श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित



श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् (Shri Ram Sahasranama Stotram)एक अद्वितीय धार्मिक स्तोत्र है जो भगवान राम के 1000 नामों की महिमा को सुनाता है। यह पवित्र स्तोत्र हिंदू धर्म में विशेष महत्वपूर्ण है, जिसमें हर नाम भगवान की अद्वितीयता और गुणों की स्तुति करता है।इसका महत्व साधना मार्ग की दिशा में है, जिससे साधक भगवान के साथ एकाग्रता में रह सकता है। श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् (Shri Ram Sahasranama Stotram) का पाठ सन्यासी से लेकर गृहस्थ तक, सभी को आत्मिक शक्ति और शांति की प्राप्ति में सहायक हो सकता है।

इसे भगवान राम की पूजा में शामिल करने से व्यक्ति भक्ति और आत्मा समर्पण की अद्वितीय अनुभूति करता है। यह ध्यान और समर्पण के माध्यम से भगवान के साथ एक नित्य संबंध की स्थापना करने में सहायक होता है, जो जीवन को सार्थक बनाता है।


Shri Ram Sahasranama Stotram:श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित



Shri Ram Sahasranama Stotram:श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम्  पाठ करने का तरीका 

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सहस्त्रनामस्तोत्र का पाठ कैसे करें

Shri Ram Sahasranama Stotram:श्री राम सहस्रनाम स्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित

अस्य श्रीरामसहस्रनाममालामन्त्रस्य विनायक ऋषिः अनुष्टुप
छन्दः श्रीरामो देवता महाविष्णुरिति बीजं गुणभृन्निर्गुणो महानिति
शक्तिः सच्विदानन्दविग्रह इति कोलकं श्रीरामप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।

इस श्रीरामसहस्रनाममाला मन्त्र का ऋषि विनायक है, जिसका अनुष्टुप छन्द है। इस मन्त्र की देवता महाविष्णु, बीज "श्रीरामो" है, और गुणभृत और निर्गुण स्वरूप के महानिति है। इस मन्त्र की शक्ति सच्चिदानंद स्वरूप है, और इसे "कोलकं" कहा जाता है। इसे श्रीराम की प्रीति के लिए जपा जाता है, जिसका विनियोग निम्नलिखित है:

(क) करन्यास:

ॐॐ श्रीरामचन्द्राय अङ्खुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ श्रीसीतापतये तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ श्रीरघुनाथाय पध्यमाभ्यां नमः।
ॐ श्रीभरताग्रजाय अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ श्रोदशरथात्मजाय कनिष्टिकाभ्यां नमः।
ॐ श्रीहनुमत्प्रभवे करतलकरपृष्टाभ्यां नमः।

ॐश्रीरामचन्द्राय" - अङ्खुष्ठ (बड़े अंगूठे) के लिए नमस्कार।
ॐ श्रीसीतापतये" - तर्जनी (तर्जनी उंगली) के लिए नमस्कार।
ॐ श्रीरघुनाथाय" - पध्यम (मध्यम उंगली) के लिए नमस्कार।
ॐ श्रीभरताग्रजाय" - अनामिका (अनामिका उंगली) के लिए नमस्कार।
ॐ श्रोदशरथात्मजाय" - कनिष्ठिका (कनिष्ठिका उंगली) के लिए नमस्कार।
ॐ श्रीहनुमत्प्रभवे" - करतल (हथेली) और करपृष्ठ (पीठ की ओर) के लिए नमस्कार।

(ख) हदयादिन्यासः-


ॐ श्रीरामचन्द्राय हृदयाय नमः।
ॐ श्रीसीतापतये शिरसे स्वाहा।
ॐ श्रीरघुनाथाय शिखायै वषट्।
ॐ श्रीभरताग्रजाय कवचाय हम्।
ॐ श्रीदशरथात्मजाय नेत्रत्रयाय वौषर्।
ॐ श्रीहनुमत्प्रभवे अस्त्राय फट्।

ॐ श्रीरामचन्द्राय हृदयाय नमः: हे श्रीरामचन्द्र, तुम्हारे चित्त में हमारा नमस्कार है।
ॐ श्रीसीतापतये शिरसे स्वाहा: हे सीतापति (श्रीराम), हम तुम्हारे शिर पर समर्पित हैं।
ॐ श्रीरघुनाथाय शिखायै वषट्: हे रघुनाथ (श्रीराम), हम तुम्हारे शिखा में वषट् मुद्रा बनाते हैं।
ॐ श्रीभरताग्रजाय कवचाय हम्: हे भरताग्रज (भरत), हम तुम्हारे कवच में समर्पित हैं।
ॐ श्रीदशरथात्मजाय नेत्रत्रयाय वौषर्: हे दशरथपुत्र (श्रीराम), हम तुम्हारे तीनों नेत्रों में वौषट् मुद्रा बनाते हैं।
ॐ श्रीहनुमत्प्रभवे अस्त्राय फट्: हे हनुमान, हम तुम्हारे प्रभावशाली अस्त्र के लिए फट् मंत्र बोलते हैं।

ध्यानम्

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपदासनस्थं
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पधिनेत्रं प्रसन्नम् ।
वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥।

उसके जानुबाहु आजानुभाव हैं, उसने शरधनुष्ठान को धारण किया हुआ है, उसके पैर बद्धपदासन में स्थित हैं, वह पीताम्बर धारण करता है, नवकमलों वाले दलस्पदिनेत्रों से प्रकाशित है, वह प्रसन्न है। उसके बायें ऊपरी भुजा पर सीता मुखकमल में आसीन है, जिसके चेहरे के लोचन नीरदा (काजल) की भांति हैं, और वह नाना आभूषणों से शोभित है, और उसके शिरस्तर में रामचन्द्र हैं।

नीलास्भोधरकान्तिकान्तमनिश्ं वीरासनाध्यासिनं
मुद्रां ज्ञानमयीं दधानमपरं हस्ताम्बुजं जानुनि।
सीतां पाश्वगतां सरोरुहकरां विद्युनिभां राघवं
पश्यन्तीं मुकुटाङ्दादिविविधाकल्पोज्ज्वलाद्धं भजे ॥ 


उसकी नीली अंशों वाली कान्ति से बोधित कान्तिकांतमयी है, वह सदैव वीरासन पर आसीन है, उसने मुद्रा को ज्ञानमयी बनाया है, और वह अपने परे हस्ताम्बुज (ऊपरी हथेली) पर अन्य बिना कुछ को धारण करता है। वह सीता को आश्रित किया हुआ है, जिसके कर लोटुस से सम्बद्ध हैं, वह राघव को देख रहा है, जिनकी चमक सूर्य की तरह है, और उसने उसे भजन करने का निर्देश दिया है।

राजीवलोचनः श्रीमान् श्रीरामो रघुपुङ्खवः।
रामभद्रः सदाचारो राजेन्द्रो जानकोपतिः।
अग्रगण्यो वरेण्यश्च वरदः परमेश्वरः
जनादनो जितामित्रः परार्थेकप्रयोजनः॥ 

राजीवलोचन, श्रीराम, रघुपुङ्खवंशी हैं।रामभद्र, सदाचारी, राजा की तरह बर्ताव करने वाले हैं, और जानकीपति हैं।उन्हें सर्वोत्तम और वंदनीय जाना जाता है, जो सभी का वरदानकारी और परमेश्वर हैं।
वह जनों का नाथ, जितने वाला मित्र, दूसरों के लाभ के लिए योग्य प्रयास करने वाले हैं

विश्चासित्रप्रियो दान्तश्ञ्त्नुजिच्छन्रुतापनः।
सर्वज्ञः सर्वदेवादिः शरण्यो वालिमर्दनः॥
ज्ञानभाव्योऽपरिच्छेद्यो वाग्मी सत्यव्रतः शुचिः।
ज्ञानगम्यो दृढप्रज्ञः खरध्वंसी प्रतापवान् ॥ 

"विश्चासित्रप्रिय, दान्त, श्याम, नृत्य और संगीत का अभ्यास करने वाले हैं।तीव्रता से तपस्या करने वाले, सीता के पति और रावण का शत्रु हैं।वे सभी ज्ञानी, सम्पूर्ण देवताओं के भगवान, शरणागतिपरायण हैं॥
ज्ञान से पूर्ण, अच्छेद्य, भाषा कुशल, सत्य के प्रति व्रती, और शुद्ध हैं।वे ज्ञान के माध्यम से बोझित किए जा सकने वाले हैं, सच्चे वक्ता, और दृढ़ प्रज्ञा से युक्त हैं। वे खर और रावण को समर्थन करने वाले हैं, और उनका प्रताप अद्वितीय है॥"

द्युतिमानात्मवान् वीरो जितक्रोधोऽरिमर्दनः।
विश्वरूपो विशालाक्षः प्रभुः परिवृढो दूढः॥ 
ईशः खड्गधरः श्रीमान् कौसलेयोऽनसूयकः।
विपुलांसो महोरस्कः परमेष्ठी परायणः ॥ 
सत्यव्रतः सत्यसन्धो गुरुः परमधार्मिकः।
लोकज्ञो लोकवन्द्यश्च लोकात्मा लोककृत्परः॥ 

