श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् (Shri Ram Sahasranama Stotram)एक अद्वितीय धार्मिक स्तोत्र है जो भगवान राम के 1000 नामों की महिमा को सुनाता है। यह पवित्र स्तोत्र हिंदू धर्म में विशेष महत्वपूर्ण है, जिसमें हर नाम भगवान की अद्वितीयता और गुणों की स्तुति करता है।इसका महत्व साधना मार्ग की दिशा में है, जिससे साधक भगवान के साथ एकाग्रता में रह सकता है। श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् (Shri Ram Sahasranama Stotram) का पाठ सन्यासी से लेकर गृहस्थ तक, सभी को आत्मिक शक्ति और शांति की प्राप्ति में सहायक हो सकता है।
Shri Ram Sahasranama Stotram:श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् पाठ करने का तरीका
श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् (Shri Ram Sahasranama Stotram) पाठ कैसे करे इसके जानकारी के लिए निचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करे
Shri Ram Sahasranama Stotram:श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित
अस्य श्रीरामसहस्रनाममालामन्त्रस्य विनायक ऋषिः अनुष्टुप
छन्दः श्रीरामो देवता महाविष्णुरिति बीजं गुणभृन्निर्गुणो महानिति
शक्तिः सच्विदानन्दविग्रह इति कोलकं श्रीरामप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।
इस श्रीरामसहस्रनाममाला मन्त्र का ऋषि विनायक है, जिसका अनुष्टुप छन्द है। इस मन्त्र की देवता महाविष्णु, बीज "श्रीरामो" है, और गुणभृत और निर्गुण स्वरूप के महानिति है। इस मन्त्र की शक्ति सच्चिदानंद स्वरूप है, और इसे "कोलकं" कहा जाता है। इसे श्रीराम की प्रीति के लिए जपा जाता है, जिसका विनियोग निम्नलिखित है:
(क) करन्यास:
ॐॐ श्रीरामचन्द्राय अङ्खुष्ठाभ्यां नमः।ॐ श्रीसीतापतये तर्जनीभ्यां नमः।ॐ श्रीरघुनाथाय पध्यमाभ्यां नमः।ॐ श्रीभरताग्रजाय अनामिकाभ्यां नमः।ॐ श्रोदशरथात्मजाय कनिष्टिकाभ्यां नमः।ॐ श्रीहनुमत्प्रभवे करतलकरपृष्टाभ्यां नमः।
(ख) हदयादिन्यासः-
ॐ श्रीरामचन्द्राय हृदयाय नमः।ॐ श्रीसीतापतये शिरसे स्वाहा।ॐ श्रीरघुनाथाय शिखायै वषट्।ॐ श्रीभरताग्रजाय कवचाय हम्।ॐ श्रीदशरथात्मजाय नेत्रत्रयाय वौषर्।ॐ श्रीहनुमत्प्रभवे अस्त्राय फट्।
ध्यानम्
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपदासनस्थंपीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पधिनेत्रं प्रसन्नम् ।वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभंनानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥।
उसके जानुबाहु आजानुभाव हैं, उसने शरधनुष्ठान को धारण किया हुआ है, उसके पैर बद्धपदासन में स्थित हैं, वह पीताम्बर धारण करता है, नवकमलों वाले दलस्पदिनेत्रों से प्रकाशित है, वह प्रसन्न है। उसके बायें ऊपरी भुजा पर सीता मुखकमल में आसीन है, जिसके चेहरे के लोचन नीरदा (काजल) की भांति हैं, और वह नाना आभूषणों से शोभित है, और उसके शिरस्तर में रामचन्द्र हैं।
नीलास्भोधरकान्तिकान्तमनिश्ं वीरासनाध्यासिनं
मुद्रां ज्ञानमयीं दधानमपरं हस्ताम्बुजं जानुनि।
सीतां पाश्वगतां सरोरुहकरां विद्युनिभां राघवं
पश्यन्तीं मुकुटाङ्दादिविविधाकल्पोज्ज्वलाद्धं भजे ॥
