Shiv Chalisa: सम्पूर्ण श्री शिव चालीसा श्री शिवाष्टक मंत्र


भगवान शिव, सृष्टि के अनुरूप संहार और सृष्टि के रचनहार, सभी देवताओं के भगवान, आदि देवता, भूतनाथ, रुद्र, महाकाल - इन सब नामों से पुकारे जाने वाले परमेश्वर का प्रतीक हैं। उनकी पूजा भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, और उनकी महिमा को व्यक्त करने के लिए हम शिवचालीसा का पाठ करते हैं। इस ब्लॉग में पढ़िए संपूर्ण शिवचालीसा और श्रीशिवाष्टक मंत्र 


Shiv Chalisa


Shiv Chalisa: श्री शिव चालीसा -१ 

श्रीशिवप्रातःस्मरणस्तोत्रम्‌ 

प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेश
खट्वाड्रशूलवरदाभयहस्तमीशंसंसाररोगहरमौषधमद्वितीयम्‌ ॥ 

प्रातर्नमामि गिरिशं गिरिजार्धदेहं सर्गस्थितिप्रलयकारणमादिदेवम्‌ l 
विश्वेश्वरं विजितविश्वमनोऽभिरामं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम्‌ ॥ 

प्रातर्भजामि शिवमेकमनन्तमाद्यं वेदान्तवेद्यमनघं पुरुषं महान्तम्‌
नामादिभेदरहितं षड्भावशून्यं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम्‌ ॥

प्रातः समुत्थाय शिव विचिन्त्य श्लोकत्रयं येऽनुदिनं पठन्ति। 
ते दुःखजातं बहुजन्मसंचितं हित्वा पदं यान्ति तदेव शम्भोः॥


दोहा

अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार। 
बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार॥ १॥ 
आर्विहरण सुखकरण शुभ भक्ति-मुक्ति-दातार।
करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार॥२॥ 
पस्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार। 
सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार॥३॥ 
पलक-पलक आशा भरयो  ह्यो सुबाट निहार। 
ढर्रो  तुरंत स्वभाववश, नेक न करौ अबार॥४॥

जय शिव शंकर औढरदानी। जय गिरितनया मातु भवानी ।।
सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर।।

सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता। उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता।।
पराशक्ति-पति अखिल विश्वपति। परब्रह्म परधाम परमगति।।

सर्वातीत अनन्य सर्वगत। निजस्वरूप महिमा में स्थितरत।।
अंगभूति-भूषित श्मशानचर। भुंजगभूषण चन्द्रमुकुटधर।।

वृष वाहन नंदी गणनायक। अखिल विश्व के भाग्य विधायक।।
व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर।।

कर त्रिशूल डमरूवर राजत। अभय वरद मुद्रा शुभ साजत।।
तनु कर्पूर-गौर उज्ज्वलतम। पिंगल जटाजूट सिर उत्तम।।

भाल त्रिपुण्ड मुण्डमालाधर। गल रूद्राक्ष-माल शोभाकर।।
विधि-हरी-रूद्र त्रिविध वपुधारी। बने सृजन-पालन-लयकारी।।

तुम हो नित्य दयाके सागर | आशुतोष आनन्द-उजागर॥ १३ ॥
अति दयालु भोले भण्डारी | अग-जग सबके मंगलकारी ॥ ९४॥

सती-पार्वतीके प्राणेश्वर। स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर ॥ १५॥
हरि-हर एक रूप गुणशीला। करत स्वामि-सेवक की लीला।।

रहते दोउ पूजत पूजवावत। पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत।।
मारूति बन हरि-सेवा कीन्ही। रामेश्वर बन सेवा लीन्ही।।

जग-हित घोर हलाहल पीकर। बने सदाशिव नीलकण्ठ वर।।
असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर।।

‘नमः शिवायः’ मंत्र पंचाक्षर। जपत मिटत सब क्लेश भयंकर।।
जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित। तिनको शिव अति करत परमहित।।

श्रीकृष्ण तप कीन्हो भारी। भये प्रसन्न वर दियो पुरारी।।
अर्जुन संग लड़े किरात बन। दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन।।