जो प्रकाशमान, आत्मवान, वीर, क्रोध को जीतने वाला, शत्रुओं को मारने वाला है।
जिसका रूप सम्पूर्ण विश्व में है, जिनकी आँखें विशाल हैं, जो सभी पर प्रभुता करने वाले, परिपूर्ण और दृढ़ हैं॥
जो ईश्वर है, खडग धारी, श्रीमान, कौसल्या के पुत्र, अनसूया के पति।
जिनके आंसू बहुते हैं, महाकाय हैं, आकाश के समान बड़े हैं, परमेष्ठी और सर्वप्रिय हैं॥
जो सत्य के व्रती हैं, सत्य में स्थित हैं, गुरु हैं, परम धार्मिक हैं।
जो लोकों के ज्ञानी हैं, लोकों द्वारा पूज्य हैं, जो सम्पूर्ण लोक को धारण करने वाले, लोक कृत्परायण हैं॥"


अनादिर्भगवान् सेव्यो, जितमायो रघूद्धः।
रामो दयाकरो दक्षः, सर्वज्ञः सर्वपावनः।
ब्रह्मण्यो नीतिमान् गोप्ता, सर्वदेवमयो हरिः।
सुन्दरः पीतवासाश्च, सूत्रकारः पुरातनः।

इसका अर्थ है:

अनादिर्भगवान् सेव्यो: वह भगवान अनादि है और पूजनीय है। जितमायो रघूद्धः: वह जयमान है, रघुकुल का उत्तम वंशी है।रामो दयाकरो दक्षः: राम दयालु है और कुशली है।सर्वज्ञः सर्वपावनः: वह सब ज्ञानी है और सभी को पवित्र करने वाला है।ब्रह्मण्यो नीतिमान् गोप्ता: वह ब्रह्मण्य है, नीतिमान है और सबका संरक्षक है।सर्वदेवमयो हरिः: वह सभी देवताओं से युक्त है और हरि है।सुन्दरः पीतवासाश्च: वह सुन्दर है और पीतांबर धारी है।सूत्रकारः पुरातनः: वह सूत्रकार है और अत्यंत प्राचीन है।

सौम्यो महर्षिः कोदण्डी, सर्वज्ञः सर्वकोविदः।
कविः सुग्रीववरदः, सर्वपुण्याधिकप्रदः।
भव्यो जितारिषद्ड्वर्गो, महोदरोऽघनाशनः।
सुकीतिरादिपुरुषः, कान्तः पुण्यकृतागमः।

इसका अर्थ है:

सौम्यो महर्षिः कोदण्डी: वह महर्षि कोदण्डी स्वभाव का है और सौम्य है।
सर्वज्ञः सर्वकोविदः: वह सर्वज्ञ है और सभी को जानने वाला है।
कविः सुग्रीववरदः: वह कवि है और सुग्रीव को वर देने वाला है।
सर्वपुण्याधिकप्रदः: वह सभी पुण्यों को अधिकप्रदान करने वाला है।
भव्यो जितारिषद्ड्वर्गो: वह भव्य है और सभी दिशाओं को जीतने वाला है।
महोदरोऽघनाशनः: वह महोदर है और अघ नाशनी है, दुष्टों को नष्ट करने वाला है।
सुकीतिरादिपुरुषः: वह सुकीर्ति प्राप्त पुरुष है और आदिपुरुष है।
कान्तः पुण्यकृतागमः: वह सुन्दर है और पुण्य कृतागम है, शास्त्रों का आचारण करने वाला है।

अकल्मषश्चतुर्बाहिः, सर्वावासो दुरासदः।
स्मितभाषी निवृत्तात्मा, स्मृतिमान् वीर्यवान् प्रभुः।
धीरो दान्तो घनश्यामः, सर्वायुधविशारदः।
अध्यात्मयोगनिलयः, सुमना लक्ष्मणाग्रजः।

कल्मषश्चतुर्बाहिः - जिसके शरीर में कोई कलंक नहीं है और जो चार हाथी के समान बलशाली है।
सर्वावासो दुरासदः - जो सभी स्थानों में सुखी रहता है और दुश्मनों के लिए कठिनाईयों को देखता है।
स्मितभाषी निवृत्तात्मा - जो हमेशा हंसता रहता है और जिसका मन सदैव निवृत्त होता है।
स्मृतिमान् वीर्यवान् प्रभुः - जिसका स्मृतिशील है, जो बहादुर है और सभी पर अधिकारी है।
धीरो दान्तो घनश्यामः - जो धीर, दान्त, और काले रंग के हैं।
सर्वायुधविशारदः - जो सभी शस्त्रों का अद्वितीय निपुण है।
अध्यात्मयोगनिलयः - जो आत्मा के अध्यात्मिक योग में लगा हुआ है।
सुमना लक्ष्मणाग्रजः - जो लक्ष्मण के भाई हैं और जिनका मन श्रीराम के प्रति प्रेम से भरा हुआ है।

सर्वतीर्थमयश्शरः, सर्वयक्ञषफलप्रदः।
यज्ञस्वरूपी यज्ञेश, जरामरणवसितः।
वर्णाश्रमकरो वाणीं, शत्रुजित् पुरुषोत्तमः।
विभीषणप्रतिष्ठाता, परमात्मा परात्परः।

इन पंक्तियों का अर्थ है:

"सभी तीर्थों का सार है, सभी यज्ञों का फल प्रदान करने वाला है।यज्ञ के स्वरूप हैं, यज्ञों के ईश्वर हैं, जरा और मृत्यु से रहित हैं।वर्ण और आश्रमों को स्थापित करने वाले हैं, वाणी को प्राप्त करने वाले हैं, शत्रुओं को जीतने वाले पुरुषोत्तम हैं। विभीषण की स्थापना करने वाले हैं, परमात्मा हैं, सबसे परम परमेश्वर हैं।"

प्रमाणभूतो दुर्नेयः, पूर्णः परपुरञ्जयः।
अनन्तदृष्टिरानन्दो, धनुर्वेदो धनुधरः।
गुणाकरो गुणश्रेष्ठः, सच्चिदानन्दविग्रहः।
अभिवन्द्यो महाकायो, विश्वकर्मां विशारदः।
विनीतात्मा वीतरागः, तपस्वीशो जनेश्वरः।
कल्याणप्रकृतिः कल्पः, सर्वेशः सर्वकामदः।

इसका अर्थ है:

"प्रमाण से अत्यन्त ऊँचा, दुर्निवार्य है, सम्पूर्ण को पूर्णता से जीतने वाला है। अनंत दृष्टि, अनंत आनंद, वेदों का धनुष धारी, गुणों का करने वाला है, सर्वश्रेष्ठ है।सत्य, चित्त, आनंद की मूर्ति है, ब्रह्मविद्या के धनुर्वेत्ता है।महाकाय वाले को नमस्कार करने योग्य है, विश्वकर्ता में कुशल है, विनयशील और रागरहित आत्मा है।तपस्वी और जगत के ईश्वर हैं, कल्याण का स्वरूप हैं, सबका ईश्वर हैं, सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं।"

अक्षयः पुरुषः साक्षी केशवः पुरुषोत्तमः।
त्ोकक्राध्यक्चषो महामायो विभीषणवरप्रदः॥ 
आनन्दविग्रहो ज्योतिर्हनुमत्प्रभुरव्ययः।
भ्राजिष्णुः सहनो भोक्ता सत्यवादी बहुश्रुतः ॥ 


"अक्षय है, सबका साक्षी है, केशव है, सर्वोत्तम पुरुष है। अनंत की ओर दृष्टि रखने वाला, सम्पूर्ण माया को वश में करने वाला, विभीषण को वर देने वाला है।आनंद की मूर्ति है, प्रभा का स्रोत है, हनुमान का प्रभु है, अविनाशी है।
भ्राजिष्णु है, सहन करने वाला है, भोक्ता है, सत्य का प्रवक्ता है, बहुश्रुति है।"

सुखदः कारणं कर्तां भववबन्धविमोचनः।
देवचूडामणि्नेता ब्रह्मण्यो ब्रह्मवर्धनः॥ 
संसारोत्तारको रामः सर्वदुःखविमोक्षकृत् ।
विद्वत्तमो विश्वकर्ता विश्वहर्ता च विश्चकृत् ॥ 

"जो सुख प्रदान करने वाला है, संसारबंधन से मुक्ति प्रदान करने वाला है।देवचूड़ामणि का नेता है, ब्रह्मण्य, ब्रह्म की वृद्धि करने वाला है॥ संसार को तारने वाला राम है, सर्व दुःखों का मुक्ति प्रदान करने वाला है।विद्वान, विश्वकर्ता, विश्वहर्ता, और सबका कर्ता है, ऐसा करने वाला है॥ "

नित्यो नियतकल्याणः सीताशोकविनाशकृत् ।
काकुत्स्थः पुण्डरीकाक्षो विश्चामित्रभयापहः॥ 
मारीचमथनो रामो विराधवधपण्डितः।
दुस्स्वप्रनाशनो रम्यः किरीटी त्रिद्ाधिपः॥ 


जो सदा नित्य कल्याणमय है, सीता के दुख को नाश करने वाला है। काकुत्स्थ, पुण्डरीकाक्ष, विश्वभयहर्ता, और मित्रभय को दूर करने वाला है॥ मारीच को मथन करने वाला राम, विराध के वध का पंडित है।जो सुंदरता का स्वामी है, किरीटधारी, त्रिदशों के राजा है॥ 