राजीवलोचनः श्रीमान् श्रीरामो रघुपुङ्खवः।रामभद्रः सदाचारो राजेन्द्रो जानकोपतिः।अग्रगण्यो वरेण्यश्च वरदः परमेश्वरःजनादनो जितामित्रः परार्थेकप्रयोजनः॥
विश्चासित्रप्रियो दान्तश्ञ्त्नुजिच्छन्रुतापनः।सर्वज्ञः सर्वदेवादिः शरण्यो वालिमर्दनः॥ज्ञानभाव्योऽपरिच्छेद्यो वाग्मी सत्यव्रतः शुचिः।ज्ञानगम्यो दृढप्रज्ञः खरध्वंसी प्रतापवान् ॥
द्युतिमानात्मवान् वीरो जितक्रोधोऽरिमर्दनः।विश्वरूपो विशालाक्षः प्रभुः परिवृढो दूढः॥ ईशः खड्गधरः श्रीमान् कौसलेयोऽनसूयकः।विपुलांसो महोरस्कः परमेष्ठी परायणः ॥ सत्यव्रतः सत्यसन्धो गुरुः परमधार्मिकः।लोकज्ञो लोकवन्द्यश्च लोकात्मा लोककृत्परः॥
अनादिर्भगवान् सेव्यो, जितमायो रघूद्धः।रामो दयाकरो दक्षः, सर्वज्ञः सर्वपावनः।ब्रह्मण्यो नीतिमान् गोप्ता, सर्वदेवमयो हरिः।सुन्दरः पीतवासाश्च, सूत्रकारः पुरातनः।
इसका अर्थ है:
अनादिर्भगवान् सेव्यो: वह भगवान अनादि है और पूजनीय है। जितमायो रघूद्धः: वह जयमान है, रघुकुल का उत्तम वंशी है।रामो दयाकरो दक्षः: राम दयालु है और कुशली है।सर्वज्ञः सर्वपावनः: वह सब ज्ञानी है और सभी को पवित्र करने वाला है।ब्रह्मण्यो नीतिमान् गोप्ता: वह ब्रह्मण्य है, नीतिमान है और सबका संरक्षक है।सर्वदेवमयो हरिः: वह सभी देवताओं से युक्त है और हरि है।सुन्दरः पीतवासाश्च: वह सुन्दर है और पीतांबर धारी है।सूत्रकारः पुरातनः: वह सूत्रकार है और अत्यंत प्राचीन है।
सौम्यो महर्षिः कोदण्डी, सर्वज्ञः सर्वकोविदः।कविः सुग्रीववरदः, सर्वपुण्याधिकप्रदः।भव्यो जितारिषद्ड्वर्गो, महोदरोऽघनाशनः।सुकीतिरादिपुरुषः, कान्तः पुण्यकृतागमः।
इसका अर्थ है:
अकल्मषश्चतुर्बाहिः, सर्वावासो दुरासदः।स्मितभाषी निवृत्तात्मा, स्मृतिमान् वीर्यवान् प्रभुः।धीरो दान्तो घनश्यामः, सर्वायुधविशारदः।अध्यात्मयोगनिलयः, सुमना लक्ष्मणाग्रजः।
सर्वतीर्थमयश्शरः, सर्वयक्ञषफलप्रदः।यज्ञस्वरूपी यज्ञेश, जरामरणवसितः।वर्णाश्रमकरो वाणीं, शत्रुजित् पुरुषोत्तमः।विभीषणप्रतिष्ठाता, परमात्मा परात्परः।
इन पंक्तियों का अर्थ है:
"सभी तीर्थों का सार है, सभी यज्ञों का फल प्रदान करने वाला है।यज्ञ के स्वरूप हैं, यज्ञों के ईश्वर हैं, जरा और मृत्यु से रहित हैं।वर्ण और आश्रमों को स्थापित करने वाले हैं, वाणी को प्राप्त करने वाले हैं, शत्रुओं को जीतने वाले पुरुषोत्तम हैं। विभीषण की स्थापना करने वाले हैं, परमात्मा हैं, सबसे परम परमेश्वर हैं।"
प्रमाणभूतो दुर्नेयः, पूर्णः परपुरञ्जयः।अनन्तदृष्टिरानन्दो, धनुर्वेदो धनुधरः।गुणाकरो गुणश्रेष्ठः, सच्चिदानन्दविग्रहः।अभिवन्द्यो महाकायो, विश्वकर्मां विशारदः।विनीतात्मा वीतरागः, तपस्वीशो जनेश्वरः।कल्याणप्रकृतिः कल्पः, सर्वेशः सर्वकामदः।
इसका अर्थ है:
अक्षयः पुरुषः साक्षी केशवः पुरुषोत्तमः।त्ोकक्राध्यक्चषो महामायो विभीषणवरप्रदः॥ आनन्दविग्रहो ज्योतिर्हनुमत्प्रभुरव्ययः।भ्राजिष्णुः सहनो भोक्ता सत्यवादी बहुश्रुतः ॥
सुखदः कारणं कर्तां भववबन्धविमोचनः।देवचूडामणि्नेता ब्रह्मण्यो ब्रह्मवर्धनः॥ संसारोत्तारको रामः सर्वदुःखविमोक्षकृत् ।विद्वत्तमो विश्वकर्ता विश्वहर्ता च विश्चकृत् ॥
नित्यो नियतकल्याणः सीताशोकविनाशकृत् ।काकुत्स्थः पुण्डरीकाक्षो विश्चामित्रभयापहः॥ मारीचमथनो रामो विराधवधपण्डितः।दुस्स्वप्रनाशनो रम्यः किरीटी त्रिद्ाधिपः॥
