रामायण के अनसुने कहानी :रावण के पूर्व जन्म की कथा


रामायण, एक अद्भुत भारतीय एपिक है जिसमें अद्वितीय प्रेम कथा, धर्म, और नैतिकता के सिद्धांतों को सुलझाने वाली अनगिनत कहानियां हैं। इसमें से एक रोचक कहानी है रावण के पूर्व जन्म की, जो हमें उसके अनसुने पहलुओं को जानने का अवसर देती है। इसमें हम जानेग किस श्राप के कारण रावण का जन्म राक्षस कुल में हुआ तो पेश है रामायण के अनसुने कहानी के प्रथम भाग में रावण के पूर्व जन्म की कथा 


रामायण के अनसुने कहानी :रावण के पूर्व जन्म की कथा


रामायण के अनसुने कहानी :रावण के पूर्व जन्म की कथा(Unheard Stories of Ramayana: The Untold Tale of Ravana's Previous Birth)

रावण, रामायण के विलक्षण विलक्षण शैली के राक्षस राजा थे, जिनका नाम हर किसी के कानों में बसा हुआ है। लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि रावण का जन्म कैसे हुआ और उनकी कहानी का आधार क्या है? चलिए, हम एक नए पहलुओं की ओर बढ़ते हैं और जानते हैं उनके पूर्व जन्म की कथा को।

कैकय  देश का राजा प्रतापभानु अत्यंत वीर, साहसी, धर्मपरायण,तेजस्वी और विद्वान्‌ था। उसके शासन में प्रजा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी। प्रतापभानु का अरिमर्दन नामक एक भाई भौ था, जो उसी के समान श्रेष्ठ गुणों से संपन्न था। दोनों भाइयों को नीतियुक्त मार्ग बताने तथा उसका अनुसरण करवाने का भार धर्मरुचि नामक परम विद्वान्‌ मंत्री पर था। अपने नाम के अनुरूप धर्मरुचि की धर्म में अगाध श्रद्धा थी। वह भगवान्‌ विष्णु का अनन्य भक्त था और सदैव उन्हीं के ध्यान में मग्न रहता था। इस प्रकार तीन श्रेष्ठ पुरुषों की देखरेख में कैकय देश का शासन-कार्य नीति, धर्म और सदाचार के अनुसार चल रहा था।

कैकय देश के पड़ोसी देश में सोमदत्त नामक राजा राज्य करता था। वह बड़ा क्रूर, मायावी, दुष्ट और पापी व्यक्ति था। भोग-विलास में डूबे रहना उसका नित्य का कार्य था। आरंभ से ही उसकी आँखों में कैकय देश का वैभव और संपन्नता खटक रही थी। वह किसी भी तरह से उसे जीत लेना चाहता था। किंतु बल और शक्ति में उसकी सेनाएँ कैकय देश की तुलना में कमजोर थीं। युद्ध में कैकय देश को जीतना असंभव था, इसलिए उसने माया का सहारा लिया।

एक दिन राजा को समाचार मिला कि उनके राज्य में एक जंगली वराह ने तांडव  मचा रखा है। वह प्रत्येकदिवस  किसी-न-किसी को मार देता है। प्रजा को इस प्रकार आतंकित देख प्रतापभानु अत्यंत क्रोधित हो उठा। उसने उस वराह को मारने का निश्चय कर लिया। तदनंतर धनुष धारण करके वह उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ से वराह वन की ओर भागता था। दो दिन प्रतीक्षा करने के बाद प्रतापभानु को वराह दिखाई दिया। राजा ने अपना घोड़ा उसके पीछे लगा दिया। वाराह जान बचाता हुआ घने वन में घुस गया। प्रतापभानु भी उसका पीछा करते हुए वन की ओर चल पड़ा। आज वह किसी भी तरह वराह को मार डालना चाहता था। इसी बीच वह अपने सैनिकों से बिछुड़ गया।

