Mahamrityunjaya Stotra:महामृत्युञ्जय स्तौत्र हिंदी अर्थ सहित -2

 

महामृत्युञ्जय स्तौत्र (Mahamrityunjaya Stotra) के द्वारा देवता का गुणगान किया जाता है । इस स्तोत्र के द्वारा देवता का वन्दन करने से साधक के लिए कुछ भी दुर्लभं नहीं रह जाता । जपकर्ता के सभी विघ्न समाप्त हो जाते हें । इसका पाठ चौराहे मे आधी रात के समय करने से भैरव जी के दर्शन भी सुलभ हो जाते हे ।

Mahamrityunjaya Stotra:महामृत्युञ्जय स्तौत्र हिंदी अर्थ सहित -2


Mahamrityunjaya Stotra:महामृत्युञ्जय स्तौत्र

महामृत्युंजय स्तोत्र का वर्णन ऋग्वेद में पाया जाता है और यह भगवान शिव को समर्पित है, जो विनाश और परिवर्तन से जुड़े सर्वोच्च देवता हैं। स्तोत्र एक शक्तिशाली प्रार्थना है जिसमें मृत्यु से सुरक्षा और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के लिए शिव का आशीर्वाद मांगा जाता है।

माना जाता है कि महामृत्युंजय स्तोत्र का जाप करने से व्यक्ति पर परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ता है। ऐसा कहा जाता है कि इन पवित्र छंदों का बार-बार पाठ सकारात्मक ऊर्जा का एक कवच बनाता है, जो आसन्न मृत्यु को भी विफल करने में सक्षम है। मंत्र भक्त में निर्भयता और दैवीय सुरक्षा की भावना पैदा करता है।नियमित पाठ करने से व्यक्ति का जीवनकाल बढ़ सकता है, जिससे अकाल मृत्यु से बचाव हो सकता है। स्तोत्र को एक दिव्य अमृत के रूप में देखा जाता है जो अभ्यासकर्ता को असामयिक मृत्यु के भय से मुक्त जीवन प्रदान करता है। 

माना जाता है कि जीवन प्रत्याशा पर इसके प्रभाव के अलावा, महामृत्युंजय स्तोत्र में उपचार गुण भी हैं। भक्तों का दावा है कि पंचमी, दशमी और पूर्णिमा जैसे विशिष्ट शुभ दिनों पर स्तोत्र का जाप करने से बीमारियाँ दूर हो सकती हैं और शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि मंत्र से उत्पन्न कंपन शरीर और मन को शुद्ध करते हुए समग्र कल्याण को बढ़ावा देते हैं।

महामृत्युंजय स्तोत्र को नकारात्मक ऊर्जाओं को उलटने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि मंत्र में द्वेषपूर्ण इरादों को बदलने की शक्ति है, जिससे अभ्यासकर्ताओं को होने वाली कोई भी क्षति अप्रभावी हो जाती है। इस स्तोत्र की सुरक्षात्मक ऊर्जा का सामना करने पर काले जादू या शाप देने के प्रयास कथित तौर पर विफल हो जाते हैं।

महामृत्युंजय स्तोत्र हिंदू परंपरा में आध्यात्मिक शक्ति और दैवीय सुरक्षा के प्रतीक के रूप में खड़ा है। माना जाता है कि इसके गहन छंद, जब भक्ति और ईमानदारी के साथ जप किए जाते हैं, तो मृत्यु, बीमारी और नकारात्मक शक्तियों के खिलाफ एक ढाल बन जाते हैं। चाहे दीर्घायु, उपचार, या सुरक्षा की तलाश हो, भक्त जीवन की यात्रा में सांत्वना और सशक्तिकरण के स्रोत के रूप में इस प्राचीन मंत्र की ओर रुख करते हैं। महामृत्युंजय स्तोत्र को अपनाने से, व्यक्ति को न केवल मृत्यु की अनिश्चितताओं के खिलाफ एक ढाल मिलती है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी मिलता है।
तो आईये इसका पाठ करे और भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त करे ।