महाधनुर्महाकायो भीमो भीमपराक्रमः।तत्त्वस्वरूपी तत्त्वज्ञस्तत्त्ववादी सुविक्रमः ॥ भूतात्मा भूतकृत् स्वामी कालज्ञानी महापटुः।अनिर्विण्णो गुणग्राही निष्कलः कलङ्कहा ॥
स्वभावभद्रष्शत्रुघ्नः केशवः स्थाणुरीश्वरः ।भूतादिः शम्भुरादित्यः स्थविष्टष्शाश्चतो ध्रुवः ॥ कवची कुण्डली चक्रो खड्गी भक्तजनप्रियः ।अमृत्युर्जन्मरहितः सर्वजित् सर्वगोचरः ॥
अनुत्तमोऽप्रमेयात्मा सर्वादिर्गुणसागरः।समः समात्मा समगो जटामुकुटमण्डितः ॥ अजेयः सर्वभूतात्मा विष्वक्सेनो महातपाः ।लोकाध्यक्षो महाबाहरमृतो वेदवित्तमः ॥
सदहिष्णः सद्रतिः शास्ता विश्चयोनिर्महाद्युतिः।अतीन्द्र ऊजितः प्राशुरपेन्द्रो वामनो बली ॥ धनुवदो विधाता च ब्रह्मा विष्णुश्च शद्धरः।हंसो मरीचिर्गोविन्दो रत्रगर्भो म्रहामतिः॥
"व्यासो वाचस्पतिः सर्वदपितासुरमर्दनः।जानकीवल्लभः पूज्यः प्रकटः प्रीतिवर्धनः।॥ ३३ ॥सम्भवोऽतीनद्धियो वेद्योऽनिर्देशो जाम्बवत्प्रभुः।मदनो मथनो व्यापी विश्वरूपो निरञ्जनः ॥ ३४॥"
"नारायणोऽग्रणीः साधुजंटायुप्रीतिवर्धनः।नैकरूपो जगन्नाथः सुरकार्यहितः स्वभूः ॥ ३५॥जितक्रोधो जितारातिः प्लवगाधिपराज्यद् ।वसुदः सुभुजो नैकमायो भव्यप्रमोदनः॥ ३६॥"
"चण्डाशुः सिद्धिदः कल्पः शरणागतवत्सलः ।अगदो रोगहर्ता च मन्त्रज्ञो मन्रभावनः॥ ३७॥सौमित्रिवत्सलो धुर्यां व्यक्ताव्यक्तस्वरूपधृक् ।वसिष्ठो ग्रामणीः श्रीमाननुकूलः प्रियंवदः ॥ ३८ ॥"
"अतुलः सात्विको धीरः शरासनविशारदः ।ज्येष्ठः सर्वगुणोपेतः शक्तिमांस्तारकान्तकः ॥ ३९॥वैकुण्ठः प्राणिनां प्राणः कमठः कमलापतिः ।गोवर्धनधरो मत्स्यरूपः कारुण्यसागरः ॥ ४०॥"
कुम्भकर्णप्रभेत्ता च गोपीगोपालसंवृतः ।मायावी व्यापको व्यापी रैणुकेयबलापहः ॥ ४१ ॥पिनाकमथनो वन्द्यः समर्थो गरुडध्वजः ।लोकत्रयाश्रयो लोकचरितो भरताग्रजः ॥ ४२ ॥
श्रीधरः सद्गतिर्लोकसाक्षी नारायणो बुधः ।मनोवेगी मनोरूपी पूर्णः पुरुषपुङ्गवः ॥ ४३ ॥यदुश्रेष्ठो यदुपतिर्भूतावासः सुविक्रमः ।तेजोधरो धराधारश्चतुर्मूर्तिर्महानिधिः ॥ ४४ ॥"
"श्रीधर - जो श्रीलक्ष्मी को धारण करने वाला है, सद्गति - सद्गति का स्वामी, लोकसाक्षी - सम्पूर्ण लोकों के साक्षी, नारायण - सम्पूर्ण जगत का आधार, बुध - ज्ञान स्वरूप, मनोवेगी - मानसिक शक्ति से युक्त, मनोरूपी - मानसिक रूप से सम्पन्न, पूर्णः - पूर्ण स्वरूप, पुरुषपुङ्गवः - पुरुषों का प्रमुख। यदुश्रेष्ठ - यदु वंश के श्रेष्ठ, यदुपतिः - यदु वंश के राजा, भूतावासः - सम्पूर्ण भूतों का आश्रय, सुविक्रमः - पराक्रमी, तेजोधरः - ज्यों का त्यों ब्रह्मा, धराधारः - भूमि को धारण करने वाला, चतुर्मूर्तिः - चार मूर्तियों वाला, महानिधिः - महान धन।"
चाणूरमर्दनो दिव्यश्शान्तो भरतवन्दितः ।शब्दातिगो गभीरात्मा कोमलाङ्गः प्रजागरः ॥ ४५ ॥लोकगर्भश्शेषशायी क्षीराब्धिनिलयोऽमलः ।आत्मयोनिरदीनात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ ४६ ॥अमृतांशुर्महागर्भो निवृत्तविषयस्पृहः ।त्रिकालज्ञो मुनिस्साक्षी विहायसगतिः कृती ॥ ४७ ॥पर्जन्यः कुमुदो भूतावासः कमललोचनः ।श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासो वीरहा लक्ष्मणाग्रजः ॥ ४८ ॥लोकाभिरामो लोकारिमर्दनः सेवकप्रियः ।सनातनतमो मेघश्यामलो राक्षसान्तकृत् ॥ ४९ ॥दिव्यायुधधरः श्रीमानप्रमेयो जितेन्द्रियः ।भूदेववन्द्यो जनकप्रियकृत्प्रपितामहः ॥ ५० ॥
