सबसे परम शक्तिमान हैं॥"

पीनरूपो जटाधारी जटाजूटसमाकुलः।
पशुरूपः पशुपतिः पशुज्ञानी पयोनिधिः ॥
वेद्यो वेद्योवेदमयो विधिक्ञो विधिमान्‌ मृदुः।
शूली शुभट्धरः खणोभ्यः शुभकर्तां शचीपतिः ॥


इसका अर्थ है:

"जो पीनरूपी है, जटाधारी है, जटाजूटों से युक्त है।
जो पशुरूपी है, पशुपति है, पशुओं को जानने वाले हैं, पयोनिधि (क्षीरसागर) है॥
जो वेद्य है, वेद्यों का सार है, विधिवत्ता में पूर्ण ज्ञानी है, विधिवान है, मृदु (कोमल) है।
जो शूल धारी है, शुभट धारी है, खड़ग को धारण करने वाले हैं, शुभकर्ता हैं और शचीपति हैं॥"

शशाङ्कधवलः स्वामी वच्रीशद्लवी गदाधरः ।
चतुर्भुजञ्चाष्ट भुजः सहस्रभुजमण्डितः ॥
स वहस्तो दीर्घको दीर्घो दम्भविवर्जितः।
देवो महोदधिर्दिव्यो दिव्यकोरतिं्दिवाकरः ॥


इसका अर्थ है:

"जो चंद्रमा के समान हैं, धवल (श्वेत) रंग के स्वामी हैं, वच्रीशद्ल (वच्रीसद्दल) रंगवाले हैं, गदाधर हैं।
जिनके चार हाथ हैं और जिनके आठ हाथ हैं, सहस्राक्ष (बहुसहस्र) भुजा वाले हैं॥
जिनका एक हाथ बड़ा और दीर्घ है, और जो धृति को छोड़कर है।
जो देवताओं के महोदधि हैं, दिव्य हैं, दिव्यकोटि को ताकरीवाले हैं, दिवाकर (सूर्य) के समान हैं॥"

उग्ररूपश्चोग्रपतिरुग्रवक्षास्तपोमयः ।
तपस्वी जटिलस्तापी तापहा तापवर्जितः॥
टरिद्धयो हयपतिर्हयदो हरिपण्डितः।
हरिवाटी मद्द्यूस्को नित्यो नित्यात्मको नलः ॥


इसका अर्थ है:

"जो भयंकर रूपवाले हैं, उग्रवक्षा (भयंकर वक्षस्थल) वाले हैं, तपोमय हैं।
तपस्वी हैं, जटिल (जटाधारी) हैं, तापी (तपस्या में रत) हैं, जो तापों को हरने वाले हैं॥
हयपति हैं, हयद (अश्वद) हैं, हरिपण्डित (विष्णु के ज्ञानी) हैं।
हरिवाटी हैं, मद्द्यूस्क (मदिरा पीने वाले) हैं, नित्य (सदा) हैं, नित्यात्मा हैं, नल (वायुपुत्र) हैं॥"

समानीसंसूतीस्त्यागी सङ्धी सनिधिरव्ययः।
विद्याधरो विमानी चय वैमानीकवरप्रदः ॥


(इसका अर्थ है: जो समानता में सुशिक्षित, धर्म का पालन करने वाला, संधियों का प्रिय, सनिधिरहित, विचारों को समर्थ, विमानों को पालने वाला, शत्रुओं का विनाश करने वाला और विमानों का वरदान देने वाला है।)

वाचस्पतिवमासारो लामाचारी त्रलन्धरः।
वाग्भवो वासवो वायुर्वासनानीजमण्डितः ॥


(इसका अर्थ है: जो बृहस्पति के समान बुद्धिमान, कर्मवान, लालित्यपूर्ण, आलसी का नाश करने वाला, ब्रह्मा के समान अधिक बुद्धिमान, इन्द्र के समान तेजस्वी, वायु के समान धैर्यवान और वासनाओं का अभिमंत्रित है।)

वाग्मी कोलशुति, दक्ष, दक्षयस्नविनाङानः।
दक्षो दोर्भाग्यहा, दैत्यमर्दनो भोगवर्धनः॥


(इसका अर्थ है: जिसकी वाक्कुशलता अद्भुत है, जो सकामी होने पर भी उदार है, जो सभी मुद्दों को सुलझा सकता है, जो अपने योग्य आत्मा का संस्कार करता है, जो सम्पूर्ण दुर्भाग्य को हरता है, जो दैत्यों को नष्ट करने वाला है, और जो समृद्धि देने वाला है।)

भोगी रोगहरो, योगी हारी हरिविभूषणः।
बहुरूपो बहुमति, वङ्कवित्ती विचक्षणः॥


(इसका अर्थ है: जो सुखी होता है और रोगों को दूर करता है, जो योगीश्वर है और सबको हराता है, जो हरि की आभूषण है, जो बहुरूपी है, बहुमति वाला है, और जो वङ्कवित्ती (अद्भुत वित्त) है और बहुविधा के ज्ञान में निपुण है।)