भक्तन के सब कष्ट निवारे। दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे।।
शंखचूड़ जालंधर मारे। दैत्य असंख्य प्राण हर तारे।।

अन्धक को गणपति पद दीन्हों। शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों।।
तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं। बाणासुर गणपति गति कीन्हीं।।

अष्टमुर्ति पंचानन चिन्मय। द्वादश ज्योतिर्लिंग ज्योतिर्मय।।
भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा। अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा।।

काशी मरत जंतु अवलोकी। देत मुक्ति पद करत अशोकी।।
भक्त भगीरथ की रूचि राखी। जटा बसी गंगा सुर साखी।।

रूरू अगस्तय उपमन्यू ज्ञानी। ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी।।
शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक। शिवहिं परमप्रिय लोकोद्धारक।।

इनके शुभ सुमिरनतें शंकर। देत मुदित हृै अति दुर्लभ वर।।
अति उदार करूणावरूणालय। हरण दैन्य-दारिद्र्य-दुःख-भय।।

तुम्हरो भजन परम हितकारी। विप्र शूद्र सब ही अधिकारी।।
बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। ते अलभ्य शिवपद को पावहिं।।

भेदशून्य तुम सब के स्वामी। सहज-सुहृद सेवक अनुगामी।।
जो जन शरण तुम्हारी आवण। सकल दुरित तत्काल नशावत।।

Shiv Chalisa: श्री शिव चालीसा -२ 

॥ चौपाई ॥


जय गिरिजा पति दीन दयाला ।सदा करत सन्तन प्रतिपाला ॥१ 
भाल चन्द्रमा सोहत नीके ।कानन कुण्डल नागफनी के ॥२ 

अंग गौर शिर गंग बहाये ।मुण्डमाल तन क्षार लगाए ॥३
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे ।छवि को देखि नाग मन मोहे ॥ ४ 

मैना मातु की हवे दुलारी ।बाम अंग सोहत छवि न्यारी ॥५ 
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी ।करत सदा शत्रुन क्षयकारी ॥६ 

नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे ।सागर मध्य कमल हैं जैसे ॥७ 
कार्तिक श्याम और गणराऊ ।या छवि को कहि जात न काऊ ॥ ८ 

देवन जबहीं जाय पुकारा ।तब ही दुख प्रभु आप निवारा ॥९ 
किया उपद्रव तारक भारी ।देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी ॥१० 

तुरत षडानन आप पठायउ ।लवनिमेष महँ मारि गिरायउ ॥११ 
आप जलंधर असुर संहारा ।सुयश तुम्हार विदित संसारा ॥ १२ 

त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई ।सबहिं कृपा कर लीन बचाई ॥१३ 
किया तपहिं भागीरथ भारी ।पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी ॥१४ 

दानिन महँ तुम सम कोउ नाहीं ।सेवक स्तुति करत सदाहीं ॥१५ 
वेद नाम महिमा तव गाई।अकथ अनादि भेद नहिं पाई ॥ 1६ 

प्रकटी उदधि मंथन में ज्वाला ।जरत सुरासुर भए विहाला ॥१७ 
कीन्ही दया तहं करी सहाई ।नीलकण्ठ तब नाम कहाई ॥१८ 

पूजन रामचन्द्र जब कीन्हा ।जीत के लंक विभीषण दीन्हा ॥१९ 
सहस कमल में हो रहे धारी ।कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी ॥ 20

एक कमल प्रभु राखेउ जोई ।कमल नयन पूजन चहं सोई ॥२१ 
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर ।भए प्रसन्न दिए इच्छित वर ॥२२ 

जय जय जय अनन्त अविनाशी ।करत कृपा सब के घटवासी ॥२३ 
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै ।भ्रमत रहौं मोहि चैन न आवै ॥ २४ 

त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो ।येहि अवसर मोहि आन उबारो ॥२५ 
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो ।संकट से मोहि आन उबारो ॥२६ 

मात-पिता भ्राता सब होई ।संकट में पूछत नहिं कोई ॥२७ 
स्वामी एक है आस तुम्हारी।आय हरहु मम संकट भारी ॥ २८ 