"चाणूरमर्दनो - चाणूर और मर्दन, दिव्यश्शान्तो - दिव्य और शांत, भरतवन्दितः - जिसे भरतवंश के लोग पूजते हैं। शब्दातिगो - शब्द से परे जाने वाला, गभीरात्मा - गहरा आत्मा, कोमलाङ्गः - कोमल अंगों वाला, प्रजागरः - प्राणियों का जागरूक रखने वाला। लोकगर्भश्शेषशायी - सम्पूर्ण लोकों का गर्भ में सहायक, क्षीराब्धिनिलयोऽमलः - क्षीर सागर में निवास करने वाला और अमल, आत्मयोनिरदीनात्मा - स्वयं का शरीर न धारण करने वाला और अदीन आत्मा, सहस्राक्षः सहस्रपात् - हजार आंखों वाला और हजार हाथीयों वाला। अमृतांशुर्महागर्भो - अमृत के किरणों का स्रोत, निवृत्तविषयस्पृहः - विषयों से निवृत्त और निराशावादी, त्रिकालज्ञो - तीनों कालों का ज्ञानी, मुनिस्साक्षी - मुनियों का साक्षात्कारी, विहायसगतिः कृती - जगत की समस्त प्रवृत्तियों को छोड़कर एकमात्र गतिवाला। पर्जन्यः - वृष्टि करने वाला, कुमुदो - शान्ति देने वाला, भूतावासः - सम्पूर्ण भूतों का आश्रय, कमललोचनः - कमल की भांति शुभ नेत्रों वाला, श्रीवत्सवक्षाः - श्रीवत्स चिह्न से सुसज्जित हृदय वाला, श्रीवासो - श्रीवास नामक लक्ष्मीपति, वीरहा - वीरों का हनन करने वाला और लक्ष्मण के भाई।लोकाभिरामो - सम्पूर्ण लोकों को आकर्षित करने वाला, लोकारिमर्दनः - लोकों का संहार करने वाला, सेवकप्रियः - अपने भक्तों को प्रिय, सनातनतमो - सनातन और अत्यंत शांत, मेघश्यामलो - मेघ की भांति श्यामल रंगवाला, राक्षसान्तकृत् - राक्षसों का संहार करने वाला। दिव्यायुधधरः - दिव्य औषधियों का धारण करने वाला, श्रीमान - श्रीमान, अप्रमेयो - अप्रमेय, जितेन्द्रियः - इंद्रियों को जीतने वाला, भूदेववन्द्यो - भूदेवताओं का पूजनीय, जनकप्रियकृत् - जनकपति जनक के प्रियकर्ता और प्रपितामहः - प्रजापतिमहान्।
उत्तमः सात्विकः सत्यः सत्यसन्धस्त्रिविक्रमः ।सुव्रतः सुलभः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुधीः ॥ ५१ ॥दामोदरोऽच्युतश्शार्ङ्गी वामनो मधुराधिपः ।देवकीनन्दनः शौरिः शूरः कैटभमर्दनः ॥ ५२ ॥सप्ततालप्रभेत्ता च मित्रवंशप्रवर्धनः ।कालस्वरूपी कालात्मा कालः कल्याणदः कविःसंवत्सर ऋतुः पक्षो ह्ययनं दिवसो युगः ॥ ५३ ॥स्तव्यो विविक्तो निर्लेपः सर्वव्यापी निराकुलः ।अनादिनिधनः सर्वलोकपूज्यो निरामयः ॥ ५४ ॥रसो रसज्ञः सारज्ञो लोकसारो रसात्मकः ।सर्वदुःखातिगो विद्याराशिः परमगोचरः ॥ ५५ ॥शेषो विशेषो विगतकल्मषो रघुनायकः ।वर्णश्रेष्ठो वर्णवाह्यो वर्ण्यो वर्ण्यगुणोज्ज्वलः ॥ ५६ ॥कर्मसाक्ष्यमरश्रेष्ठो देवदेवः सुखप्रदः ।देवाधिदेवो देवर्षिर्देवासुरनमस्कृतः ॥ ५७ ॥सर्वदेवमयश्चक्री शार्ङ्गपाणी रघूत्तमः ।मनो बुद्धिरहङ्कारः प्रकृतिः पुरुषोऽव्ययः ॥ ५८ ॥अहल्यापावनः स्वामी पितृभक्तो वरप्रदः ।न्यायो न्यायी नयी श्रीमान्नयो नगधरो ध्रुवः ॥ ५९ ॥लक्ष्मीविश्वम्भराभर्ता देवेन्द्रो बलिमर्दनः ।वाणारिमर्दनो यज्वानुत्तमो मुनिसेवितः ॥ ६० ॥