नतकृच्चित्तसंतोषो नृत्यगीतविशारदः।
शरदर्णविभूषाढ्यो गलदग्धोऽघनाशनः ।
नागी नागमयोऽनन्तोऽनन्तरूपः पिनाक भृत्‌।
नटलो नारकेशानो वरीयान्‌ विविवर्णभृत ॥।
साद्करो टद्कृहस्तश्च पाशी शाखां शशिप्रभः।
सहसखरूपी समगुः साधुनामभयप्रदः ॥
साधुवेव्यः साधुगतिः सेवाफलप्रदो विभुः।
स्वमहो मध्यमो मत्तो मन्त्रमूतिं सुमन्तकः॥
कोलालीलाकरो लूतो भववन्धेकमोचनः।

रेचिष्णार्विच्युरतो मूतनो नूतनो नवः॥

(इसका अर्थ है: जिनका मन कभी चिंतामुक्त नहीं होता, जो नृत्य और गायन में प्रवीण है, जो शरद ऋतु की भूषा से युक्त है, जिसका गल मिला हुआ है और अहना नाशन शिव है। जो नागराज शेष है, जिसका स्वरूप अनंत है, पिनाक धारी है, जो नटराज है, जो नरक के स्वामी है, जो विविध रूपों में विभूषित है। जो सात्विक स्वभाववाला है, जो गृहस्थ के हाथ में पाश धारण करता है, जिसकी शाखाएं चंद्रमा के समान हैं, जो सहस्रशिरा ब्रह्मा के समान है, जो सजग रूप में है और भगवान की सेवा करने वाले को भयमुक्ति प्रदान करता है। जो साधुओं के लिए ही अद्वितीय है, जो साधुगति में स्थित है, जो सेवा के फल को प्रदान करने वाला है, जो अपनी महिमा में स्वयं महान है, जो धरती में समय में भववंधन को मोक्ष करताहै, जो अग्निकुंड का मोचन करता है, जो अग्निनी से उत्पन्न होने वाला है, और जो नूतन और नवीन है।)

न्यग्रोधरूपो भयदो भयहारीतिधारणः।
धरणीधरसेव्य्च धराधरसुतापतिः॥
धराधरोऽन्धकारिपुरविज्ञानी मोहवर्जितः
स्थाणुः केशो जटी ग्राम्यो ग्रामारामो रमाप्रियः॥
प्रियकृत्‌, प्रियरूपश्च विप्रयोगी प्रतापनः।
प्रभाकरः प्रभादीप्तो पनुमान्‌ मानवेरुवरः॥


(इसका अर्थ है: जो नगर रूपी भूषा से युक्त है, भय को दूर करने वाला है, धराधरी भूमि के सेव्य है, धराधरी पर्वतराज है। जो अंधकारी पुरुषोत्तम है, विज्ञानी है, मोह से रहित है। जो स्थूलरूप में स्थायी है, जटाधारी है, ग्राम्य है, ग्रामाराम के प्रिय है। प्रियकृत्‌ और प्रियरूप भी हैं, विप्रयोगी है, प्रतापशाली है, प्रभाकर है, प्रभा को देने वाला है, पनुमान्‌ है, मानवों के उत्कृष्ट हैं।)

तीक्ष्ण लाहुस्तीक्ष्णकरस्तीक्ष्णांशुस्तीक्ष्णलोचनः ।
तीक्षणचित्तस्त्रयीरूपस्त्रयीमूर्तिस््रयीतनुः ॥
हविभग्‌ हविषां ज्योतिर्हालाहलो हलीपतिः।
हविर्मल्लोचनो हालामयो हरिणरूपभृत्‌॥
प्रदिमाप्रभयो वृक्षो हताशो हतभग्‌ गुणी।
गुणस्ञो गरुडो गानतत्परो विक्रमी गुणी ॥


(इसका अर्थ है: जिसकी तेज़ अत्यन्त तीक्ष्ण है, जो लाहुस्वरूप है, जिनकी किरणें तीक्ष्ण हैं, जिनकी आँखें तीक्ष्ण हैं, जिनका मन तीक्षण है, जो त्रयी रूप में है, जो त्रयीमूर्ति सरस्वती का संदर्भ करता है। हविभागी, हविषा से संपन्न है, ज्योति स्वरूप है, हालाहल से भरा हुआ है, हलीपति है। हविर्मान्‌, मल्लोचन शिव, हालामय, हरिणरूपधारी। प्रदिमान, प्रभा रूप, वृक्ष, हताश, हतभग्न, गुणी, गरुड रूपी, गानतत्पर, विक्रमी और गुण से संपन्न है।)

क्रमेञ्वर क्रमकरः क्रिमिकृत्‌ क्लान्तमानसः।
महातेजो महामारी मोहितो मोहतल्लभः॥
मनस्वी त्रिदश्लोवालो वाल्यापतिरघापहः ।
बाल्यो रिपुहरो हार्यो गविर्गविमतोगुणः॥
सगुणो वित्तराट गीयो विरोचनो विभावसुः ।
मालामलो माधवश्च विकर्तनो विकत्थनः॥


(इसका अर्थ है: क्रमें समयी, क्रमकरणशील, कीटकर्मकर्ता, क्लांतमानस, महातेजस्वी, महामारीरहित, मोहित, मोहतल्लभ, मनोबलवान, त्रिदशगणोंको वशमें करने वाला, वाल्यपति, अघक्षयकर्ता, बाल्यकाल में ही विजयी, रिपुहरण करने वाला, हार्य (विजयी), गविर्गवि के रूप में मान्य, सगुण, वित्तराट (धन संपन्न), गीयमान (गीता सुनाने वाला), विरोचन (सूर्य), विभावसु (अग्नि), मालामाल (मणि से भूषित), माधव (कृष्ण), विकर्तन (अकर्ता), विकत्थन (अकथित).)