Mahamrityunjaya Stotra:महामृत्युञ्जय स्तौत्र हिंदी अर्थ सहित -2

श्री भेरव उवाच। 

ॐ देवि, वक्ष्यामि ते स्तोत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकम्। 
मूलमन्त्र सर्वस्वं रक्षणीयं प्रयत्नतः॥
दीक्षाकाले च पूजायां जपान्ते च पटेच्छिवे।
 विसर्जने तथा हाने स दीक्षाफलमाप्नुयात्॥ 
अस्य श्रीमन्तरराजस्य ऋषिभरव ईश्वरि। 
गायत्रं छन्दोवित्युक्तं महामृत्युञ्जयः शिवे। 
देवता प्रणवो बीजं शक्तिः शक्तिः स्मृता शिवे।
हदज्ञं कोलक इत्युक्तं सूयां दिग्बन्धनं तथा॥ 
भोगापवर्गसिद्धयर्थं विनियोगः प्रकीर्तितः॥

इस स्तोत्र का अर्थ:

श्री भेरव जी ने कहा हे  देवी, मैं आपको एक स्तोत्र सुनाऊंगा जो सर्व सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। मूलमन्त्र के साथ इसे पढ़ना चाहिए, यह सभी प्रकार की सुरक्षा करने वाला है। दीक्षा के समय और पूजा के दौरान, और विसर्जन के समय भी इसे पठने से दीक्षा का फल प्राप्त होता है। 

इस स्तोत्र का श्रीमन्तरराज के ऋषियों द्वारा संबंधित ईश्वरि को समर्पित है। इसमें गायत्री छन्द, महामृत्युञ्जय मंत्र, प्रणव देवता, शक्ति बीज, शक्ति, हदज्ञ, कोलक, सूया दिग्बन्धन, और भोग और अपवर्ग की सिद्धि के लिए विनियोग है।"

यह स्तोत्र विभिन्न अवस्थाओं में जपा जा सकता है और इसका पाठ व्यक्ति को आध्यात्मिक और भौतिक सुरक्षा में मदद कर सकता है।


अथ ध्यानम् 

चन्द्रार्काग्निविलेचनं स्थितमुखं पद्यद्रयान्तस्थितम्।
मुद्रापाशसुधाक्षसूरविलसत् पाणीं हिमांशुप्रभम्॥।
कोटीचन्द्रगलत् सुधाभ्भुततनुं हारादिभुषोज्वलम्।
भ्रान्त्या विश्वविमोहनं पशुपतिं मृत्युंजयं भावये॥

इस श्लोक में समर्थ शिव का वर्णन किया गया है। उनका मुख चंद्र, अग्नि और सूर्य से प्रकाशित हो रहा है, उनकी पादों में ब्रह्मा, विष्णु और शिव के समान थिर हैं। उनके हाथ में मुद्रा, पाश और सुधा हैं और उनकी आंखों का प्रकाश हिमकिरणों की भांति है। उनका शरीर कोटि चंद्रमाओं की रौशनी से भरा हुआ है, और वह हार और अन्य भूषाओं से युक्त हैं। उनका रूप भ्रान्ति और विश्वमोहन के लिए है, और वह पशुपति और मृत्युंजय के रूप में वंदनीय हैं।

पीयूषांशुसुधामणिः करतले पीयूषकुम्भं वहन्।
पीयूषद्युतिसम्पुटान्तरगतः पीयुषधाराधरः॥
मां पीयूषमयूषसुन्दरवपुः पीयूषलक्ष्मीसखा।
पीयूषद्रववर्षणत्वहरहः प्रीणातु मृत्युंजयः॥
देवं दिनेऽग्निशशङ्धनेतर, पीयूषपात्रं कलशं दधानम्।
दोभ्यसिधांशुद्युतिमिन्द्रचूड, नमामिमृत्युंजयमादिदेवम्॥