उत्तमः - श्रेष्ठ, सात्विकः - सात्विक प्रकृति वाला, सत्यः - सत्य, सत्यसन्धः - सत्य में स्थित, त्रिविक्रमः - तीनों लोकों को विक्रमी, सुव्रतः - सुप्रतिष्ठित व्रतों का पालन करने वाला, सुलभः - सुलभ, सूक्ष्मः - सूक्ष्म, सुघोषः - सुखदायक शब्दों का गोंवा बजाने वाला, सुखदः - सुख प्रद, सुधीः - बुद्धिमान। दामोदरः - जिसने दामन में बाँधा, अच्युतः - जो अच्युत है (जो कभी गिरा नहीं), शार्ङ्गी - शार्ङ्ग धनुष धारण करने वाला, वामनः - वामन स्वरूप, मधुराधिपः - मधुरा के राजा, देवकीनन्दनः - देवकी के पुत्र, शौरिः - शौरि कुल का, शूरः - वीर। सप्ततालप्रभेत्ता - सप्तताल को सम्भालने वाला, मित्रवंशप्रवर्धनः - मित्रवंश को बढ़ाने वाला, कालस्वरूपी - समय की सृष्टि में स्थित, कालात्मा - समय का स्वरूप, कालः - समय, कल्याणदः - कल्याणकारी, कविः - कवि (कल्याणकारी कविताओं का रचनाकर्ता), संवत्सर - संवत्सर, ऋतुः - ऋतु, पक्षः - पक्ष, ह्ययनं - ह्ययन, दिवसः - दिन, युगः - युग। स्तव्यो - प्रशंसनीय, विविक्तो - अलग, निर्लेपः - निर्लेप, सर्वव्यापी - सर्वत्र व्याप्त, निराकुलः - बिना किसी चिंता के, अनादिनिधनः - अनादि और निर्माणरहित, सर्वलोकपूज्यो - सम्पूर्ण लोकों द्वारा पूज्य, निरामयः - रोगरहित। रसो - रस, रसज्ञः - रस का ज्ञाता, सारज्ञः - सार का ज्ञाता, लोकसारो - लोक का सार, रसात्मकः - रस स्वरूप, सर्वदुःखातिगो - सम्पूर्ण दुःखों को तरने वाला, विद्याराशिः - विद्या की धारा, परमगोचरः - परम गोचर।शेषो - शेष नाग, विशेषो - अतिशय श्रेष्ठ, विगतकल्मषो - समस्त कल्मषों से रहित, रघुनायकः - रघु वंश के नायक, वर्णश्रेष्ठो - वर्ण में श्रेष्ठ, वर्णवाह्यो - वर्णों को बढ़ाने वाला, वर्ण्यो - प्रशंसनीय, वर्ण्यगुणोज्ज्वलः - गुणों में उज्ज्वल। कर्मसाक्ष्यमरश्रेष्ठो - कर्मों का साक्षात्कारी और अश्रेष्ठ, देवदेवः - देवों के देव, सुखप्रदः - सुख प्रद, देवाधिदेवो - देवों के अधिपति, देवर्षिर्देवासुरनमस्कृतः - देव ऋषियों, देवताओं और आसुरों द्वारा नमस्कृत। सर्वदेवमयः चक्री शार्ङ्गपाणी रघूत्तमः - सम्पूर्ण देवताओं से पूर्ण, शार्ङ्गपाणी - शार्ङ्ग धनुष धारण करने वाला और रघूत्तम - रघुकुल श्रेष्ठ। मनो - मन, बुद्धिः - बुद्धि, अहङ्कारः - अहंकार, प्रकृतिः - प्रकृति, पुरुषोऽव्ययः - अविनाशी। ।"न्यायो - न्याय, न्यायी - न्यायशील, नयी - नई, श्रीमान् - श्रीमान, नयो - नयवान, नगधर - नागों का सारथी, ध्रुवः - अद्वितीय और स्थिर। लक्ष्मीविश्वम्भराभर्ता - लक्ष्मी को धारण करने वाला और विश्व को धारण करने वाला, देवेन्द्रो - देवताओं का राजा, बलिमर्दनः - बलि राक्षस का संहार करने वाला, वाणारिमर्दनो - वानरों का संहार करने वाला, यज्वानुत्तमो - यज्ञों के उत्तम करने वाला, मुनिसेवितः - महर्षियों की पूजा में होने वाला।
देवाग्रणीः शिवध्यानतत्परः परमः परः ।सामगेयः प्रियोऽक्रूरः पुण्यकीर्तिस्सुलोचनः ॥ ६१ ॥पुण्यः पुण्याधिकः पूर्वः पूर्णः पूरयिता रविः ।जटिलः कल्मषध्वान्तप्रभञ्जनविभावसुः ॥ ६२ ॥अव्यक्तलक्षणोऽव्यक्तो दशास्यद्विपकेसरी ।कलानिधिः कलानाथो कमलानन्दवर्धनः ॥ ६३ ॥जयी जितारिः सर्वादिः शमनो भवभञ्जनः ।अलङ्करिष्णुरचलो रोचिष्णुर्विक्रमोत्तमः ॥ ६४ ॥आशुः शब्दपतिः शब्दागोचरो रञ्जनो रघुः ।निश्शब्दः प्रणवो माली स्थूलः सूक्ष्मो विलक्षणः ॥ ६५ ॥आत्मयोनिरयोनिश्च सप्तजिह्वः सहस्रपात् ।सनातनतमस्स्रग्वी पेशलो जविनां वरः ॥ ६६ ॥शक्तिमाञ्शङ्खभृन्नाथः गदापद्मरथाङ्गभृत् ।निरीहो निर्विकल्पश्च चिद्रूपो वीतसाध्वसः ॥ ६७ ॥शताननः सहस्राक्षः शतमूर्तिर्धनप्रभः ।हृत्पुण्डरीकशयनः कठिनो द्रव एव च ॥ ६८ ॥उग्रो ग्रहपतिः श्रीमान् समर्थोऽनर्थनाशनः ।अधर्मशत्रू रक्षोघ्नः पुरुहूतः पुरुष्टुतः ॥ ६९ ॥ब्रह्मगर्भो बृहद्गर्भो धर्मधेनुर्धनागमः ।हिरण्यगर्भो ज्योतिष्मान् सुललाटः सुविक्रमः ॥ ७० ॥