मानकृत्‌ मुक्तिद गुल्यः साध्यः शत्रुभयड्भुरः।
हिरण्यरेताश्॒भगः सतीनाथः सुरापतिः॥
मेदी मैनाक भगिनीपतिरुत्तमरूप्रभृत्‌।
अदित्यो दितिजेश्ानो दितिपुत्रः क्षयद्धरः॥
वासुदेवो महाभाग्यो विश्वावसुर्वप्रियः।
समुद्रोऽमिततेजख्च खगेन्द्रो विशिखी शिखी ॥


(इसका अर्थ है: मानवों के मन का कर्ता, मुक्ति प्रदाता, गुल्यः (बाण) को मुक्ति देने वाला, साधने वाला, शत्रुओं का भय दूर करने वाला, हिरण्यरेता (सूर्य) के अश्व में वास करने वाला, सतीका पति, सुरपति, मेदिनी का स्वामी, मैनाका की भगिनी के पति, उत्तमरूपधारी, हिरण्यशिरा (शुक्राचार्य) के पुत्र, क्षयद्धर (महाविष्णु), वासुदेव, महाभाग्यशाली, विश्वावसु पर प्रिय, समुद्र, अमिततेजशाली, खगेन्द्र (गरुड़), विशिखी (अग्नि), शिखी (सोम).)

गरुत्मान्‌ वज्रहस्तश्च, पौलोमीनाथ ईर्वरः।
यज्ञिपेयो वाजपेयः, शतक्रतुः शताननः॥
प्रतिष्ठस्तीव्रविसखम्भी, गम्भीरो, भाववर्धनः।
गायिष्टो मधुरालापो, मधुमत्तश्च, माधवः॥
मायात्मा भोगिनां त्राता, नाकिनापिष्टदायकः।
नाकेच्रो जनको जन्यः, स्तम्भनो, रम्भनारशनः॥


(इसका अर्थ है: गरुत्मान और वज्रहस्त हैं, पौलोमीनाथ है, वह यज्ञिकोपवीतधारी, वाजपेय यज्ञ में प्रयुक्त, शतक्रतु, शतानन रूपी हैं। वह बहुतीव्र, अध्युत्तम और गम्भीर है, भाववर्धन, मधुर वाणी वाला, मधुमत्त, माधव, मायात्मा, भोगिनां त्राता, नाकिनापिष्टदायक, जनक, जन्य, स्तम्भन, रम्भनारशन हैं।)

ईशान ईश्वरः ईशः शर्वरीपतिशोररः।
लिङ्गाध्यक्षः सुराध्यक्षो वेदध्यक्षो विचारकः॥
भव्योऽनर्घो नेशानो नरकान्तकसेवितः।
चतुरो भविता भावी विरामो रत्रिवल्लभः॥
मंगलो धरणीपुत्रो धन्यो बुधिविवर्धनः।
जयो जीवेष्वरो जारो जाठरो जहतापनः॥


(इसका अर्थ है: ईशान, ईश्वर, ईश, शर्वरीपति, शोरर रूपी हैं। वे लिङ्गाध्यक्ष, सुराध्यक्ष, वेदध्यक्ष, विचारक हैं। वे भव्य, अनर्घ, नेशा को धारण करने वाले हैं, नरक का अन्त करने वाले हैं। वे चतुरों को भविता, भवी, विराम, रात्रि के भक्त हैं। मंगल, धर्मपुत्र, धन्य, बुद्धि को बढ़ाने वाले, जीतने वाले, जीवन के स्वामी, जगत का जारा, जाते हुए दुःख को नष्ट करने वाले हैं।)

जहकन्याधरः कल्पो वत्सरो मास एव च।
कतुरकरभुसुताध्यक्षो विहारी विहगापतिः॥
शुक्लाम्बरो नीलण्ठः शुक्लभृगुसुतो भगः।
शान्तः शिवप्रदो भव्यो भेदकुच्छान्तकृत्पतिः॥
नाथो दातो भिक्षुरूपो धन्यश्रेष्ठो विश्ञाम्पतिः।
कुमारः क्रोधनः क्रोधी विरोधी विग्रहीरसः॥