इस श्लोक में मृत्युंजय शिव का वंदन किया गया है। उनके करों में माणिका की तरह चमकते हुए, पीयूष से भरे हुए कुम्भ को धारण करते हुए, और पीयूष से पूर्ण हुए मृत्युंजय शिव को यहाँ प्रस्तुत किया गया है। उनका विशेष बल पीयूषधारा के साथ है और वह पीयूषलक्ष्मी के साथ सुन्दर रूप में हैं। इस श्लोक के माध्यम से भक्त इस प्रशंसा में भागीदार होता है और मृत्युंजय शिव से कृपा की प्रार्थना करता है।

स्तोत्र प्रारम्भः 

चन्द्रमण्डलमध्यस्थं रुद्र भालेतिविस्तते।
तत्रस्थं चिन्तयेत्साध्यं मृत्युप्राप्तोऽपिजी वति॥
माव्राद्यं मातृकामोलिं वेदकल्पतरोः फलम्‌।
यो जपेत्‌ स भवेद्‌ विश्ववेभवास्पदमीश्वरि॥


इस श्लोक में मृत्युंजय शिव की पूजा और जप का महत्व वर्णित है। रुद्र के भाले में जो चन्द्रमण्डल स्थित है, वहाँ साधक को अपने जीवन में साध्य मृत्यु का चिन्तन करना चाहिए, ताकि मृत्यु उसे छूने पर भी अमर बना रहे। मातृकामोलि का जप करने से विद्वान् को वेदकल्पतर के समान फल प्राप्त होता है, और वह विश्वास्पति, ईश्वरी की कृपा से सभी संसारी प्राप्तियों का अधिपति बनता है। इस श्लोक के अंतर्गत यह सुझाव दिया गया है कि मृत्युंजय शिव की पूजा और जप से साधक अमृतत्व की प्राप्ति कर सकता है।

"कूर्च बीजं कूलाचार-विचार-कुशलः शिवः।
यो जपेत्‌ तस्य वक्त्राल्जे नरीनर्ति हि भारती॥"

इस श्लोक में बताया गया है कि कूर्च बीज से सम्बन्धित शिव, कूलाचार और विचार कुशल होते हैं। जो व्यक्ति इस बीज का जप करता है, उसके वचन से ही भारती (सरस्वती) नरी नृत्य करती है। इसका तात्पर्य है कि इस शिव बीज के जप से व्यक्ति को ज्ञान, विचारशीलता, और कूशलता मिलती है, जिससे वह शारीरिक और मानसिक रूप से सुरक्षित रहता है और सरस्वती की कृपा से उसका जीवन सुखमय बनता है।

"देवेशाकाशवबीजन्ते विन्दुविम्बेन्दुमण्डितम्‌।
चिन्तयेद्‌ यो विभो चित्ते स शिवाद्वयतां लभेत्‌॥"

इस श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति देवेश (शिव) के आकाश बीज (ह्रीं) को ध्यान करता है, जिसमें विन्दु, विम्ब, और मण्डल सहित होते हैं, वह व्यक्ति चित्त में शिव की द्वयता (शिव और शक्ति) को प्राप्त करता है। इस ध्यान से चित्त शुद्ध होकर शिवाद्वय की प्राप्ति होती है और व्यक्ति अद्वितीय ब्रह्म की अनुभूति में लीन हो जाता है।

"हसविसर्ग भगुग्भर्गं सर्व-प्रलय-कारणम्‌।
निसर्गते भजेद्‌ योन्तः लीयते स परे पदे॥"

इस श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति हसविसर्ग (विश्व का उत्पत्ति और प्रलय) का भगवान है, सर्व-प्रलय कारण है और समस्त ब्रह्माण्ड का कारण है, वह व्यक्ति निसर्ग में ही भगवान की उपासना करता है। ऐसा करने से वह परम पद (ब्रह्म) को प्राप्त होता है और अन्य किसी भी स्थान में लीन हो जाता है।

"लक्ष्मीरटब्दाक्षरं बिन्दुभूषणं यों जपेत्‌ तव।
करे लक्ष्मी मुखे वाणी तस्य शम्भो रणे जयः॥"