महाधनुर्महाकायो भीमो भीमपराक्रमः।
तत्त्वस्वरूपी तत्त्वज्ञस्तत्त्ववादी सुविक्रमः ॥ 
भूतात्मा भूतकृत् स्वामी कालज्ञानी महापटुः।
अनिर्विण्णो गुणग्राही निष्कलः कलङ्कहा ॥ 


इसका अर्थ है:
"जो बड़ा धनुषधारी, महाकाय, भीम, भयंकर पराक्रमी है।जो वास्तविक स्वरूप है, तत्त्वज्ञ, तत्त्ववादी, और सुविक्रमी है॥ २५॥भूतात्मा, सम्पूर्ण भूतों का स्वामी, कालज्ञानी, महापटु है। जो अविन्न, गुणों को ग्रहण करने वाला, निष्कल, और कलंकरहित है॥ 

स्वभावभद्रष्शत्रुघ्नः केशवः स्थाणुरीश्वरः ।
भूतादिः शम्भुरादित्यः स्थविष्टष्शाश्चतो ध्रुवः ॥ 
कवची कुण्डली चक्रो खड्गी भक्तजनप्रियः ।
अमृत्युर्जन्मरहितः सर्वजित् सर्वगोचरः ॥ 


"स्वभाव से श्रेष्ठ, शत्रुओं को नष्ट करने वाला, केशव, स्थाणुरीश्वर है।भूतों का सृष्टिकर्ता, शम्भु, आदित्य, स्थायी और अचल हैं॥ कवच, कुण्डली, चक्र, खड़गी, भक्तों का प्रिय हैं।जो अमृत्यु है, जन्मरहित है, सबको जीतने वाला, सबके सामने है॥ 

अनुत्तमोऽप्रमेयात्मा सर्वादिर्गुणसागरः।
समः समात्मा समगो जटामुकुटमण्डितः ॥ 
अजेयः सर्वभूतात्मा विष्वक्सेनो महातपाः ।
लोकाध्यक्षो महाबाहरमृतो वेदवित्तमः ॥ 


"जो अनन्त, अप्रमेय, सर्व आदि है, सभी गुणों का समुद्र है।
समता रूप, सम आत्मा, समगो, और जटामुकुट से युक्त है॥ 
जो अजेय है, सभी भूतों का आत्मा है, विष्वक्सेन, महातपा है।
लोकों के अधीश्वर, महाबाहु, अमृत, और वेदों के ज्ञाता है॥ 

सदहिष्णः सद्रतिः शास्ता विश्चयोनिर्महाद्युतिः।
अतीन्द्र ऊजितः प्राशुरपेन्द्रो वामनो बली ॥ 
धनुवदो विधाता च ब्रह्मा विष्णुश्च शद्धरः।
हंसो मरीचिर्गोविन्दो रत्रगर्भो म्रहामतिः॥ 


"सदहिष्ण, सद्रति, शास्ता, विश्चय, अनिर्माणकर्ता, महाद्युतिमान।
अतीन्द्र, ऊर्जा से परिपूर्ण, प्राशु, अपेन्द्र, वामन, और बली है॥ ३९॥
धनुषधारी, विधाता, ब्रह्मा, विष्णु, शद्धर, हंस, मरीचि, गोविन्द, रत्रि के गर्भ में स्थित, महामति है॥ ३२॥"

"व्यासो वाचस्पतिः सर्वदपितासुरमर्दनः।
जानकीवल्लभः पूज्यः प्रकटः प्रीतिवर्धनः।॥ ३३ ॥
सम्भवोऽतीनद्धियो वेद्योऽनिर्देशो जाम्बवत्प्रभुः।
मदनो मथनो व्यापी विश्वरूपो निरञ्जनः ॥ ३४॥"


"व्यास, वाचस्पति, सर्वदा पितृहत्यार्थी, जानकी का प्रिय, पूजनीय, प्रकट, प्रेम को बढ़ाने वाले हैं।॥ ३३ ॥
सम्भव, अतींद्रिय, वेद्य, अनिर्देश्य, जाम्बवान के प्रभु, मदन हैं, मथन हैं, सम्पूर्ण व्याप्ति हैं, विश्वरूप हैं, निरञ्जन हैं॥


"नारायणोऽग्रणीः साधुजंटायुप्रीतिवर्धनः।
नैकरूपो जगन्नाथः सुरकार्यहितः स्वभूः ॥ ३५॥
जितक्रोधो जितारातिः प्लवगाधिपराज्यद् ।
वसुदः सुभुजो नैकमायो भव्यप्रमोदनः॥ ३६॥"


इसका अर्थ है:
"नारायण के सामने नहीं चलने वाले हैं, साधुओं के प्रिय, जंगलीयों की प्रीति बढ़ाने वाले हैं॥ ३५॥अनेकरूपी, जगत के स्वामी, देवताओं के कार्यों के लिए हितकारी, स्वयं उत्पन्न हैं।॥ ३५॥क्रोध को जीतने वाले, अराति को जीतने वाले, वानरराज की पराजय में सच्चे राजा, वसुदेव के पुत्र, सुभुज, अनेकमायी, भविष्य की प्रमोदना हैं॥ ३६॥"

"चण्डाशुः सिद्धिदः कल्पः शरणागतवत्सलः ।
अगदो रोगहर्ता च मन्त्रज्ञो मन्रभावनः॥ ३७॥
सौमित्रिवत्सलो धुर्यां व्यक्ताव्यक्तस्वरूपधृक् ।
वसिष्ठो ग्रामणीः श्रीमाननुकूलः प्रियंवदः ॥ ३८ ॥"


"जो तेजस्वी हैं, सिद्धियों को प्रदान करने वाले, कल्प रूप, शरणागतों के प्रति वत्सल हैं।॥ ३७॥
रोगहरण करने वाले, मन्त्रज्ञ, मन के भावना में स्थित हैं॥ ३७॥
सौमित्री (लक्ष्मण) के तरह वत्सल हैं, अव्यक्त-व्यक्त स्वरूपधारी, वसिष्ठ, ग्रामणी, श्रीमान, अनुकूल, और प्रियंवादी हैं॥ ३८ ॥"

"अतुलः सात्विको धीरः शरासनविशारदः ।
ज्येष्ठः सर्वगुणोपेतः शक्तिमांस्तारकान्तकः ॥ ३९॥
वैकुण्ठः प्राणिनां प्राणः कमठः कमलापतिः ।
गोवर्धनधरो मत्स्यरूपः कारुण्यसागरः ॥ ४०॥"


इसका अर्थ है:
"अतुल, सात्विक, धीर, शरासन पर निपुण, ज्येष्ठ, सम्पूर्ण गुणों से युक्त, शक्तिमान, तारकान्तक है॥ ३९॥
वैकुण्ठ का स्वामी, प्राणियों का प्राण, कमठ, कमलापति, गोवर्धन धारी, मत्स्यरूपी, और कारुण्य सागर है॥ ४०॥"

कुम्भकर्णप्रभेत्ता च गोपीगोपालसंवृतः ।
मायावी व्यापको व्यापी रैणुकेयबलापहः ॥ ४१ ॥
पिनाकमथनो वन्द्यः समर्थो गरुडध्वजः ।
लोकत्रयाश्रयो लोकचरितो भरताग्रजः ॥ ४२ ॥


कुम्भकर्णप्रभेता और गोपीगोपाल से संवृत, मायावी, सर्वत्र व्यापक, रैणुकेय (हनुमान) के बल से अपहृत। 
पिनाकमथन करने वाला, वंदनीय, समर्थ, गरुडध्वज धारी, तीनों लोकों का आश्रय, लोकों में चरित, भरत के अग्रज (राम)। इस श्लोक का अर्थ है कि यह व्यक्ति कुम्भकर्ण के समान प्रभावशाली है और गोपीगोपाल के साथ मिलकर सम्पूर्ण है, मायावी है, सर्वत्र व्याप्त है, और रैणुकेय (हनुमान) के बल से अपहृत है। वह पिनाकमथन करने वाला है, वंदनीय है, समर्थ है, गरुडध्वज धारी है, तीनों लोकों का आश्रय है, लोकों में चरित है, और वह भरत के अग्रज (राम) है।


श्रीधरः सद्गतिर्लोकसाक्षी नारायणो बुधः ।
मनोवेगी मनोरूपी पूर्णः पुरुषपुङ्गवः ॥ ४३ ॥
यदुश्रेष्ठो यदुपतिर्भूतावासः सुविक्रमः ।
तेजोधरो धराधारश्चतुर्मूर्तिर्महानिधिः ॥ ४४ ॥"

इस श्लोक का अर्थ है:

"श्रीधर - जो श्रीलक्ष्मी को धारण करने वाला है, सद्गति - सद्गति का स्वामी, लोकसाक्षी - सम्पूर्ण लोकों के साक्षी, नारायण - सम्पूर्ण जगत का आधार, बुध - ज्ञान स्वरूप, मनोवेगी - मानसिक शक्ति से युक्त, मनोरूपी - मानसिक रूप से सम्पन्न, पूर्णः - पूर्ण स्वरूप, पुरुषपुङ्गवः - पुरुषों का प्रमुख। यदुश्रेष्ठ - यदु वंश के श्रेष्ठ, यदुपतिः - यदु वंश के राजा, भूतावासः - सम्पूर्ण भूतों का आश्रय, सुविक्रमः - पराक्रमी, तेजोधरः - ज्यों का त्यों ब्रह्मा, धराधारः - भूमि को धारण करने वाला, चतुर्मूर्तिः - चार मूर्तियों वाला, महानिधिः - महान धन।"