(इसका अर्थ है: जहकन्या के धारण करने वाला, कल्प, वत्सर, मास हैं। चतुरकरभु सुत के अध्यक्ष, विहारी, विहगपति हैं। वे शुक्लवस्त्रधारी, नीलकण्ठ, शुक्लभृगु के सुत, शान्त, शिवप्रद, भव्य, भेदकुच्छान्तकृतपति हैं। वे नाथ, दाता, भिक्षुरूप, धन्य, विश्ञाम्पति हैं। वे कुमार, क्रोधन, क्रोधी, विरोधी, विग्रही, रसवान हैं।)

नीरसः सुरसः सिद्धो वृषणी वृषघातनः।
पाञ्चास्यः षडद्मुखश्चैव विमुखः सुमुखी प्रियः ॥
दुर्मुखो दुर्जयो दुःखी सुखी सुखविलासदः।
पात्री पौत्री पवित्रच् भूताक्ता पूतनान्तकः॥
अक्षरं परमं तत्त्वं . बलवान्‌ बलघातनः।
भल्ली मोलिभवाभावो भावाभावविमोचनः॥


(इसका अर्थ है: नीरस, सुरस, सिद्ध, वृषणी, वृषघातन हैं। पाञ्चास्य, षडद्मुख, विमुख, सुमुखी, प्रिय हैं। दुर्मुख, दुर्जय, दुःखी, सुखी, सुखविलासी, पात्री, पौत्री, पवित्रच, भूतक्ता, पूतनान्तक हैं। अक्षर, परम तत्त्व, बलवान, बलघाती, भल्ली, मोलिभवा, भावो, भावाभावविमोचन हैं।)

नारायणो . युक्तके्ो दिग्देवो धर्मनायकः।
कारामेक्षप्रदो जेयो महांगः सामगायनः॥
उत्संगमोनामकारी चारी स्मरनिषूदनः ।
कृष्णः कृष्णाम्बरः स्तुत्यस्तारावर्णस््रयाकुलः॥
त्रयामान्दुर्गतित्राता दुर्गमो दुर्गघातकः।
महानेत्रो महाधाता नानाशास््रविचक्षणः ॥


(: इसका अर्थ है: नारायण, युक्तकेवल, दिग्देव, धर्मनायक हैं। कार्यों का एक्षण देने वाले, जितने योग्य हैं, सम्मानीय हैं, सामगानकारी हैं। उत्सवों को नामांकरण करने वाले, चारी, स्मरण करने वाले, कृष्ण, कृष्णाम्बर, स्तुतियों के अवतार, स्तारावलि से परिपूर्ण हैं। त्रायक त्रिदुर्गा की गति हैं, दुर्गमा हैं, दुर्ग को संहारक हैं, विशाल नेत्र और विशेषज्ञ हैं।)

महामूर्धा महादन्तो महाकर्णो महोरगः।
महाच्षुर्महानाशो महाग्रीवो दिगालयः॥
दिग्वासो दितिजेशणानो मुण्डी मुन्डाक्षासूत्रधत्‌।
स्मजाननिलयो रागी महाकटिरनूतनः ॥
पुराणपुरुषः पारम्परमात्मा महाकरः ।
महालस्यो महाकेशो महेशो मोहनो विराट्‌ ॥


(Note: इसका अर्थ है: वह जिनका मूर्धन महान है, दांत बड़ा है, कर्ण बड़ा है, नाग रूपी विष्णु, बड़ी चारी और बड़ी आंखों वाला है, सब दिशाओं में वास करने वाला है, दिग्वासु है, दितिजननाशक है, मुण्डी धारी है, मुन्डाक्षी है, सूत्रधारी है, स्मरणीय है, रागी है, महाकटि है, अनूतन है, पुराणों का पुरुष है, परमात्मा है, महाकर है, महालसी है, महाकेश है, महेश है, मोहन है, विराट्‌ स्वरूप है।)

महासुरो महाजंघो मण्डली कुण्डली नटः।
असपल्यः पत्रकरः मत्रहस्तश्च पाटवः॥
लालसः सालसः सालः कल्पवृक्षश्च कल्पितः ।
कल्पहा कल्पनाहारी महाकेतुः कटोरकः ॥
अनलः पवनः पाठः पीटस्थः पीठरूपकः।
पाठीनः कलशी पीनो मेरुधामा महागुणी॥


(Note: इसका अर्थ है - वह असुर जिसके शरीर में बड़े पैर हैं, कुण्डलीयुक्त है, मण्डली धारी है, पत्रकों से युक्त है, मन्त्रहस्त है, पाटवा धारी है, लालसी है, सालसी है, साली है, कल्पवृक्ष के समान है, कल्पना करने वाला है, कल्पहारी है, महाकेतु है, कटोरा धारी है, अनल (अग्नि) है, पवन (वायु) है, पाठक है, पीट (कीटपथ) स्थित है, पीठ रूपी है, पाठीन है, कलशी है, पीने वाला है, मेरुधामा में स्थित है, महागुणों से युक्त है।)

महातूणीरसंयुक्तो देवदानवदर्पहा ।
अथर्वशोषः सोम्यास्य ऋक्सहस्रामितेक्षणः ॥
यजुः साममुखो गुह्यो यजुवेदविचक्षणः।
याक्ञिको यज्ञरूपश्च यज्ञस धरणीपतिः ॥
जगमी भंगदी भासा दक्षा भिगमदर्णनः।
अगम्यः सुगमः खर्वः खेटी खेटाननो नयः॥