इस श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति लक्ष्मी अक्षर (श्रीं) का जप करता है, वह बिन्दुभूषित होता है और जिसने अपने हाथों में लक्ष्मी को धारण किया है, वह शम्भु (भगवान शिव) के रण में जीत प्राप्त करता है। इस साधना के माध्यम से व्यक्ति को समृद्धि, धन, और सफलता की प्राप्ति होती है और उसे भगवान की कृपा मिलती है।

"पालयेति युगं देव योजपेद्रीजसन्निधोौ।
स सार्वभौमं साम्राज्यं भजेदन्ते स लोकताम्‌॥"

इस श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति 'पालये' (सुरक्षित रखे) इस मन्त्र का जप करता है, वह ईश्वर के सन्निधान में रहता है। उसका सार्वभौम और साम्राज्य प्राप्त होता है और वह सभी लोकों में विशेष रूप से मान्यता प्राप्त करता है।

"शरदं वरदाम्बीरमाधवीं सविसर्गकाम्‌।
जपेद्‌ यः श्रदाम्भोंदधवलं तद्‌ वशी भ्रमेत्‌॥"

इस श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति शरद (शारदा, सरस्वती) को वर देने वाली, अम्बा रूपी, माधवी (लक्ष्मी) को सविसर्ग (सम्पूर्ण सृष्टि) की कामना के साथ जप करता है, उसका मन श्रद्धा और अम्भोज रूपी कमल के समान श्वेत रंग में वशी रहता है और वह भ्रमने का अनुभव करता है।

आकाशबीजं साकाशं जपेद्‌ यः कुरसस्तरे।

जो व्यक्ति कुरस के ऊपर बैठकर आकाश बीज का जप करता है।
वही कोलिक शिरा अर्थात् शिव की शक्ति से युक्त होता है और अंधकार से जीवन को जीत लेता है॥

श्धानीजं सरेफस्कं शम्भो पद्मासने जपेत्‌।

शम्भो, जो सब प्रकार से शुद्ध और स्वयं को आत्मा मानने वाले हैं, उनको शान्तिपूर्वक पद्मासन में बैठकर शिवजी का जप करना चाहिए।
इससे वह भैरव की तरह भविष्य में भवानियों का साम्राज्य प्राप्त करता है॥

हज्रनीजं जगद्बीजं तेजो रूपं च यो जपेत्‌।

जो व्यक्ति हज्रनीज, जगद्बीज और तेजोरूप शिवजी का जप करता है।
उसे भगवान शिव स्वयं को धामस्थान में स्थापित करने का आशीर्वाद मिलता है॥

तस्मै दास्यसि भो शम्भो निजं धामसनातनम्‌।

ऐसे शिवजी के जप से, उन्हें स्वयं को सनातन धाम में स्थापित करने का आशीर्वाद मिलता है, उन्हें भक्तजनों का सेवक बना देते हैं॥

अकारं साकारं गिरिश तव मन्त्राञ्चलगतम्।

ओमकार सहित गिरीश तव मंत्र सभी स्थानों में बसा हुआ है, वही तुम्हारा मंत्र है॥

जपेद्‌ यो हत्‌ पदो निरूपमपरानन्दमुदितः॥

जो व्यक्ति इस मंत्र का जप करता है, वह अपरानन्द और उदार हृदय से युक्त हो जाता है॥

स साग्राज्यं भूमौ भजति रजनी-नायककला।

ऐसा व्यक्ति रात्रि-काल में रजनी-नायककला का भजन करता है और भगवान की उच्च स्थान में पूजा करता है॥

लसन्मोलिप्रान्ते व्रजति शिव-सायुज्यपदवीम्‌॥

इस प्रकार, वह शिवजी की कृपा से सायुज्यपदवी को प्राप्त करता है और अनन्त ब्लिस को हासिल करता है॥

बिन्दुभूषणत्रिकोणरसारस्वारणस्फुरदजारतिवृत्ते।

जो व्यक्ति इस मंत्र का जप करता है, उसका चित्त त्रिकोणमय और रसारस से भरा होता है, जिससे उसके जीवन में आनंद की वृद्धि होती है।