चाणूरमर्दनो दिव्यश्शान्तो भरतवन्दितः ।
शब्दातिगो गभीरात्मा कोमलाङ्गः प्रजागरः ॥ ४५ ॥
लोकगर्भश्शेषशायी क्षीराब्धिनिलयोऽमलः ।
आत्मयोनिरदीनात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ ४६ ॥
अमृतांशुर्महागर्भो निवृत्तविषयस्पृहः ।
त्रिकालज्ञो मुनिस्साक्षी विहायसगतिः कृती ॥ ४७ ॥
पर्जन्यः कुमुदो भूतावासः कमललोचनः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासो वीरहा लक्ष्मणाग्रजः ॥ ४८ ॥
लोकाभिरामो लोकारिमर्दनः सेवकप्रियः ।
सनातनतमो मेघश्यामलो राक्षसान्तकृत् ॥ ४९ ॥
दिव्यायुधधरः श्रीमानप्रमेयो जितेन्द्रियः ।
भूदेववन्द्यो जनकप्रियकृत्प्रपितामहः ॥ ५० ॥

"चाणूरमर्दनो - चाणूर और मर्दन, दिव्यश्शान्तो - दिव्य और शांत, भरतवन्दितः - जिसे भरतवंश के लोग पूजते हैं। शब्दातिगो - शब्द से परे जाने वाला, गभीरात्मा - गहरा आत्मा, कोमलाङ्गः - कोमल अंगों वाला, प्रजागरः - प्राणियों का जागरूक रखने वाला। लोकगर्भश्शेषशायी - सम्पूर्ण लोकों का गर्भ में सहायक, क्षीराब्धिनिलयोऽमलः - क्षीर सागर में निवास करने वाला और अमल, आत्मयोनिरदीनात्मा - स्वयं का शरीर न धारण करने वाला और अदीन आत्मा, सहस्राक्षः सहस्रपात् - हजार आंखों वाला और हजार हाथीयों वाला। अमृतांशुर्महागर्भो - अमृत के किरणों का स्रोत, निवृत्तविषयस्पृहः - विषयों से निवृत्त और निराशावादी, त्रिकालज्ञो - तीनों कालों का ज्ञानी, मुनिस्साक्षी - मुनियों का साक्षात्कारी, विहायसगतिः कृती - जगत की समस्त प्रवृत्तियों को छोड़कर एकमात्र गतिवाला। पर्जन्यः - वृष्टि करने वाला, कुमुदो - शान्ति देने वाला, भूतावासः - सम्पूर्ण भूतों का आश्रय, कमललोचनः - कमल की भांति शुभ नेत्रों वाला, श्रीवत्सवक्षाः - श्रीवत्स चिह्न से सुसज्जित हृदय वाला, श्रीवासो - श्रीवास नामक लक्ष्मीपति, वीरहा - वीरों का हनन करने वाला और लक्ष्मण के भाई।लोकाभिरामो - सम्पूर्ण लोकों को आकर्षित करने वाला, लोकारिमर्दनः - लोकों का संहार करने वाला, सेवकप्रियः - अपने भक्तों को प्रिय, सनातनतमो - सनातन और अत्यंत शांत, मेघश्यामलो - मेघ की भांति श्यामल रंगवाला, राक्षसान्तकृत् - राक्षसों का संहार करने वाला। दिव्यायुधधरः - दिव्य औषधियों का धारण करने वाला, श्रीमान - श्रीमान, अप्रमेयो - अप्रमेय, जितेन्द्रियः - इंद्रियों को जीतने वाला, भूदेववन्द्यो - भूदेवताओं का पूजनीय, जनकप्रियकृत् - जनकपति जनक के प्रियकर्ता और प्रपितामहः - प्रजापतिमहान्।


उत्तमः सात्विकः सत्यः सत्यसन्धस्त्रिविक्रमः ।
सुव्रतः सुलभः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुधीः ॥ ५१ ॥
दामोदरोऽच्युतश्शार्ङ्गी वामनो मधुराधिपः ।
देवकीनन्दनः शौरिः शूरः कैटभमर्दनः ॥ ५२ ॥
सप्ततालप्रभेत्ता च मित्रवंशप्रवर्धनः ।
कालस्वरूपी कालात्मा कालः कल्याणदः कविः
संवत्सर ऋतुः पक्षो ह्ययनं दिवसो युगः ॥ ५३ ॥
स्तव्यो विविक्तो निर्लेपः सर्वव्यापी निराकुलः ।
अनादिनिधनः सर्वलोकपूज्यो निरामयः ॥ ५४ ॥
रसो रसज्ञः सारज्ञो लोकसारो रसात्मकः ।
सर्वदुःखातिगो विद्याराशिः परमगोचरः ॥ ५५ ॥
शेषो विशेषो विगतकल्मषो रघुनायकः ।
वर्णश्रेष्ठो वर्णवाह्यो वर्ण्यो वर्ण्यगुणोज्ज्वलः ॥ ५६ ॥
कर्मसाक्ष्यमरश्रेष्ठो देवदेवः सुखप्रदः ।
देवाधिदेवो देवर्षिर्देवासुरनमस्कृतः ॥ ५७ ॥
सर्वदेवमयश्चक्री शार्ङ्गपाणी रघूत्तमः ।
मनो बुद्धिरहङ्कारः प्रकृतिः पुरुषोऽव्ययः ॥ ५८ ॥
अहल्यापावनः स्वामी पितृभक्तो वरप्रदः ।
न्यायो न्यायी नयी श्रीमान्नयो नगधरो ध्रुवः ॥ ५९ ॥
लक्ष्मीविश्वम्भराभर्ता देवेन्द्रो बलिमर्दनः ।
वाणारिमर्दनो यज्वानुत्तमो मुनिसेवितः ॥ ६० ॥

उत्तमः - श्रेष्ठ, सात्विकः - सात्विक प्रकृति वाला, सत्यः - सत्य, सत्यसन्धः - सत्य में स्थित, त्रिविक्रमः - तीनों लोकों को विक्रमी, सुव्रतः - सुप्रतिष्ठित व्रतों का पालन करने वाला, सुलभः - सुलभ, सूक्ष्मः - सूक्ष्म, सुघोषः - सुखदायक शब्दों का गोंवा बजाने वाला, सुखदः - सुख प्रद, सुधीः - बुद्धिमान। दामोदरः - जिसने दामन में बाँधा, अच्युतः - जो अच्युत है (जो कभी गिरा नहीं), शार्ङ्गी - शार्ङ्ग धनुष धारण करने वाला, वामनः - वामन स्वरूप, मधुराधिपः - मधुरा के राजा, देवकीनन्दनः - देवकी के पुत्र, शौरिः - शौरि कुल का, शूरः - वीर। सप्ततालप्रभेत्ता - सप्तताल को सम्भालने वाला, मित्रवंशप्रवर्धनः - मित्रवंश को बढ़ाने वाला, कालस्वरूपी - समय की सृष्टि में स्थित, कालात्मा - समय का स्वरूप, कालः - समय, कल्याणदः - कल्याणकारी, कविः - कवि (कल्याणकारी कविताओं का रचनाकर्ता), संवत्सर - संवत्सर, ऋतुः - ऋतु, पक्षः - पक्ष, ह्ययनं - ह्ययन, दिवसः - दिन, युगः - युग। स्तव्यो - प्रशंसनीय, विविक्तो - अलग, निर्लेपः - निर्लेप, सर्वव्यापी - सर्वत्र व्याप्त, निराकुलः - बिना किसी चिंता के, अनादिनिधनः - अनादि और निर्माणरहित, सर्वलोकपूज्यो - सम्पूर्ण लोकों द्वारा पूज्य, निरामयः - रोगरहित। रसो - रस, रसज्ञः - रस का ज्ञाता, सारज्ञः - सार का ज्ञाता, लोकसारो - लोक का सार, रसात्मकः - रस स्वरूप, सर्वदुःखातिगो - सम्पूर्ण दुःखों को तरने वाला, विद्याराशिः - विद्या की धारा, परमगोचरः - परम गोचर।शेषो - शेष नाग, विशेषो - अतिशय श्रेष्ठ, विगतकल्मषो - समस्त कल्मषों से रहित, रघुनायकः - रघु वंश के नायक, वर्णश्रेष्ठो - वर्ण में श्रेष्ठ, वर्णवाह्यो - वर्णों को बढ़ाने वाला, वर्ण्यो - प्रशंसनीय, वर्ण्यगुणोज्ज्वलः - गुणों में उज्ज्वल। कर्मसाक्ष्यमरश्रेष्ठो - कर्मों का साक्षात्कारी और अश्रेष्ठ, देवदेवः - देवों के देव, सुखप्रदः - सुख प्रद, देवाधिदेवो - देवों के अधिपति, देवर्षिर्देवासुरनमस्कृतः - देव ऋषियों, देवताओं और आसुरों द्वारा नमस्कृत। सर्वदेवमयः चक्री शार्ङ्गपाणी रघूत्तमः - सम्पूर्ण देवताओं से पूर्ण, शार्ङ्गपाणी - शार्ङ्ग धनुष धारण करने वाला और रघूत्तम - रघुकुल श्रेष्ठ। मनो - मन, बुद्धिः - बुद्धि, अहङ्कारः - अहंकार, प्रकृतिः - प्रकृति, पुरुषोऽव्ययः - अविनाशी। ।"न्यायो - न्याय, न्यायी - न्यायशील, नयी - नई, श्रीमान् - श्रीमान, नयो - नयवान, नगधर - नागों का सारथी, ध्रुवः - अद्वितीय और स्थिर। लक्ष्मीविश्वम्भराभर्ता - लक्ष्मी को धारण करने वाला और विश्व को धारण करने वाला, देवेन्द्रो - देवताओं का राजा, बलिमर्दनः - बलि राक्षस का संहार करने वाला, वाणारिमर्दनो - वानरों का संहार करने वाला, यज्वानुत्तमो - यज्ञों के उत्तम करने वाला, मुनिसेवितः - महर्षियों की पूजा में होने वाला। 