(Note: इसका अर्थ है - जो महातूणी (बड़े बाणों) से युक्त है, देवताओं और दानवों के गर्व को नष्ट करने वाला है, अथर्ववेद का उद्धारक है, सोम के सहस्रों ऋक्सहित है, यजुर्वेद और सामवेद के प्रमुख है, यजुर्वेद का मुखद्वार है, गुह्य है, यजुवेद का अद्भुत ज्ञान रखने वाला है, याज्ञिक और यज्ञरूप है, यज्ञ का धारणीपति है, जगत्‌ में भ्रमण करने वाला है, भंगदी (भंग करने वाली) है, भासा (वाणी) में शक्तिमान है, दक्षा (कुशलता) है, भिगमदर्णन (शुभ लक्षणों का दर्शन कराने वाला) है, अगम्य (अगम्य रूप से) है, सुगम (सुगम्य रूप से) है, खर्व (कठिनाईयों को धरने वाला) है, खेटी (अच्छे कार्यों को धारण करने वाला) है, खेटानन (कार्यों को सुन्दर धारण करने वाला) है, नयक है।)

अमोद्यार्थः सिन्धुपति;ः सैन्धवः सानुमध्यगः।
त्रिकालज्ञः सगणकः पुष्करस्थः परोपकृतः॥
उपकर्तापकर्ता, दघणी रणभयप्रदः।
धर्मों चर्माम्बिरश्चाररूमश्चरुविभूषणः ॥
नक्तञ्चरः कालवशी वशीवशिवो वशः।
वश्यो वश्य-करो भस्मशायी भस्म-विलेपनः॥


(Note: इसका अर्थ है - जो समुद्रराज (सिन्धुपति) का अमोद करने वाला है, सैंधव (सिन्धु) है, समुद्र के मध्यभाग में स्थित है, तीनों कालों का ज्ञानी है, सगणक (सह गणना करने वाला) है, पुष्कर में विराजमान है, परोपकारी है, जो कर्मों का करने वाला और न करने वाला है, दघणी है (अग्नि के समान) और युद्ध के भय को दूर करने वाला है, धर्म (नीति) का पालन करने वाला है, चर्माम्बर (तिलक, यज्ञोपवीत, धारणी) धारण करने वाला है, रूमश्चरु (सागर की ऊंचाई पर रहने वाला) है, विभूषित है, नक्तञ्चर (रात्रि में चलने वाला ग्रह) है, कालवशी (काल की वशीभूत) है, वशी (वशीकरण करने वाला) है, वशिवः (वशी को सन्तुष्ट करने वाला) है, वशः (वशी विषय) है, वश्यो (अन्य वशी है) है, वश्य-करो (अन्यों को वशीभूत करने वाला) है, भस्मशायी (भस्मीभूत होकर शयन करने वाला) है, भस्म-विलेपनः (भस्म और चन्दन लगाने वाला) है।)

भस्मांगी मलिनांगण्च माला-मण्डित-मूर्धजः।
गणकाद्मः कुलाचारः सर्वाचारः सखा समः॥
मकारो गोत्रभिद्‌ गोप्ता भीतरूपो भयानकः।
अरूणश्चेक-वित्तज्च त्रिशंकु शंकु-धारणः॥


(Note: इसका अर्थ है - जिसके आंगे भस्मा का संग है, मलिन अंगों वाले हैं, मूकुट से भूषित हैं, गणराज के आदम्य (अत्यन्त उच्च गुणवत्ता वाले) हैं, कुलाचार में परिपूर्ण हैं, सर्वाचार (सभी आचार) में श्रेष्ठ हैं, सखा (मित्र) हैं और समान हैं। मकार है, गोत्र का ज्ञाता है, गोप्ता (रक्षक) है, भीतरूप है, भयानक है, अरूण है, वित्तज (धनवान) है, त्रिशंकु है, शंकु-धारण है।)

आश्रयी ब्राह्मणो व्री श्त्रियः कार्य-हेतुकः।
वैश्यः शूद्रः कपोतस्थ त्वारुष्टो रुषाकुलः॥
रोगी रोगपहा शूरः कपिलः कपिनायकः।
पिनाको चाष्टमूर्तिश्च क्षितिमान्‌ धृतिमांस्तथा॥
जलमूरतिर्वायुमूर्तिः गताशः सोममूर्तिमान्‌।
सूर्यदेवो यजमान आकाशः परमेश्वरः ॥


(Note: इसका अर्थ है - ब्राह्मण आश्रयी है, क्षत्रिय कार्य के हेतु, वैश्य शूद्रों के बीच स्थित है, शूद्र कपोतस्थ है और रुषाकुल में है। रोगी रोग को हरने वाला है, शूर है, कपिल महर्षि का साक्षात्‌ स्वरूप है, पिनाकी शिव का स्वरूप है, आष्टमूर्ति है, क्षितिमान है, धृतिमान है। जल मूर्ति है, वायु मूर्ति है, गताश है, सोम मूर्ति है, सूर्यदेव यजमान है, आकाश मूर्ति है, परमेश्वर है।)