वन के बीचोबीच पहुँचकर वराह आँखों से ओझल गया और प्रतापभानु भूख-प्यास से व्यथित होकर इधर-उधर भटकने लगा। सहसा उसे एक कुटिया दिखाई दी। कुटिया के प्रांगण में एक साधु हवन कर रहा था। उसे देखकर  प्रतापभानु की जान-में-जान आई  ) उसने साधु के पास जाकर अपना परिचय दिया। साधु ने प्रतापभानु को खाने के लिए फल दिए। तदनंतर वन में आने का कारण पूछा। प्रतापभानु ने सारी घटना कह सुनाई। तब साधु उपदेश देते हुए बोला, '“राजन्‌, आपके प्रताप से कौन परिचित नहीं है। आपकी श्रेष्ठता का गुणगान तो देवलोक में भी किया जाता है। प्रजा की संतुष्टि से ही स्पष्ट हो जाता है कि आप एक कुशल शासक हो। आपके नेतृत्व में ही कैकय देश महानता के शिखर पर विराजमान है। यह धरा भी आपको पाकर धन्य है। राजन्‌! अब वह भयंकर वराह आपके राज्य की ओर कभी नहीं आएगा। मैं अपने तपबल से उसे स्वयं ही मार डालूँगा। आप निश्चिंत रहें।साधु की बातें सुनकर प्रतापभानु गद्गद होते हुए बोला,  आप जैसे साधुजन की कृपा के कारण ही मैं राज्य को उचित और न्यायप्रिय व्यवस्था करने में सक्षम हूँ। राज्य के समस्त वैभव और संपन्नता के पीछे आपका ही आशीर्वाद है। हे मुनिवर! वराह को मारकर आप मेरी प्रजा पर उपकार करेंगे। यद्यपि में आपके इस उपकार का ऋण कभी नहीं चुका सकता, तथापि मैं आपकी सेवा करना चाहता है 

साधु हँसते हुए बोला, “राजन्‌! हम साधुओं को सेवा से कोई सरोकार नहीं. है। लेकिन यदि आप कुछ करना ही चाहते हैं तो अपने राज्य के समस्त ब्राह्मणों को सपरिवार भोजन करवा दें। इससे उनके आशीर्वाद से आपके राज्य में सुख-समृद्धि का वास होगा और  आपका यह कार्य सभी को सुख देनेवाला होगा।''

“जैसी आपकी आज्ञा, मुनिवर! अब आप पुरोहित बनकर मेरे साथ चलने का कष्ट करें, जिससे मैं अतिशीघ्र इस पुण्य कार्य को संपन्न कर सकूँ।'” प्रतापभानु ने कृतज्ञ शब्दों में कहा।

साधु थोड़ा क्रोधित होते  हुआ बोला, हे  राजन्‌! सामाजिकबंधनों से विमुख हुए मुझे अनेक वर्ष हो गए हैं इसलिए  अब में किसी भी समारोह में सम्मिलित नहीं होता। अतः मैं आपके पुण्यकार्य में पुरोहित नहीं बन सकता। परंतु आपकी इच्छा को देखते हुए में अपने एक योग्य शिष्य को आपका पुरोहित बनाकर अवश्य भेजूँगा। वह आपके समस्त कार्य कुशलतापूर्वक संपन्न करवाएगा। अब आप घर लौट जाएँ। ठीक तीन दिन के बाद मेरा शिष्य आपके पास “पहुँच जाएगा इसके बाद साधु को प्रणाम कर प्रतापभानु वापस लौट गया।

तभी वह भयंकर वराह साधु के पास आ पहुँचा, जिसका पीछा प्रतापभानु कर रहा था। देखते-ही-देखते वराह ने एक विशालकाय राक्षस का रूप धारण कर लिया। उसका नाम कालकेतु था, जिसके अत्याचारी पुत्रों को राजा प्रताप भानु ने मार डाला था।