देवाग्रणीः शिवध्यानतत्परः परमः परः ।
सामगेयः प्रियोऽक्रूरः पुण्यकीर्तिस्सुलोचनः ॥ ६१ ॥
पुण्यः पुण्याधिकः पूर्वः पूर्णः पूरयिता रविः ।
जटिलः कल्मषध्वान्तप्रभञ्जनविभावसुः ॥ ६२ ॥
अव्यक्तलक्षणोऽव्यक्तो दशास्यद्विपकेसरी ।
कलानिधिः कलानाथो कमलानन्दवर्धनः ॥ ६३ ॥
जयी जितारिः सर्वादिः शमनो भवभञ्जनः ।
अलङ्करिष्णुरचलो रोचिष्णुर्विक्रमोत्तमः ॥ ६४ ॥
आशुः शब्दपतिः शब्दागोचरो रञ्जनो रघुः ।
निश्शब्दः प्रणवो माली स्थूलः सूक्ष्मो विलक्षणः ॥ ६५ ॥
आत्मयोनिरयोनिश्च सप्तजिह्वः सहस्रपात् ।
सनातनतमस्स्रग्वी पेशलो जविनां वरः ॥ ६६ ॥
शक्तिमाञ्शङ्खभृन्नाथः गदापद्मरथाङ्गभृत् ।
निरीहो निर्विकल्पश्च चिद्रूपो वीतसाध्वसः ॥ ६७ ॥
शताननः सहस्राक्षः शतमूर्तिर्धनप्रभः ।
हृत्पुण्डरीकशयनः कठिनो द्रव एव च ॥ ६८ ॥
उग्रो ग्रहपतिः श्रीमान् समर्थोऽनर्थनाशनः ।
अधर्मशत्रू रक्षोघ्नः पुरुहूतः पुरुष्टुतः ॥ ६९ ॥
ब्रह्मगर्भो बृहद्गर्भो धर्मधेनुर्धनागमः ।
हिरण्यगर्भो ज्योतिष्मान् सुललाटः सुविक्रमः ॥ ७० ॥

"देवाग्रणीः - देवताओं के प्रमुख, शिवध्यानतत्परः - शिव के ध्यान में रत, परमः - परम, परः - परम, सामगेयः - साम गाने योग्य, प्रियोऽक्रूरः - प्रिय और क्रूर, पुण्यकीर्तिस्सुलोचनः - पुण्य और कीर्ति के द्वारा शोभित और सुलोचन। पुण्यः - पुण्यमय, पुण्याधिकः - पुण्यमय और अधिक, पूर्वः - सबसे पहले, पूर्णः - पूर्ण, पूरयिता रविः - सूर्य द्वारा सम्पूर्ण जगत को पूर्ण करने वाला। जटिलः - जटाओं वाला, कल्मषध्वान्तप्रभञ्जनविभावसुः - पापों के अंधकार को तोड़ने वाला और प्रकाशित होने वाला। अव्यक्तलक्षणोऽव्यक्तो - अप्रकट लक्षणों वाला और अप्रकट, दशास्यद्विपकेसरी - दशास्य से विपकेसरी, कलानिधिः - कलाओं का समृद्धिपूर्ण सागर, कलानाथो - कलाओं का नाथ, कमलानन्दवर्धनः - कमल के चेहरे का आनंद बढ़ाने वाला। जयी - विजयी, जितारिः - सम्प्राप्तियों का नाश करने वाला, सर्वादिः - सम्पूर्ण दिक्पालों का आदिदेव, शमनो - शमन करने वाला, भवभञ्जनः - संसार का भयनाश करने वाला। अलङ्करिष्णुरचलो - अलङ्कृत और श्रीकृष्ण, रोचिष्णुर्विक्रमोत्तमः - चमकते हुए और उत्तम विक्रमी। आशुः - शीघ्र, शब्दपतिः - वाचन का प्रमुख, शब्दागोचरो - शब्दों से बाहर रहने वाला, रञ्जनो रघुः - सुखद और राघव, निश्शब्दः - शब्दरहित, प्रणवो - प्रणव, माली - माली, स्थूलः - भयंकर, सूक्ष्मो - सूक्ष्म, विलक्षणः - अद्वितीय। आत्मयोनिर - स्वयं के लिए एकमात्र जन्मान्तर, अयोनिश्च - अयोनि से भी जन्मित, सप्तजिह्वः - सात जिह्वाओं वाला, सहस्रपात् - हजार हाथीयों वाला, सनातनतमस्स्रग्वी - सनातन और सर्वगुणों से सुशोभित, पेशलो जविनां वरः - जविनाम् वर, शक्तिमाञ्शङ्खभृन्नाथः - शंख को धारण करने वाला और शंख धारी नाथ, गदापद्मरथाङ्गभृत् - गदा, पद्म, रथ, और अंग धारण करने वाला, निरीहो - लोभरहित, निर्विकल्पश्च - निर्विकल्प, चिद्रूपो - चैतन्यरूप, वीतसाध्वसः - सभी कष्टों से मुक्त।शताननः - सौ मुखवाला, सहस्राक्षः - हजार नेत्रों वाला, शतमूर्तिर्धनप्रभः - सौ मूर्तियों के धन का प्रकाश, हृत्पुण्डरीकशयनः - हृदय में कमल के पत्ते पर शयन करने वाला, कठिनो द्रव एव च - वस्त्र कठिन होता है, किन्तु उसका भोग आसान होता है। उग्रो - भयंकर, ग्रहपतिः - ग्रहों के स्वामी, श्रीमान् - श्रीमान, समर्थोऽनर्थनाशनः - सभी अनार्थों का नाश करने वाला, अधर्मशत्रू - अधर्म के शत्रु, रक्षोघ्नः - राक्षसों का नाशक, पुरुहूतः - सभी यज्ञों का होमकर्ता, पुरुष्टुतः - सभी पुरुषों द्वारा प्रशंसित। ब्रह्मगर्भो - ब्रह्मा के गर्भ से उत्पन्न, बृहद्गर्भो - बृहद्रूप वाला गर्भ, धर्मधेनुर्धनागमः - धर्म और धन का स्रोत, हिरण्यगर्भो - हिरण्यगर्भ, ज्योतिष्मान् - ज्योतिष्मान, सुललाटः - चंचल नेत्रों वाला, सुविक्रमः - अत्यन्त शक्तिशाली। 

शिवपूजारतः श्रीमान् भवानीप्रियकृद्वशी ।
नरो नारायणः श्यामः कपर्दी नीललोहितः ॥ ७१ ॥
रुद्रः पशुपतिः स्थाणुर्विश्वामित्रो द्विजेश्वरः ।
मातामहो मातरिश्वा विरिञ्चो विष्टरश्रवाः ॥ ७२ ॥
अक्षोभ्यः सर्वभूतानां चण्डः सत्यपराक्रमः ।
वालखिल्यो महाकल्पः कल्पवृक्षः कलाधरः ॥ ७३ ॥
निदाघस्तपनोऽमोघः श्लक्ष्णः परबलापहृत् ।
कबन्धमथनो दिव्यः कम्बुग्रीव शिवप्रियः ॥ ७४ ॥
शङ्खोऽनिलः सुनिष्पन्नः सुलभः शिशिरात्मकः ।
असंसृष्टोऽतिथिः शूरः प्रमाथी पापनाशकृत् ॥ ७५ ॥
वसुश्रवाः कव्यवाहः प्रतप्तो विश्वभोजनः ।
रामो नीलोत्पलश्यामो ज्ञानस्कन्धो महाद्युतिः ॥ ७६ ॥
पवित्रपादः पापारिर्मणिपूरो नभोगतिः ।
उत्तारणो दुष्कृतिहा दुर्धर्षो दुस्सहोऽभयः ॥ ७७ ॥
अमृतेशोऽमृतवपुर्धर्मी धर्मः कृपाकरः ।
भर्गो विवस्वानादित्यो योगाचार्यो दिवस्पतिः ॥ ७८ ॥
उदारकीर्तिरुद्योगी वाङ्मयः सदसन्मयः ।
नक्षत्रमाली नाकेशः स्वाधिष्ठानः षडाश्रयः ॥ ७९ ॥
चतुर्वर्गफलो वर्णी शक्तित्रयफलं निधिः ।
निधानगर्भो निर्व्याजो गिरीशो व्यालमर्दनः ॥ ८० ॥