भवहा भवमूर्तिश्च भूतात्मा भूतभावनः ।
भवः सर्वस्तथारुद्रः पशुनाथश्च शंकर॥
गिरिजो गिरिजानाथो गिरिन्द्रश्च महेशवरः।
भीम ईजान भीतिज्ञः खण्डपञ्चण्डविक्रमः॥
खण्डभृत्‌ खण्डपशुः कृत्तिवासो वृषापहः।
कंकाल कलनाकारः श्रीकण्ठो नीललोहितः॥


(Note: इसका अर्थ है - वह जो सबका भवन है, भूतों का आत्मा है, भूतभावन है, सबका उत्पत्ति-स्थान है, सर्वत्र विराजमान है, उड़वारुद्र है, सभी पशुओं का स्वामी है, शंकर है, पार्वती के पति है, हिमाद्रि जी का स्वामी है, गिरिराज है, गिरिनाथ है, महादेव है, भीम है, ईजा के पति है, भीतिज्ञ है, खण्डपञ्चण्डविक्रम है, खण्डभृत्‌ है, खण्डपशु है, कृत्तिवास है, वृषापह है, कंकाल कलनाकार है, श्रीकण्ठ है, नीललोहित है।)

गुणीश्वरो गुणी नन्दी धर्म्मराजो दुरन्तकः।
शरुगरीटी रसासारी दयालु रूपमण्डितः
अमृतः कालरुद्रश्च कालाग्निः शशिशोखरः।
त्रिपुरान्तक ईशानस्त्रिनेत्रः पञ्चवक्त्रकः ॥
कालहत्‌ केवलात्मा च ऋग्यजुः सामवेदवान्‌।
ईशान सर्वभूतानामीश्वरः सर्व-रक्षसाम्‌॥


(Note: इसका अर्थ है - गुणों के स्वामी, गुणों का आनंदकर्ता, धर्मराज, दुर्योधन का संहारकर्ता, शर-धनुर्वान्‌, रस-विग्रहकर्ता, दयालु, सुंदररूपधारी, अमृत, कालका संहारकर्ता, कालाग्नि, शशिशोभा सहित, त्रिपुरान्तक, ईशान, त्रिनेत्री, पञ्चवक्त्री, कालहंता, केवलात्मा, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद का ज्ञाता, ईश्वर, सम्पूर्ण रक्षसों का स्वामी।)

ब्रह्मणाधिपतिर्बहया ब्रह्मणोधिपतिस्तथा।
ब्रह्मा शिवः सदानन्द सदानन्दः सदाशिवः ॥
मेषस्वरूपश्चावगि गायत्री-रूप-धारणः।
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतराय च॥
सर्वतः सर्वसर्वैभ्यो नमस्ते रुद्ररूपिणे।
वामदेवस्था ज्येष्ठः श्रेष्ठः कालकरालकः॥


ब्रह्मणाधिपति हैं जो ब्रह्मा के स्वामी हैं, और ब्रह्मा भी शिव हैं और सदा आनंदरूप हैं, सदाशिव हैं। मेषरूपी भी हैं और गायत्री रूप में धारण करने वाले भी हैं। वह अघोर से लेकर घोर और बहुत गोरे स्वरूप में हैं, सभी स्थितियों में और सभी से हमेशा सर्वत्र सर्वव्यापी रूप में हैं। हे रुद्ररूपी देव, आपको नमस्ते। आप वामदेव स्वरूपी हैं, ज्येष्ठ हैं, श्रेष्ठ हैं, कालकराल हैं॥

महाकालो भैरवेणो वेशी कालविकारणः।
बलविकारणो बालो बलप्रमथनस्तथा ॥
सर्व-भूतादि-दमनो देवो-देवो मनोन्मनः।
सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमः॥
भवे भवेराधिभवे भजस्व मां भवोद्‌भवः।
भवनो भावनो भाव्यो बलकारी परंपदम्‌॥


महाकाल, भैरव रूपी, काल के विकारक, बल के विकारक, बाल रूपी, बल प्रमथन, सम्पूर्ण भूतों का नाशक, देवों के देव, मन की ऊँचाईयों का निर्माता, सद्योजात रूप में, मैं सद्योजात की ओर प्रणाम करता हूँ। भविष्य में हर क्षण मुझे भज, मुझमें भव हो, भवन के भाव, अद्भुत शक्तियों का प्रदाता, उत्कृष्ट पद की प्राप्ति कराने वाला॥

परः शिवः परो ध्येयः परं ज्ञानं परात्परः।
पदावरः पलाशी च मांसाशी वेष्णवोत्तमः॥
ओंणे श्रीह सौं देवः ओं हीं ह भैरवोत्तमः।
ओं दां नमः शिवायेति मन्त्रो वटुर्वरायुधः॥
ओं द्रौ सदा शिवः ओं दीं आपदुद्धारणोमतः।
ओं हीं महाकरालास्य ओं हीं वटुकभेरवः॥