कालकेतु भयंकर अट्टहास करते हुए बोला, “तुमने आज अपनी बुद्धिमत्ता से श्रेष्ठ अभिनयकर्ता को भी मात कर दिया। जिस प्रकार प्रतापभानु को तुमने दिग्भ्रमित किया है, राजा  कभी नहीं समझ सकेगा कि तुम कोई साधु नहीं, हो  साधु के वेश में उसके सबसे बड़े शत्रु सोमदत्त हो।

साधु-वेशधारी सोमदत्त भी अपने वास्तविक रूप में आ गया और हँसते हुए बोला, “'कालकेतु! इस योजना के पूर्ण होने में तुम्हारा योगदान सराहनीय है। यदि तुम उसे यहाँ तक न लाते तो हमारा षड्यंत्र कभी सफल नहीं होता। अब केवल अंतिम कार्य रह गया है। कालकेतु! अब तुम शीघ्रता से ब्राह्मण बनकर प्रतापभानु के पास जाओ और योजना का अंतिम चरण भी पूर्ण कर दो।इसके बाद कालकेतु और सोमदत्त अपने-अपने स्थानों की ओर चले गए।

उधर प्रतापभानु को ज्ञात नहीं था कि वह दो मायावी और पापी लोगों के बीच फँस चुका है। वह तो महल में पहुँचते ही ब्राह्मण-भोज की तैयारी में जुट गया। उसने सभी  को अपनेपरिवार के साथ  भोजन पर आमंत्रित भी कर दिया।

निश्चित दिन कालकेतु भी पुरोहित बनकर राजा प्रतापभानु के पास जा पहुँचा। प्रतापभानु ने उसका यथोचित आदर-सत्कार किया। भोजन से पूर्व कालकेतु भोजन के निरीक्षण का बहाना करके रसोईघर में जा पहुँचा और उसमें मांस मिला दिया। जैसे ही ब्राह्मण भोजन करने बैठे, अचानक एक आकाशवाणी हुई यह भोजन आपके ग्रहण करने योग्य नहीं है। इसमें मांस मिला हुआ है।''

आकाशवाणी सुनते ही चारों ओर हाहाकार मच गया। ब्राह्मण क्रोधित होकर अपने-अपने स्थानों से उठ खड़े हुए और प्रतापभानु को शाप देते हुए बोले, अधर्मी, पापी! तूने मांस परोसकर हमारे धर्म को भ्रष्ट करने का प्रयास किया है। तेरा यह कुकृत्य राक्षसों के समान हे। अतएव हम तुझे शाप देते हैं कि तू परिवार सहित राक्षस-योनि में जन्म ले।'' इसके बाद क्रोधित ब्राह्मण वहाँ से चले गए।यह सब इतनी तेजी से हुआ कि प्रतापभानु को कुछ समझने का अवसर ही नहीं मिला। उसे जब होश आया तो उसने सर्वप्रथम पुरोहित बने कालकेतु को खोजना  आरंभ किया। लेकिन वह वहाँ से जा चुका था। ब्राह्मणों का शाप प्रतापभानु को व्याकुल करने लगा।

इधर जब सोमदत्त को शाप की बात पता चली तो उसने उसी समय सेना लेकर कैकय देश पर आक्रमण कर दिया। ब्राह्मणों के शाप ने प्रतापभानु को पहले ही निस्तेज कर दिया था। इसी के चलते युद्ध में उसका पक्ष कमजोर पड़ता चला गया। अंत में प्रतापभानु अपने भाई अरिमर्दन और मंत्री धर्मरुचि के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ।

शाप के कारण अगले जन्म में प्रतापभानु ने विश्रवा ऋषि के घर जन्म लिया और रावण के नाम से विख्यात हुआ। उसको माता राक्षस-कुल को थी। प्रतापभानु के भाई अरिमर्दन ने कुभकर्ण और धर्मरुचि ने विभीषण के रूप में जन्म लिया। भगवान्‌ विष्णु का अनन्य भक्त होने के कारण धर्मरुचि राक्षस योनि में भी परम तपस्वी हुआ।

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