"शिवपूजारतः - जिसने शिव पूजा की है, श्रीमान् - श्रीमान, भवानीप्रियकृत्वशी - भवानी को प्रिय करने वाला, नरो नारायणः - मनुष्य और नारायण, श्यामः - श्यामवर्ण, कपर्दी - कपर्द धारी, नीललोहितः - नीला और लोहित (लाल) रंग है। रुद्रः - रुद्र, पशुपतिः - पशुपति, स्थाणुर्विश्वामित्रो - स्थाणु, विश्वामित्र, द्विजेश्वरः - द्विजों के ईश्वर, मातामहो - मातामह, मातरिश्वा - मातरिश्वा (सूर्य), विरिञ्चो - विरिञ्च, विष्टरश्रवाः - विष्टरश्रवा (बृगु ऋषि) की उपासना करने वाला। 
अक्षोभ्यः - जिससे आकुलि नहीं होता, सर्वभूतानां - सभी भूतों के, चण्डः - क्रोधरूप, सत्यपराक्रमः - सत्य पराक्रम से युक्त, वालखिल्यो - वालखिल्य, महाकल्पः - महाकल्प, कल्पवृक्षः - कल्पवृक्ष, कलाधरः - शक्तियों का धारण करने वाला। निदाघस्तपनोऽमोघः - जो सर्वत्र विघ्न नष्ट करने वाला और अमोघ है, श्लक्ष्णः - स्नेहस्वभाव, परबलापहृत् - पर बल का नाशक, कबन्धमथनो - कबन्धनाशक, दिव्यः - दिव्य, कम्बुग्रीव - कम्बुग्रीव, शिवप्रियः - शिव को प्रिय। ७४शङ्खोऽनिलः - शंख और अनिल (वायु), सुनिष्पन्नः - सुनिष्पन्न (सुनिष्पन्न भूत), सुलभः - सुलभ, शिशिरात्मकः - शिशिर के समान रूप वाला, असंसृष्टोऽतिथिः - जिससे यात्रा में किसी के साथ मिलकर संसार नहीं होता, शूरः - बहादुर, प्रमाथी - सम्पूर्ण प्राणियों के अंतर्गत होने वाला, पापनाशकृत् - पापों का नाशक। वसुश्रवाः - धन्यवादी, कव्यवाहः - कवि, प्रतप्तो - प्रतप्त (तेज), विश्वभोजनः - विश्व का भोजन करने वाला, रामो - राम, नीलोत्पलश्यामो - नीलोत्पल के समान श्याम वर्ण, ज्ञानस्कन्धो - ज्ञान के वृक्ष, महाद्युतिः - अत्यंत तेजवाला। पवित्रपादः - पवित्र पाद (पादयुगल), पापारिर्मणिपूरो - पापों को नष्ट करने वाला, नभोगतिः - आकाश का स्वामी, उत्तारणो - उत्तारण करने वाला, दुष्कृतिहा - दुष्कृतियों का नाशक, दुर्धर्षो - अत्यंत कठिन है, दुस्सहोऽभयः - अभय प्रद।अमृतेशोऽमृतवपुर्धर्मी - अमृत के स्वामी और अमृतरूप, धर्मः - धर्म, कृपाकरः - कृपा करने वाला, भर्गो - भारी, विवस्वानादित्यो - विवस्वान आदित्य, योगाचार्यो - योगाचार्य, दिवस्पतिः - दिवस्पति (बृहस्पति)। उदारकीर्तिरुद्योगी - उदार कीर्ति वाला और योगी, वाङ्मयः - वाङ्मय, सदसन्मयः - सत्य रूप से पूर्ण, नक्षत्रमाली - नक्षत्रमाला धारी, नाकेशः - नाकेश (कार्तिकेय), स्वाधिष्ठानः - स्वाधिष्ठान चक्र का स्वामी, षडाश्रयः - षडाश्रय (षड्गुण)। चतुर्वर्गफलो - चार वर्गों का फल देने वाला, वर्णी - वर्णों का गुणवान, शक्तित्रयफलं - तीन शक्तियों का फल देने वाला, निधिः - निधि, निधानगर्भो - सम्पूर्ण लोकों का गर्भ, निर्व्याजो - निर्मल, गिरीशो - गिरीश (शिव), व्यालमर्दनः - व्यालों का नाशक। 

श्रीवल्लभः शिवारम्भः शान्तिर्भद्रः समञ्जसः ।
भूशयो भूतिकृद्भूतिर्भूषणो भूतवाहनः ॥ ८१ ॥
अकायो भक्तकायस्थः कालज्ञानी महावटुः ।
परार्थवृत्तिरचलो विविक्तः श्रुतिसागरः ॥ ८२ ॥
स्वभावभद्रो मध्यस्थः संसारभयनाशनः ।
वेद्यो वैद्यो वियद्गोप्ता सर्वामरमुनीश्वरः ॥ ८३ ॥
सुरेन्द्रः करणं कर्म कर्मकृत्कर्म्यधोक्षजः ।
ध्येयो धुर्यो धराधीशः सङ्कल्पः शर्वरीपतिः ॥ ८४ ॥
परमार्थगुरुर्वृद्धः शुचिराश्रितवत्सलः ।
विष्णुर्जिष्णुर्विभुर्वन्द्यो यज्ञेशो यज्ञपालकः ॥ ८५ ॥
प्रभविष्णुर्ग्रसिष्णुश्च लोकात्मा लोकभावनः ।
केशवः केशिहा काव्यः कविः कारणकारणम् ॥ ८६ ॥
कालकर्ता कालशेषो वासुदेवः पुरुष्टुतः ।
आदिकर्ता वराहश्च माधवो मधुसूदनः ॥ ८७ ॥
नारायणो नरो हंसो विष्वक्सेनो जनार्दनः ।
विश्वकर्ता महायज्ञो ज्योतिष्मान् पुरुषोत्तमः ॥ ८८ ॥
वैकुण्ठः पुण्डरीकाक्षः कृष्णः सूर्यः सुरार्चितः ।
नारसिंहो महाभीमो वक्रदम्ष्ट्रो नखायुधः ॥ ८९ ॥
आदिदेवो जगत्कर्ता योगीशो गरुडध्वजः ।
गोविन्दो गोपतिर्गोप्ता भूपतिर्भुवनेश्वरः ॥ ९० ॥

"श्रीवल्लभः - श्री का प्रिय, शिवारम्भः - शिव का आरम्भ, शान्तिर्भद्रः - शान्ति रूपी, समञ्जसः - सुखद, भूशयो - भूषणों की शोभा, भूतिकृत् - भूतियों का करने वाला, भूतिर्भूषणो - भूतियों का भूषण, भूषणो - भूषण, भूतवाहनः - भूतों को वाहन, अकायो - शरीररहित, भक्तकायस्थः - भक्तों के शरीर में स्थित, कालज्ञानी - समय का ज्ञाता, महावटुः - भयङ्कर समुद्र, परार्थवृत्तिरचलो - परार्थ के लिए प्रतिबद्ध, विविक्तः - अलग, श्रुतिसागरः - श्रुतियों का सागर, स्वभावभद्रो - स्वभाव में श्रेष्ठ, मध्यस्थः - मध्य में स्थित, संसारभयनाशनः - संसार का भय नाशक, वेद्यो - ज्ञेय, वैद्यो - वैद्य, वियद्गोप्ता - आकाश का पालक, सर्वामरमुनीश्वरः - सम्पूर्ण मुनियों के ईश्वर, सुरेन्द्रः - सुरों का राजा, करणं - करण, कर्म - कर्म, कर्मकृत् - कर्म करने वाला, कर्म्यधोक्षजः - कर्मों का उत्तमअवस्थान में स्थित, 
ध्येयो - ध्येय, धुर्यो - धारणी का भार, धराधीशः - धराधीश, सङ्कल्पः - संकल्प, शर्वरीपतिः - शर्वरी (रात्रि) के पति, परमार्थगुरुर्वृद्धः - परमार्थ का गुरु और बड़ा, शुचिराश्रितवत्सलः - शुचि में रहने वाला और भक्तों का पालक, विष्णुर्जिष्णुर्विभुर्वन्द्यो - विष्णु, जिष्णु, विभु, वन्द्य - पूजनीय, यज्ञेशो - यज्ञ का स्वामी, यज्ञपालकः - यज्ञ का पालक, प्रभविष्णुर्ग्रसिष्णुश्च - प्रभु, विष्णु, ग्रसिष्णु, लोकात्मा - लोकों का आत्मा, लोकभावनः - लोकों का सृष्टिकर्ता, केशवः - केशव, केशिहा - केशी को मारने वाला, काव्यः - कवि, कविः - कवि, कारणकारणम् - सब कारणों का कारण, 
कालकर्ता - काल का नियंता, कालशेषो - कालशेष (अनन्त शेषनाग), वासुदेवः - वासुदेव, पुरुष्टुतः - पुरुषों का प्रशंसित, आदिकर्ता - सर्व कारणों का कारण, वराहश्च - वराह रूपी, माधवो - माधव, मधुसूदनः - मधुसूदन, 
नारायणो - नारायण, नरो - मनुष्य, हंसो - हंस (ब्रह्मा), विष्वक्सेनो - विष्वक्सेन, जनार्दनः - जनार्दन, 
विश्वकर्ता - सम्पूर्ण विश्व का निर्माता, महायज्ञो - महायज्ञ, ज्योतिष्मान् - प्रकाशमान, पुरुषोत्तमः - पुरुषोत्तम, 
वैकुण्ठः - वैकुण्ठ, पुण्डरीकाक्षः - पुण्डरीकाक्ष, कृष्णः - कृष्ण, सूर्यः - सूर्य, सुरार्चितः - सुरों द्वारा पूज्य, 
नारसिंहो - नरसिंह, महाभीमो - अत्यंत भीम, वक्रदम्ष्ट्रो - वक्रदंष्ट्र, नखायुधः - नखों से युद्ध करने वाला, 
आदिदेवो - सबसे पहले देवता, जगत्कर्ता - जगत का निर्माता, योगीशो - योगीश, गरुडध्वजः - गरुड़ को ध्वज वाहक,गोविन्दो - गोविन्द, गोपतिर्गोप्ता - गोपियों का पालक और रक्षक, भूपतिर्भुवनेश्वरः - भूपति और भुवन के ईश्वर,