शिवपूजारतः श्रीमान् भवानीप्रियकृद्वशी ।नरो नारायणः श्यामः कपर्दी नीललोहितः ॥ ७१ ॥रुद्रः पशुपतिः स्थाणुर्विश्वामित्रो द्विजेश्वरः ।मातामहो मातरिश्वा विरिञ्चो विष्टरश्रवाः ॥ ७२ ॥अक्षोभ्यः सर्वभूतानां चण्डः सत्यपराक्रमः ।वालखिल्यो महाकल्पः कल्पवृक्षः कलाधरः ॥ ७३ ॥निदाघस्तपनोऽमोघः श्लक्ष्णः परबलापहृत् ।कबन्धमथनो दिव्यः कम्बुग्रीव शिवप्रियः ॥ ७४ ॥शङ्खोऽनिलः सुनिष्पन्नः सुलभः शिशिरात्मकः ।असंसृष्टोऽतिथिः शूरः प्रमाथी पापनाशकृत् ॥ ७५ ॥वसुश्रवाः कव्यवाहः प्रतप्तो विश्वभोजनः ।रामो नीलोत्पलश्यामो ज्ञानस्कन्धो महाद्युतिः ॥ ७६ ॥पवित्रपादः पापारिर्मणिपूरो नभोगतिः ।उत्तारणो दुष्कृतिहा दुर्धर्षो दुस्सहोऽभयः ॥ ७७ ॥अमृतेशोऽमृतवपुर्धर्मी धर्मः कृपाकरः ।भर्गो विवस्वानादित्यो योगाचार्यो दिवस्पतिः ॥ ७८ ॥उदारकीर्तिरुद्योगी वाङ्मयः सदसन्मयः ।नक्षत्रमाली नाकेशः स्वाधिष्ठानः षडाश्रयः ॥ ७९ ॥चतुर्वर्गफलो वर्णी शक्तित्रयफलं निधिः ।निधानगर्भो निर्व्याजो गिरीशो व्यालमर्दनः ॥ ८० ॥
श्रीवल्लभः शिवारम्भः शान्तिर्भद्रः समञ्जसः ।भूशयो भूतिकृद्भूतिर्भूषणो भूतवाहनः ॥ ८१ ॥अकायो भक्तकायस्थः कालज्ञानी महावटुः ।परार्थवृत्तिरचलो विविक्तः श्रुतिसागरः ॥ ८२ ॥स्वभावभद्रो मध्यस्थः संसारभयनाशनः ।वेद्यो वैद्यो वियद्गोप्ता सर्वामरमुनीश्वरः ॥ ८३ ॥सुरेन्द्रः करणं कर्म कर्मकृत्कर्म्यधोक्षजः ।ध्येयो धुर्यो धराधीशः सङ्कल्पः शर्वरीपतिः ॥ ८४ ॥परमार्थगुरुर्वृद्धः शुचिराश्रितवत्सलः ।विष्णुर्जिष्णुर्विभुर्वन्द्यो यज्ञेशो यज्ञपालकः ॥ ८५ ॥प्रभविष्णुर्ग्रसिष्णुश्च लोकात्मा लोकभावनः ।केशवः केशिहा काव्यः कविः कारणकारणम् ॥ ८६ ॥कालकर्ता कालशेषो वासुदेवः पुरुष्टुतः ।आदिकर्ता वराहश्च माधवो मधुसूदनः ॥ ८७ ॥नारायणो नरो हंसो विष्वक्सेनो जनार्दनः ।विश्वकर्ता महायज्ञो ज्योतिष्मान् पुरुषोत्तमः ॥ ८८ ॥वैकुण्ठः पुण्डरीकाक्षः कृष्णः सूर्यः सुरार्चितः ।नारसिंहो महाभीमो वक्रदम्ष्ट्रो नखायुधः ॥ ८९ ॥आदिदेवो जगत्कर्ता योगीशो गरुडध्वजः ।गोविन्दो गोपतिर्गोप्ता भूपतिर्भुवनेश्वरः ॥ ९० ॥
पद्मनाभो हृषीकेशो धाता दामोदरः प्रभुः ।त्रिविक्रमस्त्रिलोकेशो ब्रह्मेशः प्रीतिवर्धनः ॥ ९१ ॥वामनो दुष्टदमनो गोविन्दो गोपवल्लभः ।भक्तप्रियोऽच्युतः सत्यः सत्यकीर्तिर्धृतिः स्मृतिः ॥ ९२ ॥कारुण्यं करुणो व्यासः पापहा शान्तिवर्धनः ।संन्यासी शास्त्रतत्त्वज्ञो मन्दराद्रिनिकेतनः ॥ ९३ ॥बदरीनिलयः शान्तस्तपस्वी वैद्युतप्रभः ।भूतावासो गुहावासः श्रीनिवासः श्रियः पतिः ॥ ९४ ॥तपोवासो मुदावासः सत्यवासः सनातनः ।पुरुषः पुष्करः पुण्यः पुष्कराक्षो महेश्वरः ॥ ९५ ॥पूर्णमूर्तिः पुराणज्ञः पुण्यदः प्रीतिवर्धनः ।शङ्खी चक्री गदी शार्ङ्गी लाङ्गली मुसली हली ॥ ९६ ॥किरीटी कुण्डली हारी मेखली कवची ध्वजी ।योद्धा जेता महावीर्यः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ॥ ९७ ॥शास्ता शास्त्रकरः शास्त्रं शङ्कर शङ्करस्तुतः ।सारथिः सात्त्विकः स्वामी सामवेदप्रियः समः ॥ ९८ ॥पवनः संहतः शक्तिः सम्पूर्णाङ्गः समृद्धिमान् ।स्वर्गदः कामदः श्रीदः कीर्तिदोऽकीर्तिनाशनः ॥ ९९ ॥मोक्षदः पुण्डरीकाक्षः क्षीराब्धिकृतकेतनः ।सर्वात्मा सर्वलोकेशः प्रेरकः पापनाशनः ॥ १०० ॥