परम शिव, परम ध्येय, परम ज्ञान, सर्वोच्च परमेश्वर, पदावर युगल, पलाश-पत्रम् समाहित, मांसाशी रूपधारी, विष्णु रूपी, ओं ह्रीं श्रीह सौं देव, ओं हीं ह भैरव उत्तम, ओं दां नमः शिवाय, इस मन्त्र को जपता हूँ जो वटुर्वरायुध है, ओं द्रौ सदा शिव, ओं दीं आपदुद्धारणकर्ता, ओं हीं महाकराल, ओं हीं वटुकभैरव।


भगवांस्व्यम्बक ओं हीं चन्द्रार्धशेखरः।
ॐ दीं सं जटिलो धूप्र ओं ए त्रिपुरघातकः।
हां दीं हं हरिवामांग ओं ही हं ही त्रिलोचनः।
ओं वेदरूपो वेदज्ञ ऋग्यजुः सामरूपवान्‌ ॥
रुद्रो घोररवो घोर ओं क्षम्‌ हं अघोरकः।
ओं जं सः पीयूषसक्तोमृताध्यक्षो मृतालसः॥
त्यम्बकं यजामहे सुगन्धी पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्व्वारूकमिववबन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्‌ ॥



इसका अर्थ है:
भगवान शिव, जिन्होंने स्वयं अपने गले में चंद्रमा का अर्धभाग धारण किया है।
वहीं त्रिपुरासुर को नष्ट करने वाले, जटाधारी, धूपवाले, जटिल, त्रिपुरघातक और हरी वस्त्रों वाले भगवान हैं।
वह हरिवामांग और त्रिलोचन हैं, वेदरूप और वेदज्ञ हैं, जो ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के रूप में हैं।
वह भयंकर ध्वनि वाले, अघोरक, पीयूष से संपन्न और मृत्यु के साक्षात्कार करने वाले हैं।
उन्हें हीं त्रिपुरासुर का नाश करने वाला, सुगंधित, पुष्टि प्रदान करने वाला और मृत्यु के बंधन से मुक्ति दिलाने वाला त्यागी भगवान त्र्यम्बक कहा गया है।


"ॐ हों जुं सः ओं भूर्भवः स्वः ॐ जूं सः मृत्युञ्जयः ।
फलश्रुति इदं नाम्नां सहयं तु रहस्यं परमं पदम्‌॥
सर्वस्वं नाकिनां देवि! जन्तूनां भुवि का कथा।
तव भक्त्या माया ख्यातं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्‌॥
गोप्यं सहस्रनामेदं साक्षादमृतरूपिणम्‌।
यः पठेत्‌ पाठयेद्वापि श्रावयेच्छरणुयात्‌ तथा ॥"


मंत्र का फलश्रुति इस नामक्रम में है, जिसका रहस्य बहुत ही परम और उच्च पद है।
देवी! यह सभी नाकियों का सर्वस्व है और इसे भूमि पर जन्तुओं के बीच बात करने का कथन है।
तुम्हारी भक्ति से यह त्रिकालज्ञ विश्वात्मक रूप से प्रसिद्ध है, जो तीनों लोकों में अत्यंत दुर्लभ है।
यह है अमृतरूपी एक हजार नामों का गोपनीय मंत्र, जो सीधे अमृतरूप में है।
जो इसे पढ़े या सुनाए या दूसरों को सिखाए, उसे श्रावण करना चाहिए, उससे वह सीधे आत्मा के स्वरूप में प्रवेश करता है।


"मृत्युञ्जयस्य देवस्य फलं तस्य शिवे! श्नु।
लक्ष्या कृष्णो धियाजीवः प्रतापेन दिवाकरः ॥
तेजसा वर्धिदेवस्तु कवित्ते चैव भार्गवः।
शौर्येण हरिशंकाशो नीत्या द्रहिणिससनिभः॥
ईश्वरत्वेन देवेशि मत्सत: किमतः परम्‌।
यः पठेदर्धरात्रे च साधको धीर संयुतः॥"


इस मंत्र का अर्थ है:

"मृत्युञ्जय देव का फल, वह शिव को प्राप्त होता है।
धिया जीवित करने वाला कृष्ण, दिवाकर के प्रताप से युक्त है।
तेज से बढ़ने वाले देवता, कवि और भार्गव (पराशर) हैं।
हरि के शंकर के समान शौर्यशाली, दिनमाने सूर्य की भानु रूपी देवता की तरह हैं।
ईश्वरत्व से युक्त देवेश, मेरी भक्ति में समाहित है, ऐसा कहने पर इसके अतिरिक्त कुछ और परम नहीं है।
जो व्यक्ति इस मंत्र को रात्रि के समय और साधना में पढ़ता है, वह धीर और संयमित साधक हो जाता है।"