पद्मनाभो हृषीकेशो धाता दामोदरः प्रभुः ।
त्रिविक्रमस्त्रिलोकेशो ब्रह्मेशः प्रीतिवर्धनः ॥ ९१ ॥
वामनो दुष्टदमनो गोविन्दो गोपवल्लभः ।
भक्तप्रियोऽच्युतः सत्यः सत्यकीर्तिर्धृतिः स्मृतिः ॥ ९२ ॥
कारुण्यं करुणो व्यासः पापहा शान्तिवर्धनः ।
संन्यासी शास्त्रतत्त्वज्ञो मन्दराद्रिनिकेतनः ॥ ९३ ॥
बदरीनिलयः शान्तस्तपस्वी वैद्युतप्रभः ।
भूतावासो गुहावासः श्रीनिवासः श्रियः पतिः ॥ ९४ ॥
तपोवासो मुदावासः सत्यवासः सनातनः ।
पुरुषः पुष्करः पुण्यः पुष्कराक्षो महेश्वरः ॥ ९५ ॥
पूर्णमूर्तिः पुराणज्ञः पुण्यदः प्रीतिवर्धनः ।
शङ्खी चक्री गदी शार्ङ्गी लाङ्गली मुसली हली ॥ ९६ ॥
किरीटी कुण्डली हारी मेखली कवची ध्वजी ।
योद्धा जेता महावीर्यः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ॥ ९७ ॥
शास्ता शास्त्रकरः शास्त्रं शङ्कर शङ्करस्तुतः ।
सारथिः सात्त्विकः स्वामी सामवेदप्रियः समः ॥ ९८ ॥
पवनः संहतः शक्तिः सम्पूर्णाङ्गः समृद्धिमान् ।
स्वर्गदः कामदः श्रीदः कीर्तिदोऽकीर्तिनाशनः ॥ ९९ ॥
मोक्षदः पुण्डरीकाक्षः क्षीराब्धिकृतकेतनः ।
सर्वात्मा सर्वलोकेशः प्रेरकः पापनाशनः ॥ १०० ॥

"पद्मनाभो - पद्म की आधारशिला वाला, हृषीकेशो - सब इंद्रियों के स्वामी, धाता - जगत का पालक, दामोदरः - दामन बांधने वाला, प्रभुः - परमेश्वर,त्रिविक्रमः - तीनों लोकों का विक्रमी, त्रिलोकेशो - तीनों लोकों के स्वामी, ब्रह्मेशः - ब्रह्मा, प्रीतिवर्धनः - प्रेम की वृद्धि करने वाला, वामनो - वामन, दुष्टदमनो - दुष्टों को मारने वाला, गोविन्दो - गोपों का पालक, गोपवल्लभः - गोपियों का प्रिय, भक्तप्रियोऽच्युतः - भक्तों का प्रिय और अच्युत, सत्यः - सत्य, सत्यकीर्तिर्धृतिः - सत्य की प्रशंसा करने वाला और धृति, स्मृतिः - स्मृति,कारुण्यं - करुणा, करुणो - करुणामय, व्यासः - व्यास, पापहा - पापों का नाश करने वाला, शान्तिवर्धनः - शान्ति की वृद्धि करने वाला, संन्यासी - संन्यासी, शास्त्रतत्त्वज्ञो - शास्त्रतत्त्व के ज्ञानी, मन्दराद्रिनिकेतनः - मन्दराचल पर्वत में निवास करने वाला, बदरीनिलयः - बदरी की निवासी, शान्तः - शान्त, तपस्वी - तपस्वी, वैद्युतप्रभः - बिजली की तरह प्रकाशमान, भूतावासो - भूतों का निवास, गुहावासः - गुहाओं में वास, श्रीनिवासः - श्रीराम का आश्रय, श्रियः पतिः - श्री का पति, तपोवासो - तप का आश्रय, मुदावासः - मुदा का आश्रय, सत्यवासः - सत्य का आश्रय, सनातनः - सनातन, पुरुषः - पुरुष, पुष्करः - पुष्कर, पुण्यः - पुण्यमय, पुष्कराक्षो - पुष्कराक्ष, महेश्वरः - महेश्वर, पूर्णमूर्तिः - संपूर्ण रूपवाला, पुराणज्ञः - पुराणों का ज्ञानी, पुण्यदः - पुण्य दान करने वाला, प्रीतिवर्धनः - प्रेम की वृद्धि करने वाला, शङ्खी - शंख (पंचजन्य) चक्री - चक्र, गदी - गदा, शार्ङ्गी - शार्ङ्गी (धनुष), लाङ्गली - लाङ्गल (अज्ञेय), मुसली - मुसल (मूसल), हली - हल (प्लौघ), किरीटी - किरीट (मुकुट), कुण्डली - कुण्डल (कानकी), हारी - हार, मेखली - मेखला, कवची - कवच, ध्वजी - ध्वज, योद्धा - योद्धा, जेता - जीतने वाला, महावीर्यः - महावीर, शत्रुजिच्छत्रुतापनः - शत्रुओं का भयभंकर, शास्ता - शासक, शास्त्रकरः - शास्त्रों के ज्ञाता, शास्त्रं - शास्त्र, शङ्कर - भगवान शिव, शङ्करस्तुतः - शिव की स्तुति करने वाला, सारथिः - अर्जुन के सारथि, सात्त्विकः - सात्त्विक, स्वामी - स्वामी, सामवेदप्रियः - सामवेद का प्रिय, समः - सम, पवनः - पवन, संहतः - संहारक, शक्तिः - शक्तिमान, सम्पूर्णाङ्गः - सम्पूर्ण शरीर वाला, समृद्धिमान् - समृद्धि वाला, स्वर्गदः - स्वर्ग दान करने वाला, कामदः - कामनाओं को पूर्ण करने वाला, श्रीदः - श्री प्रदान करने वाला, कीर्तिदोऽकीर्तिनाशनः - कीर्ति और अकीर्ति को नष्ट करने वाला, मोक्षदः - मोक्ष प्रदान करने वाला, पुण्डरीकाक्षः - पुण्डरीकाक्ष, क्षीराब्धिकृतकेतनः - क्षीर समुद्र को हलाहल बनाने वाला, सर्वात्मा - सम्पूर्ण जीवात्मा, सर्वलोकेशः - सम्पूर्ण लोकों के ईश्वर, प्रेरकः - प्रेरक, पापनाशनः - पापों का नाश करने वाला, 

सर्वव्यापी जगन्नाथः सर्वलोकमहेश्वरः ।
सर्गस्थित्यन्तकृद्देवः सर्वलोकसुखावहः ॥ १०१ ॥
अक्षय्यः शाश्वतोऽनन्तः क्षयवृद्धिविवर्जितः ।
निर्लेपो निर्गुणः सूक्ष्मो निर्विकारो निरञ्जनः ॥ १०२ ॥
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तः सत्तामात्रव्यवस्थितः ।
अधिकारी विभुर्नित्यः परमात्मा सनातनः ॥ १०३ ॥
अचलो निर्मलो व्यापी नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
श्यामो युवा लोहिताक्षो दीप्तास्यो मितभाषणः ॥ १०४ ॥
आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाभुजः ।
सत्यवान् गुणसम्पन्नः स्वयन्तेजाः सुदीप्तिमान् ॥ १०५ ॥
कालात्मा भगवान् कालः कालचक्रप्रवर्तकः ।
नारायणः परञ्ज्योतिः परमात्मा सनातनः ॥ १०६ ॥
विश्वसृड् विश्वगोप्ता च विश्वभोक्ता च शाश्वतः ।
विश्वेश्वरो विश्वमूर्तिर्विश्वात्मा विश्वभावनः ॥ १०७ ॥
सर्वभूतसुहृच्छान्तः सर्वभूतानुकम्पनः ।
सर्वेश्वरेश्वरः सर्वः श्रीमानाश्रितवत्सलः ॥ १०८ ॥
सर्वगः सर्वभूतेशः सर्वभूताशयस्थितः ।
अभ्यन्तरस्थस्तमसश्छेत्ता नारायणः परः ॥ १०९ ॥
अनादिनिधनः स्रष्टा प्रजापतिपतिर्हरिः ।
नरसिंहो हृषीकेशः सर्वात्मा सर्वदृग्वशी ॥ ११० ॥