"पद्मनाभो - पद्म की आधारशिला वाला, हृषीकेशो - सब इंद्रियों के स्वामी, धाता - जगत का पालक, दामोदरः - दामन बांधने वाला, प्रभुः - परमेश्वर,त्रिविक्रमः - तीनों लोकों का विक्रमी, त्रिलोकेशो - तीनों लोकों के स्वामी, ब्रह्मेशः - ब्रह्मा, प्रीतिवर्धनः - प्रेम की वृद्धि करने वाला, वामनो - वामन, दुष्टदमनो - दुष्टों को मारने वाला, गोविन्दो - गोपों का पालक, गोपवल्लभः - गोपियों का प्रिय, भक्तप्रियोऽच्युतः - भक्तों का प्रिय और अच्युत, सत्यः - सत्य, सत्यकीर्तिर्धृतिः - सत्य की प्रशंसा करने वाला और धृति, स्मृतिः - स्मृति,कारुण्यं - करुणा, करुणो - करुणामय, व्यासः - व्यास, पापहा - पापों का नाश करने वाला, शान्तिवर्धनः - शान्ति की वृद्धि करने वाला, संन्यासी - संन्यासी, शास्त्रतत्त्वज्ञो - शास्त्रतत्त्व के ज्ञानी, मन्दराद्रिनिकेतनः - मन्दराचल पर्वत में निवास करने वाला, बदरीनिलयः - बदरी की निवासी, शान्तः - शान्त, तपस्वी - तपस्वी, वैद्युतप्रभः - बिजली की तरह प्रकाशमान, भूतावासो - भूतों का निवास, गुहावासः - गुहाओं में वास, श्रीनिवासः - श्रीराम का आश्रय, श्रियः पतिः - श्री का पति, तपोवासो - तप का आश्रय, मुदावासः - मुदा का आश्रय, सत्यवासः - सत्य का आश्रय, सनातनः - सनातन, पुरुषः - पुरुष, पुष्करः - पुष्कर, पुण्यः - पुण्यमय, पुष्कराक्षो - पुष्कराक्ष, महेश्वरः - महेश्वर, पूर्णमूर्तिः - संपूर्ण रूपवाला, पुराणज्ञः - पुराणों का ज्ञानी, पुण्यदः - पुण्य दान करने वाला, प्रीतिवर्धनः - प्रेम की वृद्धि करने वाला, शङ्खी - शंख (पंचजन्य) चक्री - चक्र, गदी - गदा, शार्ङ्गी - शार्ङ्गी (धनुष), लाङ्गली - लाङ्गल (अज्ञेय), मुसली - मुसल (मूसल), हली - हल (प्लौघ), किरीटी - किरीट (मुकुट), कुण्डली - कुण्डल (कानकी), हारी - हार, मेखली - मेखला, कवची - कवच, ध्वजी - ध्वज, योद्धा - योद्धा, जेता - जीतने वाला, महावीर्यः - महावीर, शत्रुजिच्छत्रुतापनः - शत्रुओं का भयभंकर, शास्ता - शासक, शास्त्रकरः - शास्त्रों के ज्ञाता, शास्त्रं - शास्त्र, शङ्कर - भगवान शिव, शङ्करस्तुतः - शिव की स्तुति करने वाला, सारथिः - अर्जुन के सारथि, सात्त्विकः - सात्त्विक, स्वामी - स्वामी, सामवेदप्रियः - सामवेद का प्रिय, समः - सम, पवनः - पवन, संहतः - संहारक, शक्तिः - शक्तिमान, सम्पूर्णाङ्गः - सम्पूर्ण शरीर वाला, समृद्धिमान् - समृद्धि वाला, स्वर्गदः - स्वर्ग दान करने वाला, कामदः - कामनाओं को पूर्ण करने वाला, श्रीदः - श्री प्रदान करने वाला, कीर्तिदोऽकीर्तिनाशनः - कीर्ति और अकीर्ति को नष्ट करने वाला, मोक्षदः - मोक्ष प्रदान करने वाला, पुण्डरीकाक्षः - पुण्डरीकाक्ष, क्षीराब्धिकृतकेतनः - क्षीर समुद्र को हलाहल बनाने वाला, सर्वात्मा - सम्पूर्ण जीवात्मा, सर्वलोकेशः - सम्पूर्ण लोकों के ईश्वर, प्रेरकः - प्रेरक, पापनाशनः - पापों का नाश करने वाला,