धन निर्धन को देत सदा हीं ।जो कोई जांचे सो फल पाहीं ॥२९ 
अस्तुति केहि विधि करैं तुम्हारी ।क्षमहु नाथ अब चूक हमारी ॥३० 

शंकर हो संकट के नाशन ।मंगल कारण विघ्न विनाशन ॥३१ 
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं ।शारद नारद शीश नवावैं ॥ ३२ 

नमो नमो जय नमः शिवाय ।सुर ब्रह्मादिक पार न पाय ॥३३ 
जो यह पाठ करे मन लाई ।ता पर होत है शम्भु सहाई ॥३४ 

ॠनियां जो कोई हो अधिकारी ।पाठ करे सो पावन हारी ॥३५ 
पुत्र हीन कर इच्छा जोई ।निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई ॥ ३६ 

पण्डित त्रयोदशी को लावे ।ध्यान पूर्वक होम करावे ॥३७ 
त्रयोदशी व्रत करै हमेशा ।ताके तन नहीं रहै कलेशा ॥३८ 

धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे ।शंकर सम्मुख पाठ सुनावे ॥३९ 
जन्म जन्म के पाप नसावे ।अन्त धाम शिवपुर में पावे ॥ ४० 

कहैं अयोध्यादास आस तुम्हारी ।जानि सकल दुःख हरहु हमारी ॥४१ 

॥ दोहा ॥

नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा ।
तुम मेरी मनोकामना,पूर्ण करो जगदीश ॥

मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान ।
अस्तुति चालीसा शिवहि,पूर्ण कीन कल्याण ॥
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Shree shivashtak श्रीशिवाष्टक

आदि अनादि अनंत अखंड अभेद अखेद सुबेद बतावैं ।
अलग अगोचर रूप महेस कौ जोगि-जति-मुनि ध्यान न पावैं ॥
आगम-निगम-पुरान सबै इतिहास सदा जिनके गुन गावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥1॥

सृजन सुपालन-लय-लीला हित जो बिधि-हरि-हर रूप बनावैं ।
एकहि आप बिचित्र अनेक सुबेष बनाइ कैं लीला रचावैं ॥
सुंदर सृष्टि सुपालन करि जग पुनि बन काल जु खाय पचावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥2॥

अगुन अनीह अनामय अज अविकार सहज निज रूप धरावैं ।
परम सुरम्य बसन-आभूषन सजि मुनि-मोहन रूप करावैं ॥
ललित ललाट बाल बिधु बिलसै रतन-हार उर पै लहरावैं।
बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥3॥

अंग बिभूति रमाय मसानकी बिषमय भुजगनि कौं लपटावैं ।
नर-कपाल कर मुंडमाल गल, भालु-चरम सब अंग उढ़ावैं ॥
घोर दिगंबर, लोचन तीन भयानक देखि कैं सब थर्रावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥4॥

सुनतहि दीनकी दीन पुकार दयानिधि आप उबारन धावैं ।
पहुँच तहाँ अविलंब सुदारून मृत्युको मर्म बिदारि भगावैं ॥
मुनि मृकंडु-सुतकी गाथा सुचि अजहुँ बिग्यजन गाई सुनावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥5॥

चाउर चारि जो फूल धतूरके, बेलके पात औ पानि चढ़ावैं ।
गाल बजाय कै बोल जो ‘हरहर महादेव’ धुनि जोर लगावैं ॥
तिनहिं महाफल देय सदासिव सहजहि भुक्ति-मुक्ति सो पावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥6॥

बिनसि दोष दुख दुरित दैन्य दारिद्रय नित्य सुख-सांति मिलावैं ।
आसुतोष हर पाप-ताप सब निरमल बुद्धि-चित्त बकसावैं ॥
असरन-सरन काटि भवबंधन भव निज भवन भव्य बुलवावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥7॥

औढरदानि, उदार अपार जु नैकु-सी सेवा तें ढुरि जावैं ।
दमन असांति, समन सब संकट, बिरद बिचार जनहि अपनावैं ॥
ऐसे कृपालु कृपामय देव के क्यों न सरन अबहीं चलि जावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो साम्ब-सदाशिव कौं नित ध्यावैं ॥8॥


।। इति श्री शिवाष्टक सम्पूर्ण ।।

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