"पठेत्‌ यैकलिंगे मरुदेशे वने जने॥
स्मशाने प्रान्तरे दुगं पाठात्‌ सिर्द्धिनं संशयः।
नौकायां चोरसंगे च संकटे प्राणसङ््यये॥
यत्र यत्र भये प्राप्त विषवद्धिभयादिषु।
पठेत्‌ सहसनामाश्चु मुच्यते, नात्र संशयः ॥
भोमावस्यां निशीथे च गत्वा प्रेतालपं सुधीः।
पठित्वा स भवेद्‌ देवि साक्षादिन्द्रोऽर्चितः सुरः ॥"


इस मंत्र का अर्थ है:

- एकलिंग (लिंगों के एकमात्र भगवान शिव) के प्रति मरुदेश, जंगल या जनजाति में पठने का उत्तम समय है।
- समशान, प्रान्त, दुर्ग, और सिद्धिस्थलों में यह मंत्र पठने से संशय रहित होता है।
- नौका में या चोर के साथ रहते हुए, और संकट की स्थिति में भी प्रणयाम के साथ यह मंत्र पठने से प्राणरक्षा होती है।
- जहां-जहां भय या विष के जैसे कठिनाइयों से युक्त स्थानों में प्राप्त होता है, वहां-वहां इस सहस्रनामा को पठने से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
- रात्रि के समय भूमि में जाकर प्रेतलप को पठने से व्यक्ति देवी के साक्षात्कार को प्राप्त करता है और वह स्वयं इन्द्र की पूजा के योग्य होता है।

"शनो दर्शदिने देवि! निशायां सरितस्तटे।
पठेन्नामसहसं वे जपेदष्टोत्तरं शतम्‌॥
सुदर्शनो भवेदासु म॒त्युञ्जयप्रसादतः।
दिगम्बरो मुक्तकेशः साधको दशधा पठेत्‌॥
इह लोके भवेद्राजा परे मुक्तिरभविष्यति।
इदं रहस्यं परमं भक्त्या तव मयोदितम्‌ ॥"


इस मंत्र का अर्थ है:

- देवी! शनिवार के दिन और रात्रि के समय, तीर्थों के किनारे, इस मंत्र को सहस्र बार नामसहित पठें या जपें, और उसके बाद इसके शतोत्तर भाग को भी जपें।
- इससे सुदर्शन भी प्राप्त होता है और मृत्युञ्जय की कृपा से मरण का भय नहीं होता है।
- दिगम्बर (जिनका शरीर खुला हुआ है), मुक्तकेश (जिनके बाल बंधे नहीं होते) और साधक (योगी) को दशभा इस मंत्र को पठने के लाभ को प्राप्त होता हैं।
- इससे यह लोगों में राजा बन जाता है और परलोक में मुक्ति प्राप्त होती है।
- यह रहस्यपूर्ण मंत्र तुम्हारे द्वारा बताया गया है, जिसका पाठ भक्ति भाव से किया जाए तो सर्वात्मक परम परमेश्वर की कृपा प्राप्त होती है।

मन्त्रगभं मनुमयं न चाख्येयं दुरात्मने।
नो दद्यात्परशिष्येभ्यः पुत्रेभ्योऽपि विशेषतः ॥
रहस्यं मम॒ सर्वस्वं गोप्यं गुप्ततरं कलौ,
षण्मुरस्यापि नोक्तव्यं गोपनीयं तथात्मनः ॥
दुर्जनाद्रक्षणीयं च पठनीयमहर्निसम्‌।
श्रोतव्यं साधकमुखाद्रक्षणीयं स्वपुत्रवत्‌ ॥


इस मंत्र का अर्थ है:

- "मन्त्रगभं मनुमयं न चाख्येयं दुरात्मने।" - एक दुरात्मा व्यक्ति को यह मंत्र नहीं कहना चाहिए, क्योंकि यह गोपनीय है और मन्त्रगभ मनुमय है।
- "नो दद्यात्परशिष्येभ्यः पुत्रेभ्योऽपि विशेषतः ॥" - इसे दूसरों, शिष्यों और पुत्रों को विशेष रूप से नहीं देना चाहिए।
- "रहस्यं मम॒ सर्वस्वं गोप्यं गुप्ततरं कलौ," - इस मंत्र को कलयुग में सबसे गोपनीय और गुप्त होने वाला समझा जाता है, और यह मेरा सब कुछ है।
- "षण्मुरस्यापि नोक्तव्यं गोपनीयं तथात्मनः ॥" - इसके विशेषता को षट्त्रिंश मूर्तियों के रहस्य से भी गोपनीय रखा जाना चाहिए, और यह आत्मा का भी रहस्य है।
- "दुर्जनाद्रक्षणीयं च पठनीयमहर्निसम्‌।" - इसे दुर्जनों की रक्षा के लिए अधिकारित रूप से पठना चाहिए और यह रात्रि को विशेषतः पठने योग्य है।
- "श्रोतव्यं साधकमुखाद्रक्षणीयं स्वपुत्रवत्‌ ॥" - यह मंत्र श्रावण करने वालों के लिए अधिकारित है और यह स्वपुत्रों की तरह रक्षणीय है।


॥ इति श्री रूद्रयामलतन्त्र महामृत्युंजय सहस्रनाम स्तोत्रं समाप्तं॥

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