सर्वव्यापी जगन्नाथः सर्वलोकमहेश्वरः ।सर्गस्थित्यन्तकृद्देवः सर्वलोकसुखावहः ॥ १०१ ॥अक्षय्यः शाश्वतोऽनन्तः क्षयवृद्धिविवर्जितः ।निर्लेपो निर्गुणः सूक्ष्मो निर्विकारो निरञ्जनः ॥ १०२ ॥सर्वोपाधिविनिर्मुक्तः सत्तामात्रव्यवस्थितः ।अधिकारी विभुर्नित्यः परमात्मा सनातनः ॥ १०३ ॥अचलो निर्मलो व्यापी नित्यतृप्तो निराश्रयः ।श्यामो युवा लोहिताक्षो दीप्तास्यो मितभाषणः ॥ १०४ ॥आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाभुजः ।सत्यवान् गुणसम्पन्नः स्वयन्तेजाः सुदीप्तिमान् ॥ १०५ ॥कालात्मा भगवान् कालः कालचक्रप्रवर्तकः ।नारायणः परञ्ज्योतिः परमात्मा सनातनः ॥ १०६ ॥विश्वसृड् विश्वगोप्ता च विश्वभोक्ता च शाश्वतः ।विश्वेश्वरो विश्वमूर्तिर्विश्वात्मा विश्वभावनः ॥ १०७ ॥सर्वभूतसुहृच्छान्तः सर्वभूतानुकम्पनः ।सर्वेश्वरेश्वरः सर्वः श्रीमानाश्रितवत्सलः ॥ १०८ ॥सर्वगः सर्वभूतेशः सर्वभूताशयस्थितः ।अभ्यन्तरस्थस्तमसश्छेत्ता नारायणः परः ॥ १०९ ॥अनादिनिधनः स्रष्टा प्रजापतिपतिर्हरिः ।नरसिंहो हृषीकेशः सर्वात्मा सर्वदृग्वशी ॥ ११० ॥
"सर्वव्यापी जगन्नाथः - सभी जगह व्याप्त जगन्नाथ, सर्वलोकमहेश्वरः - सभी लोकों के महेश्वर, सर्वस्थित्यन्तकृद्देवः - सभी स्थिति में देवता, सर्वलोकसुखावहः - सभी लोकों में सुख देने वाला, अक्षय्यः - अक्षय, शाश्वतोऽनन्तः - शाश्वत और अनंत, क्षयवृद्धिविवर्जितः - क्षय और वृद्धि से रहित, निर्लेपो - अलेप से रहित, निर्गुणः - निर्गुण, सूक्ष्मो - सूक्ष्म, निर्विकारो - निर्विकार, निरञ्जनः - निरंजन, सर्वोपाधिविनिर्मुक्तः - सभी उपाधियों से मुक्त, सत्तामात्रव्यवस्थितः - केवल सत्ता में स्थित, अधिकारी - सर्वाधिकारी, विभुः - सम्पूर्ण व्याप्तिवाला, नित्यः - नित्य, परमात्मा - परमात्मा, सनातनः - सनातन, अचलो - अचल, निर्मलो - निर्मल, व्यापी - व्याप्त, नित्यतृप्तो - हमेशा संतुष्ट, निराश्रयः - निराश्रित, श्यामो - कृष्ण, युवा - युवक, लोहिताक्षो - लोहिताक्ष, दीप्तास्यो - प्रकाशमान आंशु, मितभाषणः - संक्षेप में बातें करने वाला, आजानुबाहुः - जानु के नीचे हाथ रखने वाला, सुमुखः - सुंदर मुखवाला, सिंहस्कन्धो - सिंह के समान कंधे वाला, महाभुजः - महाबाहु, सत्यवान् - सत्यवान, गुणसम्पन्नः - गुणों से समृद्ध, स्वयन्तेजाः - स्वयं तेजस्वी, सुदीप्तिमान् - प्रकाशमान, कालात्मा - कालरूपी आत्मा, भगवान् कालः - भगवान काल, कालचक्रप्रवर्तकः - कालचक्र का सर्वोत्तम, नारायणः - नारायण, परञ्ज्योतिः - परम प्रकाश, परमात्मा - परमात्मा, सनातनः - सनातन, विश्वसृड् - सब कुछ सृष्टि करने वाला, विश्वगोप्ता - सबका पालक, विश्वभोक्ता - सबका भोग, शाश्वतः - सदा रहने वाला, विश्वेश्वरो - सभी ईश्वरों का स्वामी, विश्वमूर्तिर्विश्वात्मा - सभी रूपों में समर्थ और सभी जीवात्माओं में व्याप्त, विश्वभावनः - सभी के हृदय में विद्यमान, सर्वभूतसुहृच्छान्तः - सभी भूतों के सखा और शान्त, सर्वभूतानुकम्पनः - सभी भूतों पर करुणा करने वाला, सर्वेश्वरेश्वरः - सभी ईश्वरों का ईश्वर, सर्वः - सभी, श्रीमान - श्रीमान, आश्रितवत्सलः - आश्रितों का प्रेमी, सर्वगः - सभी में व्याप्त, सर्वभूतेशः - सभी भूतों का ईश्वर, सर्वभूताशयस्थितः - सभी भूतों में स्थित, अभ्यन्तरस्थस्तमसः - अंधकार में व्याप्त, छेत्ता - छेदने वाला, नारायणः परः - नारायण,