भृगहाद्यमिति चक्रमण्डले त्वां, निषस्ममुखसि स्मराम्यहम्‌।

इसीलिए, भगवान शिव, जिनका मंडल भृगहाद्यमि कहलाता है, उसी भगवान को मैं निष्स्ममुख देखता हूँ और स्मरण करता हूँ॥

नाना विधानार्घ्य विभूषणाढये,निः रोषपीयूषमयूषबिम्बे।
निषस्ममीश्वरमजेषरोषवाणीनुतं,मृत्युहर नमामि॥

जो अनगिनत प्रकार के आराधना और अर्घ्य से युक्त हैं,
जो शान्ति और अमृत के स्वरूप में हैं,
जो निर्मल और अप्रमेय ईश्वर की पूजनीय हैं, और जिनकी वाणी अपरिपक्व है,
मैं उस मृत्युहर, जो मृत्यु को हरने वाले भगवान को नमस्कार करता हूँ॥

फलश्रुति:

इति स्तोत्रं दिव्यं सकलमनुराजेकनिकपं,
पठेद्‌ यः पूजान्ते शिवशिवगृहे वार्चनविधो।
रणे जित्वा वैरीन्‌ भजति नपलक्ष्मीं स्वमहसा,
भवेदन्ते वीरः सकलसुरसेव्यः शिवमयः॥

इसका अर्थ है कि यह दिव्य स्तोत्र, जो एकानिकपवत्‌ भगवान शिव की स्तुति करता है, सभी मनुष्यों के लिए है। जो व्यक्ति इसे पढ़ता है और शिव के मंदिर में पूजा करता है, वह भगवान को अत्यंत प्रिय होता है। यह स्तोत्र रणभूमि में शत्रुओं को जीतकर और धन के साथ नपुलक्ष्मी को प्राप्त करके वीर बनता है, जो सभी देवताओं की सेवा के योग्य होता है और जो शिव में एकरूप होता है॥

इतीदं परमं स्तोत्रं महामृत्युजयप्रियः।
पटद्रा पठयेन्नित्यं सर्वस्वं देवदुर्लभम्‌॥

इसका अर्थ है कि यह स्तोत्र सर्वोत्तम है और महामृत्युजय (मृत्यु को परास्त करने वाला) भगवान को प्रिय है। यदि कोई व्यक्ति इसे नित्य रूप से पढ़ता है, तो उसे देवत्व की प्राप्ति होती है और वह सभी संपत्तियों का अधिकारी बनता है, जो देवों से दुर्लभ हैं॥


अदेयं परमं तत्त्वे महापातकनाशनम्‌।
महामन्त्रमयं विद्या साधनेकरसायनम्‌॥
त्रेलोक्यसारभूतं च त्रेलोक्यामयदायकम्‌।

इसका अर्थ है कि यह तत्त्व अत्यन्त अद्भुत है, जो महापातकों को नष्ट करने वाला है। यह विद्या महामन्त्रों से युक्त है और यह साधनों के रसायन है। यह संसार का सार है और सम्पूर्ण लोकों को आश्रय देने वाला है॥


पटेच्चिन्ते मन्त्री तु सद्यःसिद्धिर्भवेत्‌ कलौ।
चतुष्पथेsर्धरात्रे तु ब्राह्मे वापि मुहूर्तके।
पठित्वा कौलिको देवि! भवेद्‌ भैरवसत्निभः॥

इसका अर्थ है कि कलियुग में मंत्री विचार करते हैं, सोमवार के चारपथ में अर्धरात्रि में और ब्रह्मामुहूर्त में, जल्दी सिद्धि प्राप्त होती है। देवी, इसे पठने वाला व्यक्ति भैरव के समान बन जाता है॥

इतीदं मम सर्वस्वं रहस्यं परमाद्भृतम्‌।
यस्य क्षयं न द्रष्टव्यं इत्याक्ञापारमेश्वरी॥

इसका अर्थ है कि यह मेरा सब कुछ है, सबसे गोपनीय, परम और उच्च रहस्य है। जिसका क्षय देखा नहीं जा सकता है, वही आद्भुत पारमेश्वरी की आज्ञा है॥

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