"सर्वव्यापी जगन्नाथः - सभी जगह व्याप्त जगन्नाथ, सर्वलोकमहेश्वरः - सभी लोकों के महेश्वर, सर्वस्थित्यन्तकृद्देवः - सभी स्थिति में देवता, सर्वलोकसुखावहः - सभी लोकों में सुख देने वाला, अक्षय्यः - अक्षय, शाश्वतोऽनन्तः - शाश्वत और अनंत, क्षयवृद्धिविवर्जितः - क्षय और वृद्धि से रहित, निर्लेपो - अलेप से रहित, निर्गुणः - निर्गुण, सूक्ष्मो - सूक्ष्म, निर्विकारो - निर्विकार, निरञ्जनः - निरंजन, सर्वोपाधिविनिर्मुक्तः - सभी उपाधियों से मुक्त, सत्तामात्रव्यवस्थितः - केवल सत्ता में स्थित, अधिकारी - सर्वाधिकारी, विभुः - सम्पूर्ण व्याप्तिवाला, नित्यः - नित्य, परमात्मा - परमात्मा, सनातनः - सनातन, अचलो - अचल, निर्मलो - निर्मल, व्यापी - व्याप्त, नित्यतृप्तो - हमेशा संतुष्ट, निराश्रयः - निराश्रित, श्यामो - कृष्ण, युवा - युवक, लोहिताक्षो - लोहिताक्ष, दीप्तास्यो - प्रकाशमान आंशु, मितभाषणः - संक्षेप में बातें करने वाला, आजानुबाहुः - जानु के नीचे हाथ रखने वाला, सुमुखः - सुंदर मुखवाला, सिंहस्कन्धो - सिंह के समान कंधे वाला, महाभुजः - महाबाहु, सत्यवान् - सत्यवान, गुणसम्पन्नः - गुणों से समृद्ध, स्वयन्तेजाः - स्वयं तेजस्वी, सुदीप्तिमान् - प्रकाशमान, कालात्मा - कालरूपी आत्मा, भगवान् कालः - भगवान काल, कालचक्रप्रवर्तकः - कालचक्र का सर्वोत्तम, नारायणः - नारायण, परञ्ज्योतिः - परम प्रकाश, परमात्मा - परमात्मा, सनातनः - सनातन, विश्वसृड् - सब कुछ सृष्टि करने वाला, विश्वगोप्ता - सबका पालक, विश्वभोक्ता - सबका भोग, शाश्वतः - सदा रहने वाला, विश्वेश्वरो - सभी ईश्वरों का स्वामी, विश्वमूर्तिर्विश्वात्मा - सभी रूपों में समर्थ और सभी जीवात्माओं में व्याप्त, विश्वभावनः - सभी के हृदय में विद्यमान, सर्वभूतसुहृच्छान्तः - सभी भूतों के सखा और शान्त, सर्वभूतानुकम्पनः - सभी भूतों पर करुणा करने वाला, सर्वेश्वरेश्वरः - सभी ईश्वरों का ईश्वर, सर्वः - सभी, श्रीमान - श्रीमान, आश्रितवत्सलः - आश्रितों का प्रेमी, सर्वगः - सभी में व्याप्त, सर्वभूतेशः - सभी भूतों का ईश्वर, सर्वभूताशयस्थितः - सभी भूतों में स्थित, अभ्यन्तरस्थस्तमसः - अंधकार में व्याप्त, छेत्ता - छेदने वाला, नारायणः परः - नारायण,

गतस्तस्थुषश्चैव प्रभुर्नेता सनातनः ।
कर्ता धाता विधाता च सर्वेषां प्रभुरीश्वरः ॥ १११ ॥
सहस्रमूर्तिर्विश्वात्मा विष्णुर्विश्वदृगव्ययः ।
पुराणपुरुषः स्रष्टा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ ११२ ॥
तत्त्वं नारायणो विष्णुर्वासुदेवः सनातनः ।
परमात्मा परं ब्रह्म सच्चिदानन्दविग्रहः ॥ ११३ ॥
परञ्ज्योतिः परन्धामः पराकाशः परात्परः ।
अच्युतः पुरुषः कृष्णः शाश्वतः शिव ईश्वरः ॥ ११४ ॥
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरुग्रः साक्षी प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भः सविता लोककृल्लोकभृद्विभुः ॥ ११५ ॥
रामः श्रीमान् महाविष्णुर्जिष्णुर्देवहितावहः ।
तत्त्वात्मा तारकं ब्रह्म शाश्वतः सर्वसिद्धिदः ॥ ११६ ॥
अकारवाच्यो भगवान् श्रीर्भू लीलापतिः पुमान् ।
सर्वलोकेश्वरः श्रीमान् सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥ ११७ ॥
स्वामी सुशीलः सुलभः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ।
नित्यः सम्पूर्णकामश्च नैसर्गिकसुहृत्सुखी ॥ ११८ ॥
कृपापीयूषजलधिश्शरण्यः सर्वदेहिनाम् ।
श्रीमान्नारायणः स्वामी जगतां पतिरीश्वरः ॥ ११९ ॥
श्रीशः शरण्यो भूतानां संश्रिताभीष्टदायकः ।
अनन्तः श्रीपती रामो गुणभृन्निर्गुणो महान् ॥ १२० ॥

"जगतस्तस्थुषश्चैव प्रभुर्नेता सनातनः - जगत का स्थिति और सृष्टि का प्रभु, सनातन धर्ता, कर्ता धाता विधाता च सर्वेषां प्रभुरीश्वरः - सभी का कर्ता, धारक और विधाता, सबका प्रभु और ईश्वर, सहस्रमूर्तिर्विश्वात्मा विष्णुर्विश्वदृगव्ययः - सहस्र रूपवाला, सबका आत्मा, विष्णु, विश्वदृष्टा और अविनाशी, पुराणपुरुषः स्रष्टा सहस्राक्षः सहस्रपात् - पुरातन पुरुष, सृष्टि करने वाला, सहस्राक्ष, सहस्रपात, तत्त्वं नारायणो विष्णुर्वासुदेवः सनातनः - तत्त्व में नारायण, विष्णु, वासुदेव, सनातन, परमात्मा परं ब्रह्म सच्चिदानन्दविग्रहः - परमात्मा, परा ब्रह्म, सत्-चित्-आनंद स्वरूप, १परञ्ज्योतिःपरन्धामः पराकाशः परात्परः - परम प्रकाश, परम धाम, पराकाश, परमात्पर, अच्युतः पुरुषः कृष्णः शाश्वतः शिव ईश्वरः - अच्युत, पुरुष, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर, नित्यः सर्वगतः स्थाणुरुग्रः साक्षी प्रजापतिः - नित्य, सर्वगत, स्थाणु, उग्र, साक्षी, प्रजापति, हिरण्यगर्भः सविता लोककृल्लोकभृद्विभुः - हिरण्यगर्भ, सविता, सभी लोकों का सृष्टिकर्ता, लोकों का पालक, विभु, रामः श्रीमान् महाविष्णुर्जिष्णुर्देवहितावहः - राम, श्रीमान, महाविष्णु, जिष्णु, देवताओं के प्रिय, अवहिता का हित, तत्त्वात्मा तारकं ब्रह्म शाश्वतः सर्वसिद्धिदः - तत्त्वात्मा, तारक, ब्रह्म, शाश्वत, सर्व सिद्धि प्रदाता, अकारवाच्यो भगवान् श्रीर्भू लीलापतिः पुमान् - अकार रूपी भगवान, श्री, लीलाओं का पति, मानव, सर्वलोकेश्वरः श्रीमान् सर्वज्ञः सर्वतोमुखः - सर्व लोकों के ईश्वर, श्रीमान, सर्वज्ञ, सर्वत्र अवलोकन करने वाला, ११७ ।
स्वामी सुशीलः सुलभः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् - स्वामी, सुशील, सुलभ, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, नित्यः सम्पूर्णकामश्च नैसर्गिकसुहृत्सुखी - नित्य, सम्पूर्ण कामों को पूर्ण करने वाला, स्वभाव से ही सभी का मित्र और सुखी, कृपापीयूषजलधिश्शरण्यः सर्वदेहिनाम् - कृपा का अमृत समुद्र, शरणागतवत्सल, सम्पूर्ण देहिनाम् का शरण, श्रीमान्नारायणः स्वामी जगतां पतिरीश्वरः - श्रीमान नारायण, स्वामी, जगत का पति और ईश्वर, श्रीशः शरण्यो भूतानां संश्रिताभीष्टदायकः - श्रीश, भूतों का शरण, संश्रितों की अभीष्ट प्रदाता, अनन्तः श्रीपती रामो गुणभृन्निर्गुणो महान् - अनंत, श्रीपति राम, गुणों के धारी, निर्गुण, महान, 


इति श्रीरामसहस्रनामस्तोत्रम् ॥

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